भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ९६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ९६
जया-सप्तमी-व्रतका वर्णन

दिण्डी ने कहा — ब्रह्मन् ! आपने मुझसे जो सात सप्तमियों का वर्णन किया है, उसमें जो पहली सप्तमी है, उसके विषयमें तो आपने विस्तारपूर्वक वर्णन किया, किंतु शेष छः सप्तमियों के विषयमें कुछ नहीं कहा । अतः अन्य सभी सप्तमियों का भी आप वर्णन करें, जिनमें उपवास करके मैं सूर्यलोक को प्राप्त कर सकूँ ।
om, ॐब्रह्माजी बोले — दिण्डिन् । शुक्ल पक्षकी जिस सप्तमी को हस्त नक्षत्र हो, उसे ‘जया’ सप्तम’ी कहते हैं । उस दिन किया गया दान, हवन, जप, तर्पण तथा देव-पूजन एवं सूर्यदेव का पूजन सौगुना लाभप्रद होता है । यह सप्तमी भगवान् भास्कर को अत्यन्त प्रिय है। यह पापनाशिनी, श्रेष्ठ यश देने वाली, पुत्र प्राप्त करानेवाली, अभीष्ट इच्छाओं को पूर्ण करनेवाली और लक्ष्मी को प्राप्त करानेवाली है । प्राचीनकाल में इसी तिथि को भगवान् सूर्य ने हस्त नक्षत्र पर संक्रमण किया था, इसलिये इसे शुक्ला सप्तमी भी कहते हैं । अपने दोनों हाथों में कमल धारण किये हुए भगवान् सूर्य की स्वर्णमयी प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक वर्षभर उनका पूजन करना चाहिये । इस व्रत में तीन पारणाएँ करनी चाहिये । प्रथम पारणा चार मास पर करे । उसमें करवीर के पुष्प तथा रक्तचन्दन, गुग्गुल-धूप तथा गेहूँके आटे के लड्डू के नैवेद्य आदिसे पूजा करनी चाहिये । इस विधिसे देवाधिपति मार्तण्ड भगवान् सूर्यकी विधिपूर्वक पूजा करके ब्राह्मणों की पूजा करे । सप्तमी तिथि में उपवास रखकर अष्टमीको पारणा करनी चाहिये । इस पारणा में पीली सरसों मिश्रित जलसे स्नान करे, गोमयका प्राशन करे तथा मदार से दन्तधावन करे। ‘भानुर्मे प्रीयताम्’— ‘भगवान् सूर्य मुझपर प्रसन्न हो’-ऐसा उच्चारण करते हुए ये क्रियाएँ सम्पन्न करे । यह पहली पारणा-विधि है ।
दूसरी पारणा में मालती के पुष्प, श्रीखण्ड-चन्दन, पायसका नैवेद्य तथा विजय-धूप देनी चाहिये । ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भी वैसा ही भोजन करना चाहिये । ‘रविर्मे प्रीयताम्’— ‘सूर्यदेव ! मुझपर प्रसन्न हों’—ऐसा कहते हुए पञ्चगव्य प्राशनकर खदिरकी लकड़ीसे दन्तधावन करना चाहिये ।
तीसरी पारणा में अगस्ति-पुष्प से भगवान् भास्करका पूजन करना चाहिये । इस व्रत में भगवान् सूर्यको श्रीखण्ड, कुसुम, सिह्लक-धूप देने चाहिये, क्योंकि ये भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं ।
‘विकर्तनो मे प्रीयताम्’—’भगवान् विकर्तन-सूर्य मुझपर प्रसन्न हों‘–ऐसी प्रार्थना करते हुए कुशोदक का प्राशन करना चाहिये तथा बेरकी दातून करनी चाहिये । वर्षके अन्त में भगवान् सूर्य की गन्ध-पुष्प तथा नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् पूजा करनी चाहिये, अनन्तर उन्हीं के समक्ष अवस्थित होकर परम पवित्र पुराणका वाचन करवाना चाहिये ।
विभो ! इस विधिसे जो पुरुष इस सप्तमी-तिथिका व्रत करता है, उसके स्नानादिक समस्त व्रतके कार्य सौगुना फल देनेवाले हो जाते हैं । इस सप्तमीके व्रतको करनेवाला व्यक्ति यश, धन, धान्य, सुवर्ण, पुत्र, आयु, बल तथा लक्ष्मीको प्राप्त प्राप्त कर सूर्यलोक को जाता है ।
(अध्याय ९६)
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1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

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18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७

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35. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५४

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38. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५८

39. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५९ से ६०

40. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय  ६१ से ६३

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42. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६५

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44. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६८

45. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६९

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47. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७१

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49. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७४

50. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७५ से ७८

51. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७९

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53. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८२

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