मकर संक्रान्ति
ग्रह जब एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उसी का नाम संक्रान्ति या संक्रमण है। सब ग्रहों में से सूर्य के द्वारा राशि परिवर्तन करने का नाम लोक में ‘संक्रान्ति’ प्रसिद्ध हो गया है।
om, ॐ
संक्रान्ति में वर्ज्य कालः-
सूर्य की संक्रान्ति से ३३ घड़ी (घटी) पहले व बाद में, चन्द्रमा की संक्रान्ति में २ घड़ी, मंगल की संक्रान्ति में ९ घड़ी , बुध संक्रमण पर ६ घड़ी, गुरु संक्रमण पर ८८ घड़ी, शुक्र संक्रमण पर ९ घड़ी तथा शनि संक्रमण पर १६० घड़ी पहले व बाद का समय शुभ कार्यों में वर्जित है।

अयन व गोल संक्रान्तिः-
मकर संक्रान्ति का नाम ‘उत्तरायण’ व कर्क संक्रान्ति का नाम ‘दक्षिणायन’ संक्रान्ति है।
मेष व तुला की संक्रान्ति ‘विषुव’ या गोल संक्रान्ति कहलाती है।
आजकल निरयण संक्रान्ति का विशेष प्रचार है, लेकिन गोल व अयन प्रवृत्ति सायन मान से ली जाती है। वशिष्ठ ने निरयण संक्रान्ति को बकरी के गले के निरर्थक स्तन की तरह वृथा माना है। फिर भी अयन के अतिरिक्त शेष संक्रान्तियाँ निरयण मान से ही लेने का प्रचार है।

संक्रान्ति पुण्य कालः-
गणित सिद्ध संक्रान्ति समय से पहले व बाद में १६-१६ घड़ियाँ (६ घंटे २४ मिनट) पहले व पश्चात् संक्रान्ति का पुण्यकाल माना जाता है।
मकर संक्रान्ति हो जाने के बाद की ४० घड़ी व कर्क की संक्रान्ति से पहले की ३० घड़ियाँ का पुण्य काल माना गया है।
यदि संक्रान्ति आधी रात से पहले लगे तो दिन में दोपहर बाद पुण्यकाल होता है तथा आधी रात के बाद होने पर अगले दिन पुण्य काल होता है। मकर व कर्क के विषय में विशेष नियम है। मकर संक्रान्ति यदि सायंकाल के तीन घड़ी बाद तक हो तो पहले दिन व ३ घड़ी बाद में होने पर अगले दिन पुण्यकाल होता है।
कर्क की संक्रान्ति यदि सन्ध्या काल में हो तो पहले दिन पुण्य काल होता है।

संक्रान्ति के विभिन्न नामः-
१॰ तीनों पूर्वा, मघा व भरणी नक्षत्रों में चन्द्रमा रहने पर रविवार को यदि संक्रमित हो तो ‘घोरा’ संक्रान्ति कहलाती है। यह शूद्रों के लिये शुभ है।
२॰ क्षिप्र नक्षत्र (हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित्) व सोमवार में संक्रान्ति का नाम ‘ध्वांक्षी’ है। यह व्यापारियों के लिये शुभ है।
३॰ चर नक्षत्र (स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतमिषा) व मंगलवार में संक्रान्ति का नाम ‘महोदरा’ है। यह चोरों व तस्करों के लिये शुभ है।
४॰ मृदु (मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा) नक्षत्रों में व बुधवार हो तो ‘मन्दाकिनी’। यह राजा के लिये शुभ है।
५॰ स्थिर (तीनों उत्तरा, रोहिणी) नक्षत्रों में व गुरुवार में संक्रान्ति हो तो ‘मन्दा’ होती है। यह ब्राह्मणों के लिये शुभ है।
६॰ मिश्र (विशाखा, कृत्तिका) नक्षत्रों में शुक्रवार को घटित होने वाली संक्रान्ति ‘मिश्र’ है। यह पशुओं के लिये शुभ है।
७॰ तीक्ष्ण (आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल) व शनिवार हो तो ‘राक्षसी’ संक्रान्ति होती है। यह चाण्डाल, राक्षस शराब बेचने वालि, उग्र कर्म व स्वभाव वालों के लिये शुभ है।

दिवा-रात्री संक्रान्ति फलः-
१॰ पूर्वाह्न में संक्रमित राजा को भयदायक।
२॰ मध्याह्न संक्रमित श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मणों को भयदायक।
३॰ दोपहर बाद-व्यापारियों को भयदायक।
४॰ सन्ध्या समय-यति योगिजनों को भयप्रद।
५॰ रात्रि के पूर्वार्ध में-पिशाचों को, अर्धरात्रि के बाद-अभिनेताओं व नर्तकों को कष्टदायक।
६॰ सूर्योदय के समय-पाखण्डियों को भयप्रद।

संक्रान्ति वाहन-
सूर्य की संक्रान्ति के समय जो करण हो, उसके आधार पर संक्रान्ति का वाहन निश्चय किया जाता है। बवादि करणों के क्रम से ये वाहन होते हैं- सिंह, बाघ, सूअर, गधा, हाथी, भैंसा, घोड़ा, कुत्ता, भेड़, गौ व मुर्गा। इन वाहनों का प्रयोग लोक भविष्य व तेजी-मन्दी आदि के विचार में होता है।
सूर्य-नामाष्ट-शत-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिकाःजनमेजय उवाच।।

कथं कुरुणामृषभः, स तु राजा युधिष्ठिरः। विप्रार्थमाराधीतवान्, सूर्यमद्भुत-दर्शनम्।।१
।।वैशम्पायन उवाच।।
श्रृणुष्वावहितो राजन्! शूचिर्भूत्वा समाहितः। क्षणं च कुरु राजेन्द्र! सम्प्रक्ष्याम्यशेषतः।।२
धौम्येन तु यथा पूर्वे, पार्थाय सु-महात्मने। नामाष्ट-शतमाख्यातं, तच्छ्रणुष्व महा-मते।।३
।।धौम्य उवाच।।
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा, पूर्षाकः सविता रविः। गभस्तिमानजः कालो, मृत्युर्धाता प्रभाकरः।।१
पृथिव्यापश्च तेजश्च, खं वायुश्च परायणम्। सोमो बृहस्पतिः शुक्रो, बुधोऽङ्गारक एव च।।२
इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चर। ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च, स्कन्दो वै वरुणौ यमः।।३
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः। धर्म-ध्वजो वेद-कर्त्ता, वेदांगो वेद-वाहनः।।४
कृतं त्रेता द्वापरश्च, कलिः सर्व-मलाश्रयः। कला काष्ठा मुहूर्ताश्च, क्षपा यामस्तथा क्षणः।।५
सम्वत्सर-करोऽश्वत्थः, काल-चक्रो विभावसुः। पुरुषः शाश्वतो योगी, व्यक्ताव्यक्तः सनातनः।।६
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो, विश्व-कर्मा तमोनुदः। वरुणः सागरोंऽशुश्च, जीमूतो जीवनोऽरिहा।।७
भूताश्रयो भूत-पतिः, सर्व-लोक-नमस्कृतः। स्त्रष्टा संवर्तको वह्निः, सर्वस्यादिरलोलुपः।।८
अनन्तः कपिलो भानुः, कामदः सर्वतोमुखः। जयो विशालो वरदः, सर्व-धातु-निषेचिता।।९
मनः-सुपर्णो भूतादिः, शीघ्रगः प्राण-धारकः। धन्वन्तरिर्धूम-केतुरादि-देवोऽदितेः सुतः।।१०
द्वादशात्माऽरबिन्दाक्षः, पिता माता पितामहः। स्वर्ग-द्वारं प्रजा-द्वारं, मोक्ष-द्वारं त्रिविष्टपम्।।११
देह-कर्त्ता प्रशान्तात्मा, विश्वात्मा विश्वतोमुखः। चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा, नैत्रेयः करुणान्वितः।।१२
।।फल-श्रुति।।
एतद् वै कीर्तनीयस्य, सूर्यस्यामित-तेजसः। नामाष्ट-शतकं चेदं, प्रोक्तमेतत् स्वयम्भुवा।।१
सुर-गण-पितृ-यक्ष-सेवितं, ह्यसुर-निशाचर-सिद्ध-वन्तिम्। वर-कनक-हुताशन-प्रभं, प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्।।२
सूर्योदये यः सु-समाहितः पठेत्, स पुत्र-दारान् धन-रत्न-सञ्चयान्।
लभेत जाति-स्मरतां नरः सदा, धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्।।३
इमं स्तवं देव-वरस्य यो नरः, परकीर्तयेच्छुचि-सुमनाः समाहितः।
विमुच्यते शोक-दवाग्नि-सागराल्लभेत कामान् मनसा यथेप्सितान्।।४

उक्त स्तोत्र का पाठ करने के बाद नीचे लिखे मन्त्र को तीन बार ‘जप’ कर नमस्कार करे और भगवान् सूर्य को रक्त-पुष्प चढ़ाए।
“नमस्ते पद्म-हस्ताय, नमस्ते विश्व-धारिणे।
दिवाकर! नमस्तुभ्यं, प्रभाकर! नमोऽस्तु ते।।”

विशेषः- प्रस्तुत स्तोत्र भगवान् सूर्य के प्रसन्नार्थ अमोघ साधन है। इस स्तोत्र का नित्य प्रातःकाल श्रद्धा-पूर्वक पाठ करने से दैविक, दैहिक और भौतिक-तीनों कष्टों से छुटकारा मिलता है और धन, सुन्दर स्वास्थ्य तथा सुख की प्राप्ति होती है।

सूर्य आदित्यहृदयस्तोत्रम्
विनियोग : – ॐ अस्य श्रीआदित्य-हृदय-स्तोत्रस्यागस्त्य-ऋषि:, अनुष्टुप्छन्द:, आदित्यहृदय-भूतो भगवान ब्रह्मा देवता, निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्रजयसिद्धौ च विनियोग:।
ऋष्यादिन्यास :- अगस्त्य ऋषये नम: शिरसि। अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे। आदित्य-हृदयभूत ब्रह्मदेवतायै नम: हृदि। ॐ बीजाय नम: गुह्ये। रश्मिमते शक्तये नम: पादयो:। ॐ तत्सवितुरित्यादि गायत्री कीलकाय नम: नाभौ। विनियोगाय नम: सर्वागे।
करन्यास :- इस स्तोत्र के करन्यासादि तीन तरह से हो सकते हैं। केवल प्रणव से, गायत्री मंत्र से अथवा “रश्मिमते नमः” इत्यादि छ: नाम मंत्रें से। यहाँ नाम-मन्त्रों से किये जाने वाले न्यास का प्रकार बताया जाता है।

ॐ रश्मिते अंगुष्ठाभ्यां नम: हृदयाय नम:।
ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नम: शिरसे स्वाहा।
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नम: शिखायै वषट्।
ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नम: कवचाय हुम्।
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नम: नेत्रत्रयाय वौषट्
ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: अस्त्राय फट्।

तत्पश्चात् मां गायत्री का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र “ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयात्।” का 11 बार जाप करने के उपरांत इस स्तोत्र का पाठ करें।

॥ पूर्व पीठिका ॥
ततो युध्दपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाऽग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याऽब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥

राम! राम! महाबाहो! श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स! समरे विजयिष्यसे ॥3॥

आदित्य हृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥

सर्वमगलं – मागल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ता – शोक – प्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥5॥

।।मूल-पाठ।।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवाऽसुर – नमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥1॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन:।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पातु गभस्तिभि: ॥2॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति:।
महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यपांपतिः॥3॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु:।
वायुर्वह्नि: प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥4॥

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानु: हिरण्यरेता दिवाकर: ॥5॥

हरिदश्व: सहस्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा र्मातण्डकोंऽशुमान् ॥6॥

हिरण्यगर्भ: शिशिररस्तपनोऽहस्करो रवि: ।
अग्निगर्भोदिते: पुत्र: शङ्ख: शिशिर-नाशन:॥7॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु: सामपारग:।
धनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगम: ॥8॥

आतपी मंडली मृत्यु: पिङ्गल: सर्वतापन: ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्त: सर्वभवोद्भव: ॥9॥

नक्षत्र-ग्रह-ताराणामधिपो विश्वभावन: ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥10॥

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाऽर्द्रये नम:।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥11॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: ।
नमो नम: सहस्रांशो आदित्याय नमो नम:॥12॥

नम उग्राय विराय सारङ्गाय नमो नम:।
नम: पद्मप्रबोधायप्रचंडाय नमोऽस्तु ते ॥13॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥14॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायाऽमितात्मने ।
कृघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥15॥

तप्तचामीकराभाय, हरये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥16॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभु: ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥17॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित:।
एष चैवाऽग्निहोत्रं च फलं चैवाऽग्निहोतृणाम् ॥18॥

देवाश्च कृतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभु: ॥19॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥20॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥21॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो! रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥22॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तादा ।
धारयामास सुप्रीतो राघव: प्रयतात्मवान् ॥23॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥२४॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥2॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥3॥

।।इति वाल्मीकीय-रामायणोक्तमादित्यहृदयं।।

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