भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ७५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ७५
श्रवण द्वादशी-व्रत के प्रसंग में एक वणिक् की कथा

युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! जो व्यक्ति दीर्घ उपवास करने में असमर्थ हो उसके लिये कौन-सा व्रत हैं ? इसे आप बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — राजन् ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि यदि श्रवण नक्षत्र से युक्त हो तो इसमें व्रत करने से सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । om, ॐयह परम पवित्र एवं महान् फल देनेवाली द्वादशी है । इस व्रत में प्रातःकाल नदी-संगम में जाकर स्नान करके द्वादशी में उपवास करना चाहिये । एकमात्र इस श्रवण-द्वादशी के व्रत कर लेने से द्वादश द्वादशी-व्रत का फल प्राप्त हो जाता है । यदि इस तिथि में बुधवार का भी योग हो जाय तो इसमें किये गये समस्त कर्म अक्षय हो जाते हैं । इस व्रत से गङ्गास्नान का लाभ होता है । इस व्रत में एक सुन्दर कलश की विधिवत् स्थापना कर उसमें भगवान् विष्णु की प्रतिमा यथाविधि स्थापित करनी चाहिये । अनन्तर भगवान् की अङ्गपूजा करनी चाहिये । रात्रि में जागरण करे । प्रभातकाल में स्नान कर गरुडध्वज की पूजा करे और पुष्पाञ्जलि देकर इस प्रकार प्रार्थना करे—

“नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ।
अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ॥”
(उत्तरपर्व ७५ । १५)

अनन्तर वेदज्ञ एवं पुराणज्ञ ब्राह्मणों की पूजा करे और प्रतिमा आदि सब पदार्थ ‘प्रीयतां मे जनार्दनः’ कहकर ब्राह्मण को निवेदित कर दे ।

श्रीकृष्ण ने पुनः कहा —
महाराज ! इस व्रत के प्रसंग में एक प्राचीन आख्यान है, उसे आप सुने — दशार्ण देश के पश्चिम भाग में सम्पूर्ण प्राणियों को भय देनेवाला एक मरुदेश है । वहाँ की भूमि की बालू निरन्तर तपती रहती है, यत्र-तत्र भयंकर साँप घूमते रहते हैं । वहाँ छाया बहुत कम हैं । वृक्षों में पत्ते कम रहते हैं । प्राणी प्रायः मरे-जैसे ही रहते हैं । शमी, खैर, पलाश, करील, पीलु आदि कँटीले वृक्ष वहाँ हैं । वहाँ अन्न और जल बहुत कम मिलता है । वृक्षों के कोटरों में छोटे-छोटे पक्षी प्यासे ही मर जाते हैं । वहाँ के प्यासे हरिण मरुभूमि में जल की इच्छा से दौड़ लगाते रहते हैं और जल न मिलने से मर जाते हैं ।

उस मरुस्थल में दैववश एक वणिक् पहुँच गया । वह अपने साथियों से बिछुड़ गया था । उसने इधर-उधर घूमते हुए भयंकर पिशाचों को वहाँ देखा । वह वणिक् भूख-प्यास से व्याकुल होकर इधर-उधर घूमने लगा । कहने लगा — क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कहाँ से मुझे अन्न-जल प्राप्त हो । तदनन्तर उसने एक प्रेत के स्कन्ध-प्रदेश पर बैठे एक प्रेत को देखा । जिसे चारों ओर से अन्य प्रेत घेरे हुए थे । कन्धें पर चढ़ा हुआ वह प्रेत वणिक् को देखकर उसके पास आया और कहने लगा — ‘तुम इस निर्जल प्रदेश में कैसे आ गये ?’ उसने बताया — ‘मेरे साथी छूट गये हैं, मैं अपने किसी पूर्व-कुकृत्य के फल से या संयोग से यहाँ पहुँच गया हूँ । भूख और प्यास से मेरे प्राण निकल रहे हैं । मैं अपने जीने का कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ । इस पर वह प्रेत बोला — ‘तुम इस पुन्नाग वृक्ष के पास क्षणमात्र प्रतीक्षा करो । यहाँ तुम्हें अभीष्ट-लाभ होगा, इसके बाद तुम यथेच्छ चले जाना ।’ वणिक् वहीं ठहर गया । दोपहर के समय कोई व्यक्ति पुन्नाग वृक्ष से एक कसोरे में जल तथा दूसरे कसोरे में दही और भात लेकर प्रकट हुआ और उसने वह वणिक् को प्रदान किया । वणिक् उसे ग्रहणकर संतुष्ट हुआ । उसी व्यक्ति ने प्रेत-समुदाय को भी जल और दही-भात दिया, इससे वे सभी संतृप्त हो गये । शेष भाग को उस व्यक्ति ने स्वयं भी ग्रहण किया । इसपर आश्चर्यचकित होकर वणिक् ने उस प्रेताधिप से पूरा — ‘ऐसे दुर्गम स्थान में अन्न-जल की प्राप्ति आपको कहाँ से होती है ? थोड़े-से ही अन्न-जल से बहुत से लोग कैसे तृप्त हो जाते हैं । मुझे सहारा देनेवाले इस स्थान में आप कैसे मिल गये ? हे शुभव्रत ! आप यह बतलायें कि ग्रासमात्र से ही आपको संतुष्टि कैसे हो गयी ? इस घोर अटवी में आपने अपना स्थान कहाँ बनाया है ? मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है, मेरा संशय आप दूर करें ।’

प्रेताधिप ने कहा — हे भद्र ! मैंने पहले बहुत दुष्कृत किया था । दुष्ट बुद्धिवाला मैं पहले रमणीय शाकल नगर में रहता था । व्यापार में ही मैंने अपना अधिकांश जीवन बिता दिया । प्रमादवश मैने धन के लोभ से कभी भी भूखे को न अन्न दिया और न प्यासे की प्यास ही बुझायी । मेरे ही घर के पास एक गुणवान् ब्राह्मण रहता था । वह भाद्रपद मास की श्रवण नक्षत्र से युक्त द्वादशी के योग में कभी मेरे साथ तोषा नाम की नदी में गया । तोषा नदी का संगम चन्द्रभागा से हुआ है । चन्द्रभागा चन्द्रमा की तथा तोया सूर्य की कन्या हैं । उन दोनों का शीतोष्ण जल बड़ा मनोहर है । उस तीर्थ में जाकर हमलोगों ने स्नान किया और उपवास किया । हमने वहाँ दध्योदन, छत्र, वस्त्र आदि उपचारों से भगवान् विष्णु की प्रतिमा की पूजा की । इसके अनन्तर हमलोग घर आ गये । मरने के अनन्तर नास्तिक होने से मैं प्रेतत्व को प्राप्त हुआ । इस घोर अटवी में जो हो रहा हैं, वह तो आप देख ही रहे हैं । ये जो अन्य प्रेतगण आप देख रहे हैं, इनमें कुछ ब्राह्मणो के धन का अपहरण करनेवाले, कोई परदारारत हैं, कोई अपने स्वामी से द्रोह करनेवाले तथा कोई मित्रद्रोही हैं । मेरा अन्न-पान करने से ये सब मेरे सेवक बन गये हैं । भगवान् श्रीकृष्ण अक्षय, सनातन परमात्मा हैं । उनके उद्देश्य से जो कुछ भी दान किया जाता है वह अक्षय होता है । हे महाभाग ! आप हिमालय में जाकर धन प्राप्त करेंगे, अनन्तर मुझपर कृपाकर आप इन प्रेतों की मुक्ति के लिये गया में जाकर श्राद्ध करें । इतना कहकर वह प्रेताधिप मुक्त होकर विमान में बैठकर स्वर्गलोक चला गया ।

प्रेताधिप के चले जाने पर वह वणिक् हिमालय में गया और वहाँ धन प्राप्त कर अपने घर आ गया और उस धन से उसने गया तीर्थ में अक्षयवट के समीप उन प्रेत के उद्देश्य से श्राद्ध किया । वह वणिक् जिस-जिस प्रेत की मुक्ति के निमित्त श्राद्ध करता था, वह प्रेत वणिक् को स्वप्न में दर्शन देकर कहता था कि हे महाभाग ! आपकी कृपा से मैं प्रेतत्व से मुक्त हो गया और मुझे परमगति प्राप्त हुई ।’ इस प्रकार के सभी प्रेत मुक्त हो गये । राजन् ! यह वणिक् पुनः पर लौट आया और उसने भाद्रपद मास के श्रवण द्वादशी के योग में भगवान् जनार्दन की पूजा की, ब्राह्मणों को गो-दान किया । जितेन्द्रिय होकर प्रतिवर्ष नदी के संगमों पर यह सब कार्य किया और अन्त्त में उसने मानवों के लिये दुर्लभ स्थान को प्राप्त किया ।
(अध्याय ७५)

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