भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ७ से ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय ७ से ८
काल-विभाग, तिथि-निर्णय एवं वर्षभर के विशेष पर्वो तथा तिथियों के पुण्यप्रद कृत्य

सूतजी बोले — ब्राह्मणों ! देव-कर्म या पैतृक-कर्म काल के आधार पर ही सम्पन्न होते हैं और कर्म भी नियत समय पर किये जाने पर पूर्णरूपेण फलप्रद होते हैं । समय के बिना की गयी क्रियाओं का फल तीनों कालों तथा लोकों में भी प्राप्त नहीं होता । अतः मैं काल के विभागों का वर्णन करता हूँ ।om, ॐयद्यपि काल अमूर्तरूप में एक तथा भगवान् का ही अन्यतम स्वरुप है तथापि उपाधियों के भेद से वह दीर्घ, लघु आदि अनेक रूपों में विभक्त है । तिथि, नक्षत्र, वार तथा रात्रि का सम्बन्ध आदि जो कुछ है, वे सभी काल के ही अङ्ग हैं और पक्ष, मास आदि रुप से वर्षान्तरों में भी आते-जाते रहते हैं तथा वे ही सब कर्मों के साधन हैं । समय के बिना कोई भी स्वतन्त्र-रूप से कर्म करने में समर्थ नहीं । धर्म या अधर्म का मुख्य द्वार काल ही है । तिथि आदि काल विशेषों में निषिद्ध और विहित कर्म बताये गये हैं । विहित कर्मों का पालन करनेवाला स्वर्ग प्राप्त करता है और विहित का त्यागकर निषिद्ध कर्म करने से अधोगति प्राप्त करता है । पूर्वाह्णव्यापिनी तिथि में वैदिक क्रियाएँ करनी चाहिये । एकोद्दिष्ट श्राद्ध मध्याह्नव्यापिनी तिथि में और पार्वण-श्राद्ध अपराह्ण-व्यापिनी तिथि में करना चाहिये । वृद्धिश्राद्ध आदि प्रातःकाल में करने चाहिये । ब्रह्माजी ने देवताओं के लिये तिथियों के साथ पुर्वाह्णकाल दिया है और पितरों को अपराह्र । पुर्वाह्ण में देवताओं का अर्चन करना चाहिये ।तिथियाँ तीन प्रकार की होती हैं — खर्वा, दर्पा और हिंस्रा लङ्घित होनेवाली खर्वा, तिथिवृद्धि दर्पा तथा तिथिहानी हिंस्रा कही जाती है । इनमें खर्वा और दर्पा आगे की लेनी चाहिये और हिंस्रा (क्षय तिथि) पूर्व में लेनी चाहिये । शुक्ल पक्ष में पक्ष में परा लेनी चाहिये और कृष्ण पक्ष में पूर्वा । भगवान् सूर्य जिस तिथि को प्राप्त कर उदित होते हैं, वह तिथि स्नान-दान आदि कृत्यों में उचित है । यदि अस्त समय में भगवान् सूर्य दस घटी पर्यन्त रहते हैं तो वह तिथि रात-दिन समझनी चाहिये । शुक्ल पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष में खर्वा या दर्पा तिथि के अस्तपर्यन्त सूर्य रहे तो पितृकार्य में वही तिथि ग्राह्य है । दो दिन में मध्याह्नकालव्यापिनी तिथि होने पर अस्तपर्यन्त रहनेवाली प्रथम तिथि श्राद्ध आदि में विहित है । द्वितीया तृतीया से तथा चतुर्थी पञ्चमी से युक्त हों तो ये तिथियाँ पुण्यप्रद मानी गयी है और उसके विपरीत होने पर पुण्य का ह्रास करती हैं । षष्ठी पञ्चमी से एवं अष्टमी सप्तमी से विद्ध हो तथा दशमी से एकादशी, त्रयोदशी से चतुर्दशी और चतुर्दशी से अमावास्या विद्ध हो तो उनमें उपवास नहीं करना चाहिये, अन्यथा पुत्र, कलत्र और धन का ह्रास होता है । पुत्र-भार्यादि से रहित व्यक्ति का यज्ञ में अधिकार नहीं है । जिस तिथि को लेकर सूर्य उदित होते है, वह तिथि स्नान, अध्ययन और दान के लिये श्रेष्ठ समझनी चाहिये । कृष्ण पक्ष में जिस तिथि में सूर्य अस्त होते हैं, वह स्नान, दान आदि कर्मों में पितरों के लिये उत्तम मानी जाती है ।सूतजी कहते है — ब्राह्मणों ! अब मैं ब्रह्माजी द्वारा बतलायी गयी श्रेष्ठ तिथियों का वर्णन करता हूँ । आश्विन, कार्तिक, माघ और चैत्र इन महीनों में स्नान, दान और भगवान् शिव तथा विष्णु का पूजन दस गुना फलप्रद होता है । प्रतिपदा तिथि मे अग्निदेव का यजन और हवन करने से सभी तरह के धान्य और ईप्सित धन प्राप्त होते हैं । यदि शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि बृहस्पतिवार से युक्त हो तो उस तिथि में विधिपूर्वक भगवान् अग्निदेव का पूजन और नक्तव्रत करने से इच्छित ऐश्वर्य प्राप्त होता है । मिथुन (आषाढ़) और कर्क (श्रावण) राशि के सूर्य में जो द्वितीया आये, उसमें उपवास करके भगवान् विष्णु का पूजन करनेवाली स्त्री कभी विधवा नहीं होती । अशून्य-शयन द्वितीया (श्रावण मासके कृष्ण पक्षकी द्वितीया तिथि)— को गन्ध, पुष्प, वस्त्र तथा विविध नैवेद्यों से भगवान् लक्ष्मीनारायण की पूजा करनी चाहिये । (इस व्रतसे पति-पत्नी का परस्पर वियोग नहीं होता।) वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया में गङ्गाजी में स्नान करनेवाला सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

वैशाख मास की तृतीया स्वाती नक्षत्र और माघ की तृतीया रोहिणी-युक्त हो तथा आश्विन-तृतीया वृषराशि से युक्त हो तो उसमें जो भी दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है । विशेषरूप से इनमें हविष्यान्न एवं मोदक देने से अधिक लाभ होता है तथा गुड़ और कर्पुर से युक्त जलदान करनेवाले की विद्वान् पुरुष अधिक प्रंशसा करते हैं, वह मनुष्य ब्रह्मलोक में पूजित होता है । यदि बुधवार और श्रवण से युक्त तृतीया हो तो उसमें स्नान और उपवास करने से अनन्त फल प्राप्त होता है । भरणी नक्षत्रयुक्त चतुर्थी में यमदेवता की उपासना करने से सम्पूर्ण पापों से मुक्ति मिलती है । भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी शिवलोक में पूजित है । कार्तिक और माघ मास के ग्रहणों में स्नान, जप, तप, दान, उपवास और श्राद्ध करने से अनन्त फल मिलता है । चतुर्थी में सम्पूर्ण विघ्नों के नाश तथा इच्छापूर्ति के लिये भगवान् गणेश की पूजा मोदक आदि से भक्तिपूर्वक करनी चाहिये ।

श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी में द्वार-देश के दोनों ओर गोमय से नागों की रचनाकर दूध, दही, सिन्दूर, चन्दन, गङ्गाजल एवं सुगन्धित द्रव्यों से नागों का पूजन करना चाहिये । नागों का पूजन करनेवालों के कुल में निर्भयता रहती है एवं प्राणों की रक्षा भी होती है । श्रावण कृष्ण पञ्चमी को घर के आँगन में नीम के पत्तों से मनसा देवी की पूजा करने से कभी सर्पभय नहीं होता । भाद्रपद की षष्ठी में स्नान, दान आदि करने से अनन्त पुण्य होता है । विप्रगणों ! माघ और कार्तिक की षष्ठी में व्रत करने से इहलोक और परलोक में असीम कीर्ति प्राप्त होती है । शुक्ल पक्ष की सप्तमी में यदि संक्रान्ति पड़े तो उसका नाम महाजया या सुर्यप्रिया होती है । भाद्रपद की सप्तमी अपराजिता है । शुक्ल या कृष्ण पक्ष की षष्ठी या सप्तमी रविवार से युक्त हो तो वह ललिता नाम की तिथि पुत्र-पौत्रों की वृद्धि करनेवाली और महान् पुण्यदायिनी है ।

अश्विनी एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी में अष्टादशभुजा का पूजा करना चाहिये । आषाढ़ और श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी में चण्डिकादेवी का प्रातःकाल स्नान करके अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजन कर रात्रि में अभिषेक करना चाहिये । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी में अशोक पुष्प से मृण्मयी भगवती देवी का अर्चन करने से सम्पूर्ण शोक निवृत्त हो जाते हैं । श्रावण मास में अथवा सिंह संक्रान्ति में रोहिणीयुक्त अष्टमी हो तो उसकी अत्यन्त प्रशंसा की गयी है । प्रतिमास की नवमी में देवी की पूजा करनी चाहिये । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को शुद्ध आहारपूर्वक रहनेवाले ब्रह्मलोक में जाते हैं । ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी गङ्गा-दशहरा कहलाती है । आश्विन की दशमी विजया और कार्तिक की दशमी महापुण्या कहलाती है ।

एकादशी व्रत करने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है । इस व्रत में दशमी को जितेन्द्रिय होकर एक ही बार भोजन करना चाहिये । दूसरे दिन एकादशी में उपवास कर द्वादशी में पारणा करनी चाहिये । द्वादशी तिथि द्वादश पापों का हरण करती है । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी में अनेक पुष्पादि सामग्रियों से कामदेव की पूजा करे । इसे अनङ्ग त्रयोदशी कहा जाता है । चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शनिवार या शतभिषा नक्षत्र से युक्त हो तो गङ्गा में स्नान करने से सैकड़ों सूर्यग्रहण का फल प्राप्त होता है । इसी मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी यदि शनिवार या शतभिषा से युक्त हो तो वह महावारुणी पर्व कहलाता है । इसमें किया गया स्नान, दान एवं श्राद्ध अक्षय होता है ।

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी दम्भ-भंजिनी कही जाती है । इस दिन धतूरे की जड में कामदेव का अर्चन करना चाहिये, इससे उत्तम स्थान प्राप्त होता है । अनन्त चतुर्दशी का व्रत सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला है । इसे भक्तिपूर्वक करने से मनुष्य अनन्त सुख प्राप्त करता है । प्रेत-चतुर्दशी (यम चतुर्दशी)— को तपस्वी ब्राह्मणों को भोजन और दान देने से मनुष्य यमलोक में नहीं जाता । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध है और वह सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति करनेवाली है । इस दिन चारों पहरों में स्नान करके भक्तिपूर्वक शिवजी की आराधना करनी चाहिये । चैत्र मास की पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र तथा गुरुवार से युक्त हो तो वह महाचैत्री कही जाती है । वह अनन्त पुण्य प्रदान करनेवाली है । इसी प्रकार विशाखादि नक्षत्र से युक्त वैशाखी, महाज्येष्ठी आदि बारह पूर्णिमाएँ होती है । इनमें किये गये स्नान, दान, तप, जप, नियम आदि सत्कर्म अक्षय होते हैं और व्रती के पितर संतृप्त होकर अक्षय विष्णुलोक को प्राप्त करते हैं ।

हरिद्वार में महावैशाखी का पर्व विशेष पुण्यप्र दान करता है । इसी प्रकार शालग्राम-क्षेत्र में महाचैत्री, पुरुषोत्तम-क्षेत्र में महाज्येष्ठी, शृंखल-क्षेत्र में महाषाढ़ी, केदार में महाश्रावणी, बदरिकाक्षेत्र में महाभाद्री , पुष्कर तथा कान्यकुब्ज में महाकार्तिकी, अयोध्या में महामार्गशीर्षी तथा महापौषी, प्रयाग में महामाघी तथा नैमिष्यारण्य में महाफल्गुनी पूर्णिमा विशेष फल देनेवाली है । इन पर्वों में जो भी शुभाशुभ कर्म किये जाते है, वे अक्षय हो जाते हैं । आश्विन की पूर्णिमा कौमुदी कही गयी है, इसमें चन्द्रोदय काल में विधिपूर्वक लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिये । प्रत्येक अमावस्या को तर्पण और श्राद्धकर्म अवश्य करना चाहिये । कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावास्या में प्रदोष के समय लक्ष्मी का सविधि पूजन कर उनकी प्रीति के लिये दीपों को प्रज्वलित करना चाहिये एवं नदी तीर, पर्वत, गोष्ठ, श्मशान, वृक्षमूल, चौराहा, अपने घर में और चत्वर ( [सं-पु.] – 1. जहाँ चारों ओर से चार सड़कें आकर मिलती हों; चौमुहानी; चौराहा 2. चौकोर क्षेत्र या स्थान 3. हवन की वेदी या चबूतरा )में दीपों को सजाना चाहिये ।

(अध्याय ७-८)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १ से २
4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ३ से ५

5. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय ६

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.