शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 23
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
तेईसवाँ अध्याय
शरीरकी अपवित्रता तथा उसके बालादि अवस्थाओंमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंका वर्णन

सनत्कुमार बोले – हे मुने! हे महाबुद्धे ! हे व्यासजी ! सुनिये, अब मैं शरीरकी अपवित्रता तथा उसके आत्मभावके महत्त्वका संक्षिप्त रूपसे वर्णन कर रहा हूँ । चूँकि देह शुक्र और शोणितके मेलसे बनता है और यह विष्ठा तथा मूत्रसे सदा भरा रहता है, इसलिये इसे अपवित्र कहा गया है ॥ १-२ ॥ जिस प्रकार भीतर विष्ठासे परिपूर्ण घट बाहरसे शुद्ध होता हुआ भी अपवित्र ही होता है, उसी प्रकार शुद्ध किया हुआ यह शरीर भी अपवित्र कहा गया है। अत्यन्त पवित्र पंचगव्य एवं हव्य आदि भी जिस शरीरमें जानेपर क्षणभरमें अपवित्र हो जाते हैं, उस शरीरसे अधिक अपवित्र और क्या हो सकता है? ॥ ३-४ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


अत्यन्त सुगन्धित एवं मनोहर अन्नपान भी जिसे प्राप्तकर शीघ्र ही अपवित्र हो जाते हैं, उससे अपवित्र और क्या हो सकता है ? हे मनुष्यो ! क्या तुमलोग नहीं देखते हो कि इस शरीरसे प्रतिदिन दुर्गन्धित मल-मूत्र बाहर निकलता है, फिर उसका आधार [ यह देह ] किस प्रकार शुद्ध हो सकता है ? ॥ ५-६ ॥ पंचगव्य एवं कुशोदकसे भलीभाँति शुद्ध किया जाता हुआ देह भी माँजे जाते हुए कोयलेके समान निर्मल नहीं हो सकता है । पर्वतसे निकले हुए झरनेके समान जिससे कफ, मूत्र, विष्ठा आदि निरन्तर निकलते रहते हैं, वह शरीर भला शुद्ध किस प्रकार हो सकता है? ॥ ७-८ ॥

विष्ठा – मूत्रकी थैलीकी भाँति सब प्रकारकी अपवित्रताके निधानरूप इस शरीरका कोई एक भी स्थान पवित्र नहीं है । अपने देहके स्रोतोंसे मल निकालकर जल और मिट्टीके द्वारा हाथ शुद्ध किया जाता है, किंतु सर्वथा अशुद्धिपूर्ण इस शरीररूपी पात्रका अवयव होनेसे हाथ किस प्रकार पवित्र रह सकता है ? ॥ ९-१० ॥ यत्नपूर्वक उत्तम गन्ध, धूप आदिसे भलीभाँति सुसंस्कृत भी यह शरीर कुत्तेकी पूँछकी तरह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है । जिस प्रकार स्वभावसे काली वस्तु अनेक उपाय करनेपर भी उज्ज्वल नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह काया भी भलीभाँति शुद्ध करनेपर भी निर्मल नहीं हो सकती है ॥ ११-१२ ॥ अपनी दुर्गन्धको सूँघता हुआ, अपने मलको देखता हुआ तथा अपनी नाकको दबाता हुआ भी यह संसार इससे विरक्त नहीं होता है ॥ १३ ॥ अहो, महामोहकी महिमा है, जिसने इस संसारको आच्छादित कर रखा है। शरीरके अपने दोषको देखते हुए भी मनुष्य शीघ्र विरक्त नहीं होता है । जो मनुष्य अपने शरीरकी दुर्गन्धसे विरक्त नहीं होता, उसे वैराग्यका कौन-सा कारण बताया जा सकता है ? ॥ १४-१५ ॥

इस जगत् में सभीका शरीर अपवित्र है; क्योंकि उसके मलिन अवयवोंके स्पर्शसे पवित्र वस्तु भी अपवित्र हो जाती है। केवल इसके गन्धके लेपको दूर करनेके लिये देहशुद्धिकी विधि कही गयी है । गन्ध तथा लेपके दूर हो जानेसे शुद्धि हो जाती है, इसीलिये शुद्ध पदार्थके स्पर्श होनेसे शरीर शुद्ध होता है ॥ १६-१७ ॥ गंगाके सम्पूर्ण जलसे एवं पर्वतके समान मिट्टीके ढेरसे भले ही कोई मरणपर्यन्त शुद्धि करता रहे, किंतु भावदुष्ट होनेपर वह शुद्ध नहीं होता है ॥ १८ ॥ दुष्टात्मा तीर्थस्नानोंसे अथवा तपोंसे कदापि शुद्ध नहीं होता है। क्या तीर्थमें धोयी गयी कुत्तेकी खाल कभी शुद्ध हो सकती है ? ॥ १९ ॥ दूषित मनोभाववाला [ शुद्ध होनेके लिये] भले ही अग्निमें प्रवेश करे तो उसका शरीर भस्म अवश्य हो जाता है, किंतु उसे स्वर्ग या अपवर्ग कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। भावदुष्ट मनुष्य भले ही सम्पूर्ण गंगाजलसे तथा पर्वतके बराबर मिट्टीसे भलीभाँति जन्मभर स्नान करता रहे, फिर भी शुद्ध नहीं होता – ऐसा हमलोग कहते हैं ॥ २०-२१ ॥

स्वभावदुष्ट व्यक्ति घी अथवा तेलसे विधिपूर्वक प्रज्वलित की गयी, दक्षिणावर्त ज्वालाओंवाली प्रशस्त अग्निमें प्रविष्ट होकर भले ही भस्म हो जाय, किंतु उसे धर्म अथवा किसी अन्य फलकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । गंगा आदि तीर्थोंमें मछलियाँ तथा देवालयोंमें पक्षी नित्य निवास करते हैं, किंतु वे भावहीन होनेके कारण फल नहीं पाते, उसी प्रकार भावदुष्टको तीर्थस्नान एवं दानसे कोई फल प्राप्त नहीं होता है ॥ २२-२३ ॥ सभी प्रकारके कर्मोंमें, भावशुद्धिको महान् शौच कहा गया है; क्योंकि कान्ताका आलिंगन अन्य भावसे किया जाता है और पुत्रीका आलिंगन अन्य भावसे किया जाता है। अभिन्न अर्थात् समान रूपवाली वस्तुओंमें भी मनके भेदके कारण भावभेद हो जाता है। स्त्री [अपने] पतिमें अन्य भाव रखती है और पुत्रके प्रति अन्य भाव रखती है ॥ २४ – २५ ॥

इस भावकी अपार महिमाको पूर्णरूपसे देखिये, स्त्रीसे आलिंगित होनेपर भी भावहीन स्त्रीके प्रति उसकी कामना नहीं होती । यदि चित्तमें काम, क्रोध एवं लोभ- इन तीनोंकी चिन्ता विद्यमान रहे, तो अनेक प्रकारके अन्नादि तथा स्वादिष्ट भोज्य पदार्थोंको मनुष्य [ रुचिपूर्वक] नहीं खा सकता है ॥ २६-२७ ॥ भावना करनेसे ही मनुष्य बन्धनमें पड़ता है और उसमें भाव न रहनेसे उससे छुटकारा भी प्राप्त हो जाता है। भावसे शुद्ध आत्मावाला ही स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। एकमात्र भावसे शुद्ध आत्मावाला जलता हुआ, होम करता हुआ तथा स्तुति करता हुआ यदि मर भी जाय तो उसे शीघ्रतासे ज्ञानप्राप्तिके पश्चात् याज्ञिकोंको मिलनेवाले लोक प्राप्त होते हैं ॥ २८-२९ ॥

ज्ञानरूपी निर्मल जलसे और वैराग्यरूपी मृत्तिकासे मनुष्योंकी अविद्या रागरूपी मल-मूत्रके लेपकी दुर्गन्ध दूर हो जाती है । यह शरीर तो स्वभावसे ही अपवित्र कहा गया है। जिसमें केवल त्वचा ही सार होती है, ऐसे केलेके वृक्षकी भाँति यह निःसार है ॥ ३० – ३१ ॥ जो बुद्धिमान् पुरुष देहको इस प्रकारका दोषयुक्त जानकर विरक्त हो जाता है, वह शरीरके भोगोंसे उत्पन्न होनेवाले भावसे उपराम हुए चित्तवाला एवं निर्मल बुद्धिसे युक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ वह संसारसे पार हो जाता है और जीवन्मुक्त हो जाता है, किंतु जिसे संसारकी असारताका ज्ञान नहीं होता, वह केलेके खम्भे समान [भंगुर संसारको नित्य मानकर] इसे दृढ़तासे पकड़े रहता है ॥ ३३ ॥

[हे व्यास!] इस प्रकार मनुष्योंके अज्ञानदोष तथा नाना प्रकारके कर्मोंके कारण होनेवाले उनके इस महाकष्टदायक जन्म-दुःखका वर्णन मैंने कर दिया ॥ ३४ ॥ जो करोड़ों ग्रन्थोंमें कहा गया है, उसे मैं आधे श्लोकमें कहता हूँ। ‘यह मेरा है’ यह परम दुःख है और ‘यह मेरा नहीं है ‘ – यह परम सुख है । ममता से रहित बहुत-से राजा यहाँसे परलोक चले गये, किंतु ममतावश लाखों लोग इसमें बँधे रह गये ॥ ३५-३६ ॥ गर्भमें स्थित जीवकी जो स्मृति थी, वह [ जन्म लेते समय] योनियन्त्रके निपीडनके कारण मूर्च्छित कर देनेवाले दुःखसे नष्ट हो जाती है ॥ ३७ ॥ बाहरी वायुके स्पर्शसे अथवा चित्तके विकल होनेसे उसे घोर ज्वर हो जाता है । उस महाज्वरसे उसे सम्मोह उत्पन्न होता है और पुनः शीघ्र ही उस सम्मूढ़की स्मृतिका नाश हो जाता है । इसके बाद स्मृतिके नष्ट होते ही उसे अपने पूर्व कर्मोंका स्मरण नहीं रह जाता है और उस जीवको शीघ्र ही इसी जन्मसे अनुराग हो जाता है ॥ ३८–४० ॥

अनुरागयुक्त वह मूढ़ जीव शुभ कार्यमें प्रवृत्त नहीं होता है, तब वह अपनेको, परायेको तथा परमेश्वरको भी जान नहीं पाता है । हे मुनिश्रेष्ठ ! कानके होनेपर भी वह परम कल्याणकी बात नहीं सुनता और आँखोंमें देखनेकी शक्ति होनेपर भी अपना परम कल्याण नहीं देखता है ॥ ४१-४२ ॥ वह समतल मार्गमें शनैः-शनैः चलता हुआ भी पद-पदपर फिसलता रहता है और विद्वानोंके द्वारा समझाया जानेपर तथा बुद्धिके रहनेपर भी समझ नहीं पाता है । गर्भवास के समय स्मरण किये गये पापोंसे बुद्धिको हटाकर अर्थात् जन्म-मरणादिके कारणभूत असत्कर्मोंको भूलकर [ सांसारिक सुखोंके ] लोभवश विषयोंमें आबद्ध हुआ मनुष्य संसारमें आकर पुनः गर्भक्लेश प्राप्त करता है ॥ ४३-४४ ॥ इस प्रकार शिवजीने तपस्याका निरूपण करनेके लिये स्वर्ग एवं मोक्षके साधनभूत इस महान् तथा परम दिव्य शास्त्रको कहा है ॥ ४५ ॥

ये [संसारी] लोग सभी प्रकारके मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले इस शिवज्ञानके रहते हुए भी अपना कल्याण नहीं कर पाते, यह तो महान् आश्चर्य है ! ॥ ४६ ॥ बाल्यावस्थामें इन्द्रियोंकी शक्ति प्रकट न होनेसे बहुत कष्ट उठाना पड़ता है, क्योंकि चाहते हुए भी वह कुछ कहनेमें तथा प्रतिक्रिया करनेमें समर्थ नहीं होता है । उस समय दाँतोंके निकलते समय उसे बहुत कष्ट होता है और थोड़ी-बहुत व्याधिसे अनेक प्रकारके बालरोगोंसे तथा बालग्रहोंसे भी पीड़ा होती है ॥ ४७-४८ ॥ बालक कभी भूख-प्याससे व्याकुल रहता है, कभी रोता रहता है और अज्ञानवश मल-मूत्र आदिका भक्षण भी करता रहता है ॥ ४९ ॥

कुमारावस्थामें कानोंकी पीड़ा एवं माता – पिताद्वारा अक्षराभ्यास-अध्ययनादि साधनोंमें लगाये जानेके कारण उसे अनेक प्रकारका कष्ट होता है । बाल्यकालके दुःखको जानकर एवं उसे देखकर भी वह मूढबुद्धि अपना कल्याण नहीं करता, यह तो महान् आश्चर्य है ! ॥ ५०-५१ ॥ यौवनावस्थामें इन्द्रियोंके सुखोंको भोगनेकी इच्छाके कारण तथा कामरोगसे पीड़ित होनेके कारण और बादमें उसके निरन्तर प्राप्त न होनेपर सुख कहाँ ? ॥ ५२ ॥ ईर्ष्या, मोह आदि दोषोंसे रँगे हुए चित्तको तो क्लेश होता ही है, पर इन दोषोंका शमन भी बिना कष्टके नहीं हो सकता । जिस प्रकार [ नेत्रव्याधिके कारण] लाल हुए नेत्रकी उपेक्षा तो यावज्जीवन कष्ट देती ही है, पर उपचार भी बिना कष्ट सहे हो नहीं सकता (अतः उचित तो यही है कि इन मनोविकारोंको मनमें आने ही न दिया जाय ) ॥ ५३ ॥

कामाग्निसे सन्तप्त रहनेके कारण उस कामी पुरुषको रातमें निद्रा नहीं आती और दिनमें अर्थोपार्जनकी चिन्ताके कारण उसे सुख कहाँ ? स्त्रीमें आसक्त चित्तवाले पुरुषके जो वीर्यबिन्दु हैं, वे सुखके हेतु नहीं माने जा सकते, वे तो पसीनेकी बूँदोंके समान हैं ॥ ५४-५५ ॥ कीड़ोंसे काटे जाते हुए कुष्ठी वानरको खुजलीके सन्ताप (जलन) – से जो सुख होता है, वही स्त्रियोंमें व्यक्तिको भी होता है, ऐसा विद्वज्जन कहते हैं ॥ ५६ ॥ पके हुए फोड़ेसे मवादके निकल जानेपर जैसा सुख माना जाता है, उसी प्रकारका सुख विषयोपभोगमें मानना चाहिये, उनमें उससे अधिक सुख नहीं है ॥ ५७ ॥ विष्ठा और मूत्रके त्यागसे जैसा सुख होता है, वैसा ही सुख स्त्रीप्रसंगमें जानना चाहिये, किंतु मूर्खोने उसकी दूसरी ही कल्पना की है । अवस्तुस्वरूप तथा समस्त दोषोंकी आश्रयभूता उन नारियोंमें अणुमात्र भी सुख नहीं है – ऐसा पंचचूडाने कहा था ॥ ५८-५९ ॥

सम्मान, तिरस्कार, वियोग, अपने प्रियके संयोग तथा बुढ़ापेसे यौवन ग्रस्त है, अतः बाधारहित सुख कहाँ? झुर्रियों, श्वेत केशों तथा गंजापनसे युक्त, शिथिल और बुढ़ापेसे शरीर जर्जर हो जानेपर सभी कार्योंमें अक्षम हो जाता है ॥ ६०-६१ ॥ स्त्री – पुरुषका मनोहर यौवन जो पहले एक- दूसरेको प्रिय था, वही बुढ़ापे से ग्रस्त होनेपर इन दोनोंको आपसमें भी प्रिय नहीं रह जाता है ॥ ६२ ॥ बुढ़ापेके कारण परिवर्तित अपने शरीरको देखता हुआ भी [जो] नूतनके समान उससे अनुराग रखता है, उससे अधिक अज्ञानी और कौन होगा ? बुढ़ापेसे ग्रस्त हुआ मनुष्य असमर्थताके कारण पुत्री, पुत्र, भाई-बन्धु तथा कठोर स्वभाववाले भृत्योंसे तिरस्कृत किया जाता है ॥ ६३-६४ ॥ बुढ़ापेसे ग्रस्त हुआ मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षको सिद्ध करनेमें असमर्थ रहता है, अतः यौवनावस्थामें ही धर्माचरण कर लेना चाहिये ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें संसारचिकित्सामें देहाशुचित्वबाल्याद्यवस्थादुःखवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥

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