December 30, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय ५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग) अध्याय ५ भगवान् से चारों वर्णों की उत्पत्ति, चारों युगों में भगवान् के अवतारों एवं युगों के मनुष्यों की आयु का निरुपण सूतजी बोले— अव्यक्तजन्मा ब्रह्मा के मध्याह्न काल के समय चाक्षुषान्तर (मन्वन्तर) —में महावायु का प्रकोप प्रारम्भ हुआ, जिससे प्रभावित होकर हिमालय वृक्ष की भाँति बार-बार काँपने लगा । उसके कम्पित होने पर वह वायुमंडल आकाश से पृथ्वी पर आया, जिससे पृथ्वी में भूचाल होने लगा । मुनिशार्दूल ! उस भूचाल से समस्त लोकों का विनाश हो गया सातों द्वीप और समुद्र सभी जलमय हो गये । उस समय केवल उत्तर की ओर स्थित लोकालोक पर्वत ही शेष रहा । मुने ! शेष भूमि के लय होने पर, जबकि मन्वन्तर काल का भी विलयन हो गया, उसके सहस्र वर्ष व्यतीत होने के उपरान्त पृथ्वी भी जलमध्य में विलीन हो गई । उस समय शिव और ब्रह्मा समेत भगवान विष्णु ने उस शैशुमार-शुभ-चक्र को आकाश में स्थापित किया । पुनः उन्होंने उन ज्योतिष्चक्रों (ज्योतिर्गणो) द्वारा पृथ्वी का शोषण करना आरम्भ किया, जिससे वह पृथ्वी दश सहस्र वर्ष के निरन्तर प्रयत्न करने पर स्थल के रूप में दिखाई देने लगी । उस समय भगवान् ब्रह्मा ने अपने मुख द्वारा सोम को उत्पन्न किया, जिन्हें द्विजराज, महाबुद्धिमान एवं सर्ववेद विशारद कहा जाता है । पुनः भगवान् ब्रह्मा ने अपनी भुजाओं द्वारा क्षत्रियराज सूर्य को उत्पन्न किया, जो महाबली एवं राजनीति के विशेषज्ञ हैं । उसी प्रकार ऊरू से वैश्यराज समुद्र को उत्पन्न किया, जिन्हें सरिताओं का पति और रत्नाकर कहा गया है तथा परम बुद्धिमान-पितामह जी ने चरणों से विश्वकर्मा दक्ष को उत्पन्न किया, जो कलाओं के विशेषज्ञ, शूद्रराज एवं सुकृत्यकर्मा कहे जाते हैं । तत्पश्चात् द्विजराज सोम द्वारा ब्राह्मण, सूर्य द्वारा क्षत्रियगण, समुद्र द्वारा समस्त वैश्य और दक्ष से शूद्रों की उत्पत्ति हुई । सूर्यमण्डल द्वारा वैवस्वतमनु उत्पन्न हुए, जिनका समस्त जीवलोक में एकच्छत्र राज्य स्थित है । दिव्य युगों के एकहत्तर बार व्यतीत होने पर भगवान् विष्णु विश्वरूप में अवतरित होते हैं । समस्त युगकाल के पूर्वाद्ध में विष्णु और उत्तरार्द्ध में स्वयं वामन अवतरित होते हैं । सत्ययुग में विश्वरूप सनातन भगवान् का बाल्यरूप प्रकट होता है । उस समय मनुष्यों की आयु चार सौ वर्ष की होती हैं, पूर्वार्द्ध में उत्पन्न भगवान् विष्णु त्रेतायुग में युवा होते हैं, उस समय मनुष्यों की आयु तीन सौ वर्ष की कही गई है और द्वापर में उस (विष्णु) देव की वृद्धावस्था होती है । उस समय मनुष्यों की आयु दो सौ वर्ष की होती है तथा कलियुग में विश्वरूप और सनातन विष्णु का स्वयं मरण हो जाता हैं । इस युग में कुछ धार्मिक मनुष्यों की आयु सौ वर्ष की होती है । ब्रह्मा के परार्द्धकाल में अवतरित होकर वामन के रूप में भगवान् जो इन्द्र के अनुज कहे जाते हैं, चार भुजाएँ, श्यामल वर्ण, धारणकर गरुड़पर स्थित होकर विश्वरूप के हितार्थ त्रियुगी होते हैं । उन त्रियुगी वामनार्द्ध के द्वारा स्वयं नारायण उत्पन्न होते हैं, सत्ययुग में स्वयं भगवान् श्वेतरूप धारणकर ‘हंस’ नाम से प्रख्यात होते हैं । उसी प्रकार त्रेता में ‘यज्ञ’ नामक रक्तवर्ण एवं द्वापर में ‘हिरण्यगर्भ’ नामक पीत वर्ण के अवतरित होते हैं । द्वापर के संध्या समय में कलिकाल के आगमन होने पर विष्णु की रामस्तकला और वामन की एक कला एक होकर मथुरा निवासी वसुदेव के घर देवकी के गर्भ से भगवान् विष्णु के रूप में आविर्भूत हुई । उस समय समस्त ब्रह्मा आदि देवगणों ने उस सनातन ब्रह्म की स्तुति की । अनन्तर प्रसन्न होकर भगवान् ने देवों के हितार्थ और दैत्यों के विनाशार्थ अनेक रूप में प्रकट होऊँगा और इस पृथ्वी में सूक्ष्मरूप में स्थित उस दिव्य वृन्दावन में एकान्त क्रीडा भी करूंगा यह कहा । उस समय घोर कलि जानकर भूमण्डल के त्यागपूर्वक समस्त वेद गोपी के रूप में वहाँ प्रकट होकर मेरे साथ रमण करेंगे । पुनः कलि के अन्त में राधिका जी के प्रार्थना करने पर मैं उस एकान्त क्रीडा को समाप्त करके कल्की अवतार के रुप में अवतीर्ण होऊंवा । पुनः युगान्त प्रलय करने के उपरान्त मैं उस समय युग के आरम्भ में अपनी शरीर को दो रूप में विभक्तकर सत्यधर्म के रुप में प्रतिष्ठित होऊँगा । इसे सुनकर वे देवगण भी उसी में विलीन हो गये । इसी प्रकार उस अद्भुत कर्मा भगवान् की प्रत्येक युगों में क्रीड़ा होती रहती है, किन्तु विष्णुभक्त ही उस ब्रह्माण्डनायक को जानता है अन्य नहीं । विप्र ! जिस प्रकार राजा के कार्यगौरव को उसका सेवक ही जान सकता है अन्य नहीं । उसी प्रकार भगवान् के चरित्रों को उनके दास के अतिरिक्त कोई नहीं जान सकता है । विष्णु की सनातनी माया उनकी इच्छानुसार अनेक भाँति के लोकों की रचना करके महाकाली का स्वरूप धारणकर लेती है, जिससे कालमय एवं चराचर इस सम्पूर्ण जगत् का भक्षण कर लेती है और तदनन्तर वही महागौरी के रूप में परिवर्तित हो जाती है । अतः विष्णु की उस माया को नमस्कार है और महाकाली को बार-बार नमस्कार है, तथा महागौरी को नमस्कार है, वे हम भयभीतों की रक्षा करें । (अध्याय ५) Related