विवाहसूक्त [ सोमसूर्यासूक्त ]

ऋग्वेद के दशम मण्डल का ८५ वाँ सूक्त विवाहसूक्त कहलाता है। यह सोमसूर्यासूक्त भी कहलाता है। यह सूक्त बड़ा है और इसमें ४७ ऋचाएँ पठित हैं। इन ऋचाओं की द्रष्टा ऋषि का सावित्री सूर्या हैं। इस सूक्त में सूर्य, चन्द्र आदि देवों की भी स्तुतियाँ हैं । विवाहादि संस्कारों में इसके कई मन्त्रों का पाठ होता है। सिन्दूरदान के एक मन्त्र में वधू को आशीर्वाद देते हुए कहा गया है कि यह सौभाग्यशालिनी वधू अत्यन्त कल्याणकारिणी और मंगल प्रदान करने वाली है, सभी इसे अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद प्रदान करें और इसका दर्शन करें ‘सुमङ्गलीरियं वधू०’। एक दूसरे मन्त्र में कहा गया है कि हे वर और वधू ! तुम दोनों सदा साथ-साथ रहो, कभी परस्पर पृथक् मत होओ (मा वि यौष्टम् ) । दोनों सम्पूर्ण आयु प्राप्त करो और अपने पुत्र-पौत्रों के साथ आमोद- प्रमोद करो। इस प्रकार यह विवाहसूक्त बड़ा ही उपयोगी तथा बड़े महत्त्व का है।

सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः ।
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः ॥ १ ॥
सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही ।
अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः ॥ २ ॥
सोमं मन्यते पपिवान् यत् संपिंषन्त्योषधिम् ।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन ॥ ३ ॥

देवों में सत्यरूप ब्रह्मा ने पृथिवी को आकाश में धारण किया है। सूर्य ने द्युलोक को स्तम्भित किया है, धारण किया है। यज्ञके द्वारा देव रहते हैं । द्युलोक में सोम ऊपर अवस्थित है ॥ १ ॥
सोम से ही इन्द्रादि देव बलवान् होते हैं। सोम के द्वारा ही पृथिवी महान् होती है और इन नक्षत्रों के बीच में सोम रखा गया है ॥ २ ॥
जब सोमरूपी वनस्पति औषधि को पीसते हैं, उस समय लोग मानते हैं कि उन्होंने सोमपान कर लिया। परंतु जिस सोम को ब्रह्म जानने वाले ज्ञानी लोग जानते हैं, उसको दूसरा कोई भी अयाज्ञिक खा नहीं सकता है ॥ ३ ॥

आच्छद्विधानैर्गुपितो बार्हतैः सोम रक्षतः ।
ग्राव्णामिच्छृण्वन् तिष्ठसि न ते अश्नाति पार्थिवः ॥ ४ ॥
यत् त्वा देव प्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः ।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः ॥ ५ ॥
रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम् ॥ ६ ॥
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम् ।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद् यदयात् सूर्या पतिम् ॥ ७ ॥
स्तोमा आसन् प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः ।
सूर्याया अश्विना वरा ऽग्निरासीत् पुरोगवः ॥ ८ ॥

हे सोम ! तू गुप्त विधि-विधानों से रक्षित, बार्हतगणों (स्वान, भ्राज, अंघार्य आदि) से संरक्षित है। तू पीसने वाले पत्थरों का शब्द सुनता ही रहता है। तुझे पृथिवी का कोई भी सामान्य जन नहीं खा सकता ॥ ४ ॥
हे सोमदेव ! जब लोग तेरा ओषधिरूप में पान करते हैं, उस समय तू बार-बार पिया जाता है। वायु तुझ सोम की रक्षा करता है, जिस प्रकार महीने वर्ष की रक्षा करते हैं ॥ ५ ॥
रैभी (कुछ वेदमन्त्र) विवाह के अनन्तर विवाहिता की सखी हुई थीं । मनुष्यों से गायी हुई ऋचाएँ उसकी दासी हुई थीं। सूर्या का आच्छादन – वस्त्र अति सुन्दर था और वह गाथा से सुशोभित हुआ था ॥ ६ ॥
जिस समय सूर्या पति के गृह में गयी, उस समय उत्तम विचार ही चादर था। काजलयुक्त नेत्र थे। आकाश और पृथिवी ही उसके खजाने थे ॥ ७ ॥
स्तोत्र ही सूर्या के रथ-चक्र के डंडे थे, कुरीर नामक छन्द से रथ सुशोभित किया था, सूर्या के वर अश्विनीकुमार थे और अग्रगामी अग्नि था ॥ ८ ॥

सोमो वधूयुरभवदश्विनास्तामुभा वरा ।
सूर्यां यत् पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताददात् ॥ ९ ॥
मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुत च्छदिः ।
शुक्रावनड्वाहावास्तां यदयात् सूर्या गृहम् ॥ १० ॥
ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः ।
श्रोत्रं ते चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः ॥ ११ ॥
शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः ।
अनो मनस्मयं सूर्या ऽऽरोहत् प्रयती पतिम् ॥ १२ ॥
सूर्याया वहतुः प्रागात् प्रागात् सविता यमवासृजत् ।
अघासु हन्यन्ते गावो ऽर्जुन्योः पर्युह्यते ॥ १३ ॥

सोम वधू की कामना करने वाला था, दोनों अश्विनीकुमार उसके पति स्वीकृत किये गये। जब पति की इच्छा करने वाली सूर्या को सविता ने मनःपूर्वक प्रदान किया ॥ ९ ॥
जब सूर्या अपने पति के गृह में गयी, तब उसका रथ उसका मन ही था, और आकाश ऊपर की छत थी। सूर्य और चन्द्र उसके रथवाहक हुए ॥ १० ॥
हे सूर्ये देवि! तेरे मनरूप रथ के ऋक् और साम के द्वारा वर्णित सूर्य- चन्द्ररूप बैल शान्त रहते हुए एक-दूसरे के सहायक होकर चलते हैं। वे दोनों कान मनरूप रथ के दो चक्र हुए। रथ का चलने का मार्ग आकाश हुआ ॥ ११ ॥
जाते हुए तेरे रथ के दोनों चक्र कान हुए। रथ का धुरा वायु था। पति के गृह को जाने वाली सूर्या मनोमय रथ पर आरूढ हुई ॥ १२ ॥
पतिगृह में जाते समय पिता सूर्य द्वारा प्रेम से दिया हुआ सूर्या का गौ आदि धन, पहले ही भेजा गया था। मघा नक्षत्र में विदाई में दी गयी गायों को डंडे से हाँका जाता है और फाल्गुनी नक्षत्र में कन्या को पति के घर पहुँचाया जाता है ॥ १३ ॥

यदश्विना पृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण वहतुं सूर्यायाः ।
विश्वे देवा अनु तद्वामजानन् पुत्रः पितराववृणीत पूषा ॥ १४ ॥
यदयातं शुभस्पती वरेयं सूर्यामुप ।
क्वैकं चक्रं वामासीत् क्व देष्ट्राय तस्थथुः ॥ १५ ॥
द्वे ते चक्रे सूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः ।
अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातय इद्विदुः ॥ १६ ॥
सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च।
ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्योऽकरं नमः ॥ १७ ॥
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीळन्तौ परि यातो अध्वरम् ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूंरन्यो विदधज्जायते पुनः ॥ १८ ॥

हे अश्विद्वय! जिस समय तीन चक्र के रथ से सूर्या के विवाह की बात पूछने के लिये तुम आये थे, उस समय सारे देवों ने तुम्हारे कार्य को अनुमति दी थी और तुम्हारे पुत्र पूषा ने तुम्हें वरण किया था ॥ १४ ॥
हे अश्विद्वय! जब तुम सूर्या से मिलने के लिये सविता के पास आये थे, तब तुम्हारे रथ का एक चक्र कहाँ था? और तुम परस्पर दान- आदान करने के लिये तैयार थे, तब तुम कहाँ रहते थे ? ॥ १५ ॥
हे सूर्ये! तेरे रथ के सूर्य-चन्द्रात्मक दो चक्र जो समयानुसार चलने वाले प्रख्यात हैं, वे ब्राह्मण जानते हैं और एक तीसरा संवत्सरात्मक चक्र जो गुप्त था, उसको विद्वान् ही जानते हैं ॥ १६ ॥
सूर्या, देव, मित्र, वरुण और जो भी सब प्राणिमात्र के शुभचिन्तक हितप्रद हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥
ये दोनों शिशु-सूर्य और चन्द्र अपने तेज से पूर्व- पश्चिम में विचरण करते हैं और ये क्रीडा करते हुए यज्ञ में जाते हैं। इन दोनों में से एक- सूर्य सर्व भुवनों को देखता है और दूसरा – चन्द्र ऋतुओं, दो मासरूप कालविभागों का निर्माण करता हुआ बार-बार उत्पन्न होता है ॥ १८ ॥

नवोनवो भवति जायमानो ऽह्नां केतुरुषसामेत्यग्रम् ।
भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन् प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः ॥ १९ ॥
सुकिंशुकं शल्मलिं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम् ।
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व ॥ २० ॥
उदीर्ष्वतः पतिवती ह्ये३षा विश्वावसुं नमसा गीर्भिरीळे ।
अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विद्धि ॥ २१ ॥
उदीर्ष्वतो विश्वावसो नमसेळामहे त्वा ।
अन्यामिच्छ प्रफर्व्य१ सं जायां पत्या सृज ॥ २२ ॥

यह चन्द्र प्रतिदिन पुनः उत्पन्न होकर नया-नया ही होता है। वह दिनों का सूचक कृष्णपक्ष की रातों में प्रातः कालों के आगे ही आता है, अथवा दिनों का सूचक सूर्य प्रतिदिन नया होकर प्रातः काल सामने आता है। वह आता हुआ देवों को यज्ञहवि भाग देता है। चन्द्रमा आकर आनन्द देता हुआ दीर्घायु करता है ॥ १९ ॥
हे सूर्ये! अच्छे किंशुक और शाल्मलि की लकड़ी से बने हुए नाना रूपवाले, सोने के रंगवाले, उत्तम वेष्टनों से युक्त, उत्तम चक्रों से युक्त इस रथ पर चढ़ो और पति के लिये अमृत के लोक को सुखकारी बनाओ ॥ २० ॥
हे विश्वावसो ! इस स्थान से उठो, क्योंकि यह स्त्री पतिवाली हो गयी है। मैं विश्वावसु की नमस्कारों और वाणियों से स्तुति करता हूँ । तुम पितृकुल में रहने वाली, दूसरी युवा लड़की की इच्छा करो, वह तुम्हारा भाग हैं, जन्म से उसको जानो ॥ २१ ॥
हे विश्वावसो ! इस स्थान से उठो; तुम्हारी नमस्कार से स्तुति करते हैं और तुम दूसरी बृहद् नितम्बिनी की इच्छा करो और उस स्त्री को पति के साथ संयुक्त करो ॥ २२ ॥

अनृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम् ।
समर्यमा सं भगो नो निनीयात् सं जास्पत्यं सुयममस्तु देवाः ॥ २३ ॥
प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद् येन त्वाबध्नात् सविता सुशेवः ।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोके ऽरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि ॥ २४ ॥
प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम् ।
यथेयमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति ॥ २५ ॥
पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याऽश्विना त्वा प्र वहतां रथेन ।
गृहान् गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ॥ २६ ॥

सब मार्ग काँटों से रहित और सरल हों, जिनसे हमारे मित्र कन्या के घर के प्रति पहुँचते हैं और अर्यमा तथा भगदेव हमें वहाँ अच्छी तरह ले जायँ । हे देवो ! ये पत्नी और पति अच्छे मिथुन- जोड़े हों। वर तथा वधू के घर जाने के मार्ग कंटकरहित और सरल हों । देवगण इस जोड़े को सुखी और समृद्ध करें ॥ २३ ॥
तुझे मैं वरुण के बन्धनों से मुक्त करता हूँ, जिससे तुझे सेवा करने योग्य सविता ने बाँधा था। सदाचारी के घर में और सत्कर्म- कर्ता के लोक में हिंसा के अयोग्य तुझको पति के साथ स्थापित करता हूँ ॥ २४ ॥
यहाँ (पितृकुल) से तुझे मुक्त करता हूँ, वहाँ (पतिकुल ) – से नहीं । वहाँ से तुझे अच्छी प्रकार बाँधता हूँ । हे दाता इन्द्र ! जिससे यह वधू उत्तम पुत्रवाली और उत्तम भाग्य से युक्त हो ॥ २५ ॥
पूषा तुझे यहाँ से हाथ पकड़कर चलायें, आगे अश्विदेव तुझे रथ में बिठलाकर पहुँचायें। अपने पति के घर को जा। वहाँ तू घर की स्वामिनी और सबको वश में रखने वाली हो। वहाँ तू उत्तम विवेक का भाषण कर ॥ २६ ॥

इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि ।
एना पत्या तन्वं१ सं सृजस्वाऽधा जिव्री विदथमा वदाथः ॥ २७ ॥
नीललोहितं भवति कृत्यासक्तिर्व्यज्यते ।
एधन्ते अस्या ज्ञातयः पतिर्बन्धेषु बध्यते ॥ २८ ॥
परा देहि शामुल्यं ब्रह्मभ्यो वि भजा वसु ।
कृत्यैषा पद्वती भूत्व्या जाया विशते पतिम् ॥ २९ ॥
अश्रीरा तनूर्भवति रुशती पापयामुया ।
पतिर्यद्वध्वो३ वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते ॥ ३० ॥
ये वध्वश्चन्द्रं वहतुं यक्ष्मा यन्ति जनादनु ।
पुनस्तान् यज्ञिया देवा नयन्तु यत आगताः ॥ ३१ ॥

यहाँ तेरी सन्तान के साथ प्रिय की वृद्धि हो, और तू इस घर में गृहस्थधर्म के लिये जागती रह । इस पति के साथ अपने शरीर को संयुक्त कर और वृद्ध होने पर तुम दोनों उत्तम उपदेश करो ॥ २७ ॥
जब यह नीली और लाल बनती है अर्थात् क्रोधयुक्त होती है, तब इसकी विनाशक इच्छा बढ़ती है, इसकी जाति के मनुष्य बढ़ते हैं और पति बन्धन में बाँधा जाता है ॥ २८ ॥
शरीर के मल से मलिन वस्त्र का त्याग करो। प्रायश्चित्तार्थ ब्राह्मणों को धन दो। यह कृत्या चली गयी है और अब पत्नी होकर पति में सम्मिलित हो रही है ॥ २९ ॥
यदि पति वधू के वस्त्र से अपने शरीर को ढकने को चाहे, तो पति का शरीर श्रीरहित, रोगादि से दूषित हो जाता है। यह वधू पापयुक्त शरीर से दुःख और कष्ट से पीड़ा देने वाली होती है ॥ ३० ॥
वधू से अथवा वधू के सम्बन्धियों से जो व्याधियाँ तेज:पुंज वर के शरीर को प्राप्त होती हैं, यज्ञार्ह इन्द्रादि देव उनको उनके स्थान पर फिर लौटा दें, जहाँ से वे पुनः आ जाती हैं ॥ ३१ ॥

मा विदन् परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती ।
सुगेभिर्दुर्गमतीतामप द्रान्त्वरातयः ॥ ३२ ॥
सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत ।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाऽथास्तं वि परेतन ॥ ३३ ॥
तृष्टमेतत् कटुकमेतदपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे ।
सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात् स ब्रह्मा विद्यात् स इद्वाधूयमर्हति ॥ ३४ ॥
आशसनं विशसनमथो अधिविकर्तनम् ।
सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति ॥ ३५ ॥
गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।
भगो अर्यमा सविता पुरंधिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः ॥ ३६ ॥

जो विरोधी शत्रुरूप होकर पति-पत्नी दोनों के पास आते हैं, वे न प्राप्त हों। वे सुगम मार्गों से दुर्गम देश में जायँ। शत्रुलोग दूर भाग जायँ ॥ ३२ ॥
यह वधू शोभन कल्याण वाली है। समस्त आशीर्वादकर्ता आयें और इसे देखें । इस विवाहिता को उत्तम सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद देकर अनन्तर सब अपने घर चले जायँ ॥ ३३ ॥
यह वस्त्र दाहक, अग्राह्य, मलिन और विष के समान घातक है। यह व्यवहार के योग्य नहीं हैं। जो ब्राह्मण सूर्या को अच्छी प्रकार जानता है, वह ही वधू के वस्त्र को प्राप्त कर सकता है ॥ ३४ ॥
आशसन (झालर ), विशसन (शिरोभूषण) और अधिविकर्तन (तीन भाग वाला वस्त्र) इस प्रकार के वस्त्र पहनी हुई सूर्या के जो रूप होते हैं, उन्हें तू देख । उनको वेदज्ञ ब्राह्मण ही शुद्ध करता है ॥ ३५ ॥
हे वधू! तेरा हाथ में सौभाग्यवृद्धि के लिये ग्रहण करता हूँ। जिस कारण से तू मुझ पति के साथ वृद्धावस्थापर्यन्त पहुँचना, भग, अर्यमा, सविता और पुरंधि: देवों ने तुझे मुझे गृहस्थधर्म का पालन करने के लिये प्रदान किया है ॥ ३६ ॥

तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या३ वपन्ति ।
या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥ ३७ ॥
तुभ्यमग्रे पर्यवहन् त्सूर्यां वहतुना सह ।
पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह ॥ ३८ ॥
पुनः पत्नीमग्निरदादायुषा सह वर्चसा ।
दीर्घायुरस्या यः पतिर्जीवाति शरदः शतम् ॥ ३९ ॥
सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः ।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः ॥ ४० ॥
सोमो ददद्गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये ।
रयिं च पुत्राँश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम् ॥ ४१ ॥
इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।
क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानी स्वे गृहे ॥ ४२ ॥

हे पूषा ! जिस स्त्री के गर्भ में मनुष्य रेतरूप बीज बोते हैं, अर्थात् रेतः स्खलन करते हैं, जो हम पुरुषों की कामना करती हुई दोनों जाँघों का आश्रय लेती है और जिसमें हम कामवश होकर अपनी प्रजनन – इन्द्रिय का प्रवेश कराते हैं । अत्यन्त कल्याणमय गुणों वाली उसको तू प्रेरित कर ॥ ३७ ॥
हे अग्नि ! गन्धर्वों ने तुझे प्रथम दहेज आदि सहित सूर्या को दिया और तुमने दहेज के साथ उसे सोम को अर्पण किया और तू हम पति को उत्तम सन्तानसहित स्त्री प्रदान कर, अर्थात् हम विवाहितों को उत्तम सन्तान से सम्पन्न कर ॥ ३८ ॥ अग्नि ने पुनः दीर्घ आयु और तेज, कान्तिसहित पत्नी को दिया । इसका जो पति हैं, वह दीर्घायु होकर सौ वर्ष तक जिये ॥ ३९ ॥
सोम ने सबसे प्रथम तुम्हें पत्नीरूप से प्राप्त किया, उसके अनन्तर गन्धर्व ने प्राप्त किया। तीसरा तेरा पति अग्नि है। चौथा मनुष्य वंशज तेरा पति है ॥ ४० ॥ सोम ने उस स्त्री को गन्धर्व को दिया। गन्धर्व ने अग्नि को दिया। अनन्तर इसको अग्नि ऐश्वर्य और सन्तति के साथ मुझे प्रदान करता है ॥ ४१ ॥
हे वर और वधू ! तुम दोनों यहीं रहो। कभी परस्पर पृथक् नहीं होओ। सम्पूर्ण आयु को विशेष रूप से प्राप्त करो। अपने गृह में रहकर पुत्र-पौत्रों के साथ आमोद, आनन्द और उसके साथ खेलते हुए रहो ॥ ४२ ॥

आ नः प्रजां जनयतु प्रजापतिराजरसाय समनक्त्वर्यमा ।
अदुर्मङ्गलीः पतिलोकमा विश शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ ४३ ॥
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः ।
वीरसूर्देवकामा स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ ४४ ॥
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु ।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि ॥ ४५ ॥
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्र्वां भव ।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु ॥ ४६ ॥
समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ ॥ ४७ ॥

[ऋग्वेद १० । ४५ ]

प्रजापति हमें उत्तम सन्तति दें । अर्यमा वृद्धावस्थापर्यन्त हमारी रक्षा करें। मंगलमयी होकर पति के गृह में प्रवेश कर । तू हमारे आप्त बन्धुओं के लिये तथा पशुओं के लिये सुखकारिणी हो ॥ ४३ ॥
हे वधू! तुम शान्त दृष्टि वाली और पति को दुःख न देने वाली होओ। पशुओं के लिये हितकारी, उत्तम शुभ विचारयुक्त मनवाली, तेजस्वी, वीरप्रसविनी और देवों की भक्ति करने वाली सुखकारी होओ। हमारे द्विपादों के लिये और चतुष्पादों के लिये कल्याणमयी होओ ॥ ४४ ॥
हे इन्द्र ! तू इसको उत्तम पुत्रों से युक्त और सौभाग्यशाली कर इसको दस पुत्र प्रदान कर और पति को लेकर इसे ग्यारह व्यक्तिवाली बना ॥ ४५ ॥
हे वधू! तू श्वसुर, सास, ननद और देवरों की साम्राज्ञी-महारानी के सदृश होओ, सबके ऊपर प्रभुत्व कर ॥ ४६ ॥
समस्त देव हमारे दोनों के हृदयों को परस्पर मिला दें। जल, वायु, धाता और सरस्वती हम दोनों को संयुक्त करें ॥ ४७ ॥

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