March 18, 2025 | aspundir | Leave a comment यमसूक्त ऋग्वेद के दशम मण्डल का चौदहवाँ सूक्त ‘यमसूक्त’ है। इसके ऋषि वैवस्वत यम हैं। ‘यमसूक्त’ तीन भागों में विभक्त है। ऋचा १ से ६ तक के पहले भाग में यम एवं उनके सहयोगियों की सराहना की गयी है और यज्ञ में उपस्थित होने के लिये उनका आवाहन किया गया है। ऋचा ७ से १२ तक के दूसरे भाग में नूतन मृतात्मा को श्मशान की दहन – भूमि से निकलकर यमलोक जाने का आदेश दिया गया है। १३ से १६ तक की ऋचाओं में यज्ञ के हवि को स्वीकार करने के लिये यम का आवाहन किया गया है । — परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानम् । वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य ॥ १ ॥ उत्तम पुण्य कर्मों को करने वालों को सुखद स्थान में ले जाने वाले, बहुतों के हितार्थ योग्य मार्ग के द्रष्टा, विवस्वान् के पुत्र, [पितरों के] राजा यम को हवि अर्पण करके उनकी सेवा करें, जिनके पास मनुष्यों को जाना ही पड़ता है ॥ १ ॥ यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ । यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या३ अनु स्वाः ॥ २ ॥ पाप-पुण्य के ज्ञाता सबमें प्रमुख यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता। पहले जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार हम सब जायँगे ॥ २ ॥ मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्वावृधानः । याँश्च देवा वावृधुर्ये च देवान् त्स्वाहान्ये स्वधयान्ये मदन्ति ॥ ३ ॥ इन्द्र कव्यभुक् पितरों की सहायता से, यम अंगिरसादि पितरों की सहायता से और बृहस्पति ऋक्वदादि पितरों की सहायता से उत्कर्ष पाते हैं। देव जिनको उन्नत करते हैं तथा जो देवों को बढ़ाते हैं, उनमें से कोई स्वाहा के द्वारा (देव) और कोई स्वधा से ( पितर) प्रसन्न होते हैं ॥ ३ ॥ इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाऽङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः । आ त्वा मन्त्राः कविशस्ता वहन्त्वेना राजन् हविषा मादयस्व ॥ ४ ॥ हे यम ! अंगिरादि पितरों के साथ इस श्रेष्ठ यज्ञ में आकर बैठें। विद्वान् लोगों के मन्त्र आपको बुलायें । हे राजा यम! इस हवि से संतुष्ट होकर हमें प्रसन्न कीजिये ॥ ४ ॥ अङ्गिरोभिरा गहि यज्ञियेभिर्यम वैरूपैरिह मादयस्व । विवस्वन्तं हुवे यः पिता ते ऽस्मिन् यज्ञे बर्हिष्या निषद्य ॥ ५ ॥ हे यम ! यज्ञ में स्वीकार करने योग्य अंगिरस ऋषियों को साथ लेकर आयें। वैरूप नामक पूर्वजों के साथ यहाँ आप भी प्रसन्न हों। आपके पिता विवस्वान् को भी मैं यहाँ निमन्त्रित करता हूँ (और प्रार्थना करता हूँ) कि इस यज्ञ में वे कुशासन पर बैठकर हमें सन्तुष्ट करें ॥ ५ ॥ अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः । तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ ६ ॥ अंगिरा, अथर्वा एवं भृग्वादि हमारे पितर अभी ही आये हैं और ये हमारे ऋषि सोमपान के लिये योग्य ही हैं। उन सब यज्ञार्ह पूर्वजों की कृपा तथा मंगलप्रद प्रसन्नता हमें पूरी तरह प्राप्त हो ॥ ६ ॥ प्रेहि प्रेहि पथिभिः पूर्व्येभिर्यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः । उभा राजाना स्वधया मदन्ता यमं पश्यासि वरुणं च देवम् ॥ ७ ॥ हे पिता ! जहाँ हमारे पूर्व पितर जीवन पारकर गये हैं, उन प्राचीन मार्गों से आप भी जायँ । स्वधाकार – अमृतान्न से प्रसन्न – तृप्त हुए राजा यम और वरुणदेव से जाकर मिलें ॥ ७ ॥ सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन् । हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चाः ॥ ८ ॥ हे पिता ! श्रेष्ठ स्वर्ग में अपने पितरों के साथ मिलें। वैसे ही अपने यज्ञ, दान आदि पुण्यकर्मों के फल से भी मिलें। अपने सभी दोषों को त्यागकर इस ( शाश्वत) घर की ओर आयें और सुन्दर तेज से युक्त होकर ( संचरण करने योग्य नवीन) शरीर धारण करें ॥ ८ ॥ अपेत वीत वि च सर्पतातो ऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन् । अहोभिरद्भिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै ॥ ९ ॥ हे भूत-पिशाचो ! यहाँ से चले जाओ, हट जाओ, दूर चले जाओ । पितरों ने यह स्थान इस मृत मनुष्य के लिये निश्चित किया है। यह स्थान दिन-रात और जल से युक्त है । यम ने इस स्थान को मृत मनुष्य को दिया है (इस ऋचा में श्मशान के भूत-पिशाचों से प्रार्थना की गयी है कि वे मृत व्यक्ति के अन्तिम विश्राम स्थल के मार्ग में बाधा न उपस्थित करें ) ॥ ९ ॥ अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा । अथा पितॄन् त्सुविदत्राँ उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥ १० ॥ ( हे सद्यः मृत जीव !) चार नेत्रों वाले चित्रित शरीर के सरमा के दोनों श्वान-पुत्र हैं। उनके पास अच्छे मार्ग से अत्यन्त शीघ्र गमन करो। यमराज के साथ एक ही पंक्ति में प्रसन्नता से ( अन्नादि का) उपभोग करने वाले अपने अत्यन्त उदार पितरों के पास उपस्थित हो जाओ (मृत व्यक्ति से कहा गया है कि उचित मार्ग से आगे बढ़कर सभी बाधाओं को हटाते हुए यमलोक ले जाने वाले दोनों श्वानों के साथ वह जल्द जा पहुँचे ) ॥ १० ॥ यौ ते श्वानौ यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ । ताभ्यामेनं परि देहि राजन् त्स्वस्ति चास्मा अनमीवं च धेहि ॥ ११ ॥ हे यमराज! मनुष्यों पर ध्यान रखने वाले, चार नेत्रों वाले, मार्ग के रक्षक ये जो आपके रक्षक दो श्वान हैं, उनसे इस मृतात्मा की रक्षा करें। हे राजन् ! इसे कल्याण और आरोग्य प्राप्त करायें ॥ ११ ॥ उरूणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु । तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥ १२ ॥ यम के दूत, लम्बी नासिका वाले, (मुमूर्षु व्यक्ति के) प्राण अपने अधिकार में रखने वाले, महापराक्रमी ( आपके) दोनों श्वान मर्त्यलोक में भ्रमण करते रहते हैं। वे हमें सूर्य के दर्शन के लिये यहाँ आज कल्याणकारी उचित प्राण दें ॥ १२ ॥ यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहुता हविः । यमं ह यज्ञो गच्छत्यदग्निदूतो यमाय अरंकृतः ॥ १३ ॥ यम के लिये सोम का सवन करो तथा यम के लिये (अग्नि में ) हवि का हवन करो। अग्नि उसका दूत है, इसलिये अच्छी तरह तैयार किया हुआ यह हमारा यज्ञीय हवि यम के पास पहुँच जाता है ॥ १३ ॥ यमाय घृतवद्धविर्जुहोत प्र च तिष्ठत । स नो देवेष्वा यमद् दीर्घमायुः प्र जीवसे ॥ १४ ॥ घृत से मिश्रित यह हव्य यम के लिये (अग्नि में ) हवन करो और यम की उपासना करो। देवों के बीच यम हमें दीर्घ आयु दें, ताकि हम जीवित रह सकें ॥ १४ ॥ यमाय मधुमत्तमं राज्ञे हव्यं जुहोतन । इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः ॥ १५ ॥ अत्यधिक माधुर्ययुक्त यह हव्य राजा यम के लिये अग्नि में हवन करो। (हे यम!) हमारा यह प्रणाम अपने पूर्वज ऋषियों को, अपने पुरातन मार्गदर्शकों को समर्पित हो जाय ॥ १५ ॥ त्रिकद्रुकेभिः पतति पळुर्वीरेकमिद्बृहत् । त्रिष्टुब्गायत्री छन्दांसि सर्वा ता यम आहिता ॥ १६ ॥ त्रिकद्रुक नामक यज्ञों में हमारा यह ( सोमरूपी सुपर्ण) उड़ान ले रहा है । यम छः स्थानों- द्युलोक, भूलोक, जल, औषधि, ऋक् और सूनृत में रहते हैं। गायत्री तथा अन्य छन्द – ये सभी इन यम में ही सुप्रतिष्ठित किये गये हैं ॥ १६ ॥ [ ऋक्० १० । १४ ] Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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