September 29, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 25 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता पच्चीसवाँ अध्याय मुनियोंका महर्षि गौतमके प्रति कपटपूर्ण व्यवहार सूतजी बोले— हे ब्राह्मणो ! किसी समय गौतम ऋषिने अपने शिष्योंको जल लाने हेतु भेजा और वे हाथमें कमण्डलु लेकर भक्तिपूर्वक वहाँ पहुँचे ॥ १ ॥ उस समय जल लेनेके लिये आयी हुईं ऋषिपत्नियोंने जलके समीपमें गये उन गौतमशिष्योंको देखकर उन्हें जल लेनेसे रोका ॥ २ ॥ पहले हम ऋषिपत्नियाँ जल ग्रहण करेंगी, इसके बाद तुमलोग दूर रहकर जल ग्रहण करना — ऐसा कहकर उन्होंने धमकाया ॥ ३ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ तब वहाँसे लौटकर उन शिष्योंने यह बात ऋषिपत्नीसे कही। इसके बाद तपस्विनी गौतमपत्नी उनको धीरज देकर उन शिष्योंको साथ लेकर स्वयं वहाँ गयीं और जल लाकर उन गौतमको दिया। तब उन ऋषिवरने उस जलसे अपना नित्यकर्म सम्पन्न किया ॥ ४—५ ॥ इधर, कुटिल विचारवाली उन सभी ऋषिपत्नियोंने कुपित होकर महर्षिपत्नीको फटकारा और वहाँसे लौटकर अपनी—अपनी पर्णशालाओंमें गयीं। इसके बाद दुष्ट स्वभाववाली उन स्त्रियोंने अपने—अपने पतियोंसे उलटे— सीधे वह सारा समाचार निवेदन किया ॥ ६—७ ॥ तब उनकी बात सुनकर भवितव्यतावश वे महर्षिगण गौतमके ऊपर क्रुद्ध हो गये ॥ ८ ॥ इसके बाद क्रोधित हुए उन दुर्बुद्धि ऋषियोंने गौतमके तपमें विघ्न करनेके लिये अनेक प्रकारके पूजन एवं उपहारोंद्वारा गणेशजीकी आराधना की ॥ ९ ॥ तदनन्तर भक्तके अधीन रहनेवाले तथा अभीष्ट फल देनेवाले गणेशजी प्रसन्न होकर वहाँ प्रकट हो गये और यह वचन कहने लगे — ॥ १० ॥ गणेशजी बोले – [हे महर्षियो ! ] मैं प्रसन्न हूँ, आपलोग वर माँगिये, मैं आपलोगोंका कौन—सा कार्य सम्पन्न करूँ? तब उनकी बात सुनकर उन महर्षियोंने कहा—॥ ११ ॥ ऋषिगण बोले— यदि आप वर देना चाहते हैं, तो हम ऋषियोंसे धिक्कार दिलाकर गौतमको इनके आश्रमसे बाहर निकलवा दें, [ इस प्रकार ] हमलोगोंका यह कार्य पूरा कर दें ॥ १२ ॥ सूतजी बोले — ऋषियोंद्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर सज्जनोंको गति प्रदान करनेवाले गजाननने प्रेमपूर्वक उन्हें समझाते हुए हँसकर पुन: यह वचन कहा— ॥ १३ ॥ गणेशजी बोले— हे समस्त ऋषियो ! सुनिये, आपलोग इस समय उचित नहीं कर रहे हैं, बिना अपराधके उनपर क्रोध करनेवाले आपलोगोंकी हानि ही होगी। जिन्होंने पूर्वमें आपलोगोंका उपकार किया है, उन्हें दुःख देना हितकारी नहीं है और यदि उनको दुःख दिया जायगा, तो इससे आपलोगोंका यहीं विनाश होगा ॥ १४—१५ ॥ इस प्रकारका तपकर उत्तम फलका साधन करना चाहिये, स्वयं ही शुभफलका परित्याग करके अहितकारक फलको नहीं ग्रहण किया जाता ॥ १६ ॥ सूतजी बोले— तब उनकी यह बात सुनकर बुद्धिमोहको प्राप्त हुए, उन ऋषिवरोंने यह वचन कहा—॥ १७ ॥ ऋषि बोले— हे स्वामिन्! आपको तो यही करना है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। तब उनके ऐसा कहनेपर प्रभु गणेशजीने यह वचन कहा — ॥ १८ ॥ गणेशजी बोले— ब्रह्मदेवने ऐसा कहा है कि नीच पुरुष कभी भी सज्जन नहीं हो सकता तथा वैसे ही सज्जन पुरुष कभी नीच नहीं हो सकता — यह निश्चित है ॥ १९ ॥ पहले जब भोजनके बिना आपलोगोंको दुःख प्राप्त हुआ, तब महर्षि गौतमने आपलोगोंको सुख प्रदान किया था। किंतु इस समय आपलोग उन्हें दुःख दे रहे हैं । यह तो लोकमें किसी प्रकार भी उचित नहीं है, आपलोग भलीभाँति विचार करें ॥ २०—२१ ॥ यदि आपलोग [अपनी—अपनी ] स्त्रीके वशीभूत होकर मेरी बात नहीं मानेंगे, तो यह भी उनके लिये परम हितकर ही होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २२ ॥ अभी भी ये ऋषिवर आपलोगोंको निश्चित रूपसे सुख देंगे, अतः उनके साथ छल करना उचित नहीं है, आप लोग दूसरा वरदान माँगिये ॥ २३ ॥ सूतजी बोले — [ हे महर्षियो ! ] यद्यपि महात्मा गणेशने उन ऋषियोंको इस प्रकारसे बहुत समझाया, किंतु ऋषियोंने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद भक्तोंके अधीन रहनेके कारण उन शिवपुत्रने उन दुष्टबुद्धि ऋषियोंसे उदासीन मनसे कहा— ॥ २४—२५ ॥ गणेशजी बोले— आपलोग जो प्रार्थना कर रहे हैं, वैसा ही करूँगा, अब जो होनहार है, वह तो होकर ही रहेगा — ऐसा कहकर वे अन्तर्धान हो गये ॥ २६ ॥ उन गौतमजीको दुष्ट ऋषियोंके अभिप्रायका ज्ञान नहीं हुआ और वे प्रसन्न मनसे [ निरन्तर ] अपनी स्त्रीके साथ नित्यकर्म करते रहे । हे मुनीश्वरो ! इसके पश्चात् उस वरदानके कारण उन दुष्ट ऋषियोंके प्रभावसे जो घटना घटी, उसे सुनिये ॥ २७—२८ ॥ महर्षि गौतमकी क्यारीमें धान्य एवं यव बोया गया था, गणेशजी अत्यन्त दुर्बल गौका रूप धारणकर वहाँ चले गये। हे मुनिसत्तमो ! उस वरके कारण काँपती हुई वह गाय यव तथा धान चरने लगी ॥ २९—३० ॥ इसी बीच दैवयोगसे [महर्षि ] गौतम भी वहीं पहुँच गये और वे दयालु उस गायको तिनकोंसे हटाने लगे । तब उन तिनकोंके स्पर्शमात्रसे गाय पृथ्वीपर गिरी और उसी क्षण उन ऋषिके देखते—देखते मर गयी ॥ ३१—३२ ॥ तब कपटसे गुप्तरूप धारण करनेवाले ऋषि एवं दुष्ट ऋषिपत्नियाँ सभी कहने लगे कि गौतमने क्या कर डाला । हे विप्रो ! आश्चर्यमें पड़े हुए गौतमने भी अहल्याको बुलाकर व्यथित मनसे दुःखपूर्वक कहा—॥ ३३—३४ ॥ गौतम बोले— हे देवि ! यह क्या हो गया ? कैसे हुआ, क्या परमेश्वर कुपित हो गये ? अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? मुझे गोवधका पाप लग गया ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले— इसी बीच वहाँके ब्राह्मण गौतमको तथा ब्राह्मणियाँ अहल्याको धिक्कारने लगीं और कटु वचनोंसे उन्हें कष्ट देने लगीं ॥ ३६ ॥ दुष्ट बुद्धिवाले उनके शिष्य तथा पुत्र भी गौतमकी निन्दा करके बार — बार उन्हें धिक्कारने लगे ॥ ३७ ॥ ऋषि बोले— हे [गौतम !] तुम्हारा मुँह देखनेयोग्य नहीं है, चले जाओ, चले जाओ; गोहत्यारेका मुख देखकर सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिये ॥ ३८ ॥ जबतक तुम इस आश्रममें रहोगे, तबतक देवता तथा पितर हमलोगोंके द्वारा दिया गया कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिये हे गोघातक ! हे पापकारक ! तुम परिवारसहित अन्यत्र चले जाओ, तुम विलम्ब मत करो ॥ ३९—४० ॥ सूतजी बोले— ऐसा कहकर वे सभी गौतमको पत्थरोंसे मारने लगे और गौतमपत्नीको भी दुर्वचनोंसे बहुत अधिक दुःख देने लगे ॥ ४१ ॥ उन दुष्टोंके द्वारा पीटे तथा अपमानित किये गये [महर्षि] गौतमने यह वचन कहा — हे मुनियो ! मैं यहाँसे चला जाता हूँ और दूसरी जगह निवास करूँगा ॥ ४२ ॥ तब ऐसा कहकर गौतम उस स्थानसे चले गये और एक कोसकी दूरीपर जाकर उनकी अनुमतिसे आश्रम बना लिया। [वहाँ भी जाकर उन ब्राह्मणोंने कहा—] जबतक गोहत्याका पाप है, तबतक तुम्हें कुछ नहीं करना चाहिये, वेदानुमोदित देव अथवा पितृकार्यमें तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है ॥ ४३—४४ ॥ इस प्रकार आधे महीनेका समय व्यतीत करके उस दुःखसे व्याकुल हुए महर्षि गौतम ऋषियोंसे प्रार्थना करने लगे ॥ ४५ ॥ गौतमजी बोले – आपलोग कृपा कीजिये और बताइये कि मैं क्या करूँ ? जिस तरह मेरा पाप दूर हो सके, वह उपाय आपलोग बतायें ॥ ४६ ॥ सूतजी बोले— उनके इस प्रकार पूछनेपर भी वे ऋषिगण कुछ न बोले । तब वे सब जहाँ स्थित थे, वहाँ जाकर गौतम अत्यन्त विनयपूर्वक सेवाभावसे पूछने लगे। गौतमने दूर रहकर उन श्रेष्ठ ऋषियोंको प्रणाम करके विनययुक्त होकर पूछा कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ॥ ४७—४८ ॥ उन महात्मा गौतमके इस प्रकार पूछनेपर उन सभी मुनियोंने परस्पर मिलकर यह वचन कहा—॥ ४९ ॥ ऋषि बोले— बिना प्रायश्चित्त किये कभी भी शुद्धि नहीं होती है, इसलिये तुम शरीरशुद्धिके निमित्त प्रायश्चित्त करो ॥ ५० ॥ तुम अपने पापको प्रकाशित करते हुए तीन बार पृथ्वीकी परिक्रमा करो, फिर यहीं आकर मासव्रतका अनुष्ठान करो। इसके बाद एक सौ एक बार इस ब्रह्मगिरिकी परिक्रमा करनेसे तुम्हारी शुद्धि होगी ॥ ५१—५२ ॥ अथवा तुम यहीं गंगाको लाकर स्नान करो और एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर भगवान् शिवका पूजन करो। उसके बाद गंगामें स्नान करके तुम पवित्र हो जाओगे । सर्वप्रथम ग्यारह बार इस पर्वतकी परिक्रमा करो, तत्पश्चात् सौ घड़े गंगाजल से स्नानकर पार्थिवपूजन करो, तब तुम्हारा प्रायश्चित्त (पूर्ण) होगा । इस प्रकार उन ऋषियोंके कहनेपर उन्होंने ‘हाँ ठीक है ‘ — ऐसा कहकर उनकी बात स्वीकार कर ली ॥ ५३–५५ ॥ [ गौतम बोले— ] हे मुनिश्रेष्ठो ! मैं आप श्रीमान् लोगोंकी आज्ञासे पार्थिव — पूजन तथा पर्वतकी परिक्रमा करूँगा–ऐसा कहकर उन मुनिश्रेष्ठ महर्षिने पर्वतकी परिक्रमा करके पार्थिव लिंगोंको बनाकर उनका पूजन किया। उन साध्वी अहल्याने भी वही सब किया। उस समय उनके शिष्यों तथा प्रशिष्योंने भी उन दोनोंकी सेवाका कार्य सम्पादित किया ॥ ५६—५८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें गौतमव्यवस्थावर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ Please follow and like us: Related