January 10, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १११ कामदान-वेश्या (पण्यस्त्री) व्रत का वर्णन युधिष्ठिर ने कहा — कृष्ण ! वर्णाश्रम की उत्पत्ति तो मैंने पुराणों में सुन लिया । अब वेश्याओं का आचरण धर्म सविधान जानना चाहता हूँ । उनके दैवत कौन हैं, व्रत क्या है और उपवास किस भाँति करना चाहिए तथा किस धर्म द्वारा उन्हें परमोत्तम स्वर्ग की प्राप्ति होती है । श्रीकृष्ण बोले — पाण्डव ! मेरी सोलह सहस्र स्त्रियाँ हैं, जो रूप सौन्दर्य एवं उदार गुणों से युक्त होने के नाते कामदेव का शुभ मन्दिर ही कही जाती है । एक बार वसंत ऋतु के समय एक सरोवर के तट पर, जो कोकिल और भौंरों के समूह से सुशोभित, खिले हुए उपवन एवं खिली हुई कलियों से सुसज्जित था, आसव-पान में आसक्त उन सुन्दरियों के समीप वाले मार्ग से श्रीमान् साम्ब जा रहे थे, जो मृग मे समान नेत्र, मालती पुष्पों से सुगुम्फित सिर एवं शत्रुओं के विजेता थे । निखिल आभूषणों से विभूषित होने के नाते साक्षात् कामदेव की भाँति उन्हें देखकर मेरी स्त्रियाँ काम-पीड़ित होकर मुग्ध दृष्टि से देखने लगीं । अत्यन्त कामासक्त होने पर उन स्त्रियो के समस्त अंगों में पीड़ा होने लगी । उस समय मैंने अपने ज्ञानचक्षु से उनके मन की विकृति भावनाओं को देखकर आवेश में उन्हें शाप दे दिया — ‘दस्युगण तुम लोगों का अपहरण करेंगे और मेरे स्वर्ग चले जाने पर तुम्हें काम पीड़ा होगी । इसे सुन कर आँखों में आँसू भरे ये स्त्रियाँ मुझसे कहने लगीं — गोविन्द ! यह कैसे सम्भव होगा ! भगवान् जगन्नियन्ता एवं अजेय आप को पतिरूप में प्राप्त कर इस प्रकार की दिव्यपुरी, रत्नों से भरे घर और देव रूप द्वारका वासी समस्त कुमारों के रहते क्या हमें सभी लोगों की उपभोग्या होना ही पड़ेगा ! अस्तु दासी होने पर हमारे धर्म एवं आचार कैसे होंगे और वृत्ति (जीविका) क्या होगी । आँखों में आँसू भरे उन स्त्रियों के ऐसा कहने पर मैंने उनसे कहा — युवतिगण ! अब सन्ताप करना छोड़ दो ! क्योंकि पहले समय में एक बार मानसरोवर में जल- विहार करते समय तुम लोगों के समीप नारद ऋषि आ गये थे । उस समय अग्नि के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होकर तुम सभी अप्सराएँ थी । अभिमान वश बिना प्रणाम किये ही तुम लोगों ने उन योगवेत्ता से पूछा — हम लोगों को नारायण पति रूप में कैसे प्राप्त होंगे, इसका उपदेश दीजिये । उन्होंने व्रत का उपदेश कर उसी समय शाप भी प्रदान किया था । उन्होंने कहा — वसन्त ऋतु के दोनों मासों में शुक्ल द्वादशी के दिन सुवर्ण-साधन सम्पन्न दो शय्याओं के दान करने पर दूसरे जन्म में नारायण पति अवश्य प्राप्त होंगे । अपने रूप सौन्दर्य और सौभाग्य के मद से तुम लोगों ने बिना प्रणाम किये ही मुझसे पूँछा है, इसलिए चोरों द्वारा अपहरण होने पर तुम्हें वेश्या होना पड़ेगा । इस प्रकार पहले के नारद शाप और इस समय मेरे शाप वश तुम्हें दासी होना ही पड़ेगा । अतः भ्रम करना व्यर्थ है । अब इसके अतिरिक्त मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उसे सुनो । वरानने ! पहले देवासुर संग्राम में सैकड़ो दानवो का वध हुआ था । उनकी सैकड़ो एवं सहस्रो स्त्रियों को, जिनमें विवाहिता तथा बल प्रयोग द्वारा उपभोग की हुई थीं, देवेश ने कहा था — इस समय राज मन्दिरों में रहकर तुम सब वेश्या धर्म अपनाओं । वरारोहे ! उन देवघरो में रहकर राज्य, उनके स्वामी और ब्राह्मण विद्वानों के गुणगान करो । उनके घरों मे रहने से तुम्हें उनके समान ही सूतक होगा और यथाशक्ति सौभाग्य की प्रप्ति भी होगी । वहाँ रह कर निर्धन पुरुषों से रति क्रीडा कभी न करना और शुल्क देने वाले पुरुषों का सदैव देवों की भाँति सम्मान पूर्वक प्रसन्न करना, चाहे वह रूपवान् हो अथवा कुरूप, तुम्हें तो केवल द्रव्य से प्रयोजन है । इसमें त्रिक्रम (उलटफेर) न करना, करने पर ब्रह्महत्या का दोष भागी होना पड़ेगा । मद्यपान कर कभी कुटिल व्यवहार न करना । तुम लोगों के घर जो कोई शुल्क लिये सदैव आता रहे, दम्भ छोड़कर निष्कपट भाव से उसके धन आदि के लेने की चेष्टा करना । उस आगन्तुक स्वामी के साथ कभी भी किसी प्रकार का अनाचार न करना । रूप सौन्दर्य और युवावस्था के मद में अथवा धनवान होने के नाते जो कोई वेश्या उस पति के साथ अनाचार करती है, उस पापिनी को अत्यन्त भयावह अधोगति होती है । देवता-पितरों के पुण्य दिन उपस्थित होने पर गौ, भूमि, सुवर्ण और धान्य आदि के दान यथाशक्ति ब्राह्मणों को अर्पित करते रहना और उनकी आज्ञाएँ मानना । इसके अतिरिक्त भी जिस व्रत के रहस्य को उपदेश करूंगा सभी लोग बिना विचारे ही उसे अवश्य सुसम्पन्न करना, क्योंकि संसार से पार होने के लिए वैदिक विद्वानों ने उसे ही समर्थ बताया है । रविवार के दिन पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र के उपस्थित होने पर नारी को समस्त औषधि मिश्रित स्नान करके अनङ्ग (काम) रूपात्मक भगवान् पुण्डरीकाक्ष की सविधि अर्चना करे — ‘काम को नमस्कार है’ से उनके चरण की पूजा करके ‘मोहकारी को नमस्कार है’ से जंघाओं, ‘कन्दर्प निधि को नमस्कार है’ से लिङ्ग। ‘प्रीतिभाजन को नमस्कार है, से कटि, सुखसागर को नमस्कार है’ से नाभि, ‘वामन को नमस्कार है’ से उदर, हृदय-शायी को नमस्कार है’ से हृदय, ‘हर्षप्रदाता को नमस्कार है’ से स्तन । ‘उत्कण्ठ को नमस्कार है’ से कण्ठ, ‘आनन्दजन्मा को नमस्कार है, से मुख, ‘पुष्पधन्वा को नमस्कार है’ से दाहिना कंधा, ‘अनन्त को नमस्कार है’ से मस्तक, ‘विलोल को नमस्कार है, से ध्वजा, ‘सर्वात्मा को नमस्कार है, से उन देवाधीश के सिर की अर्चना करनी चाहिए । गरुड़ध्वज एवं अंकुश धारी पति को नमस्कार है, गदा, पीताम्बर, शंख और चक्रधारी को नमस्कार है, नारायण को नमस्कार है, काम-देवात्मा को नमस्कार है, शान्ति को नमस्कार है, प्रीति को नमस्कार है, रति को नमस्कार है, श्री को नमस्कार है, पुष्टि को नमस्कार है, तुष्टि को नमस्कार तथा सर्वार्थद को नमस्कार है । इस प्रकार माला, धूप, एवं नैवेद्य आदि से अर्चा करके उस कामिनी को एक ऐसे ब्राह्मण की गंध-पुष्पादि द्वारा अर्चना करनी चाहिए, जो धर्म मर्मज्ञ, वेदनिष्णात विद्वान् हो और उसकी शरीर के अङ्ग यथोचित हो । पश्चात् घृतपूर्ण पात्र समेत एक सेर साठी चावल का दान उन्हें अर्पित करते समय ‘माधव प्रसन्न हों’ कहे ।Content is available only for registered users. Please login or registerइस प्रकार प्रत्येक रविवार के दिन एक सेर चावल के दान समेत पूरे वर्ष तक उस व्रत को सुसम्पन्न करे । पश्चात् तेरहवें मास साधन सम्पन्न एवं विलक्षण एक शय्या का दान करे, जिसमें सुन्दर तकिया, गद्दा और मनोरम चादर से भूषित हो और दीपक, उपानह, छाता, खड़ाऊँ आदि युक्त हो । पत्नी समेत उन कामरूप भगवान् को सुवर्ण सूत्र यज्ञोपवीत, अंगूठी, सूक्ष्म वस्त्र एवं धूप माला से पूजित कर ब्राह्मण को अर्पित करें, जो पत्नी समेत गोलाकार कलश पर ताम्र में स्थित, सुवर्ण के नेत्र और वस्त्र से आच्छादन तथा कांस्य पात्र और ऊख दण्ड युक्त हो । उनके साथ एक धेनु गौ का भी दान होना चाहिए । पश्चात् इस भाँति प्रार्थना करे — विष्णों ! काम और केशव में मैं कभी भी किसी प्रकार का भी अन्तर (भेदभाव) न देख सकें तथा मेरे सभी मनोरथ सदैव सफल होते रहे । देवेश ! जिस प्रकार आप के देह से कामिनी (लक्ष्मी) पृथक् नहीं होती है, उसी भाँति पति को मेरे शरीरस्थ करने की कृपा करें । उस सुवर्ण प्रतिमा का ग्रहण करते हुए ब्राह्मण को भी ‘क इदं को दादिति मंत्र का उच्चारण करना चाहिए । तदुपरान्त माधव का ध्यान करते हुए प्रदक्षिणा करके ब्राह्मण को विदा करे और शय्या आदि सभी वस्तुओं को ब्राह्मण के घर पहुँचाये ! पश्चात् उस दिन से जो कोई अन्य भी रति निमित्त आये, पूर्व की भाँति उसकी भी यथेच्छ पूजा करे । एक ऐसे शांत पुराण वेत्ता एवं विचक्षण ब्राह्मण की सदैव अर्चना करती रहे । उससे उसे कर्म और सूतक जनित दैव-मानुष का अशौच और ग्रहण जनित अशौच नहीं होता है । क्योंकि वह एक खोये हुए पशु की भाँति रहती है अतः उसे (आगन्तुक का) यथाशक्ति पूजन करना चाहिए । इस प्रकार आप लोगों ने बताया है, जिस प्रकार पुरुहूत (इन्द्र) ने दानवीयों को बताया था । वरानने ! समस्त पापों के नाशक और अनन्त फल प्रदायक इस वेश्या धर्म को अपनाओं, जो कल्याण रूप स्त्रियों को बताया गया है । पार्थ ! मैंने इस वेश्याजनों को सुख देने वाले पुराने धर्म सर्वस्व को गोपियों को पहले से बताया था । इस प्रकार इस अशेष व्रत को अखण्ड सुसम्पन्न करने वाली वह कल्याणिनी समस्त देववृन्दों से पूजित होकर विष्णु का प्रिय लोक प्राप्त करती है । (अध्याय १११) Related