October 1, 2024 | aspundir | Leave a comment शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 43 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ श्रीशिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता तैंतालीसवाँ अध्याय ज्ञानका निरूपण तथा शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहिताके श्रवणादिका माहात्म्य सूतजी बोले- हे ऋषियो ! अत्यन्त गोपनीय तथा परममुक्तिस्वरूप शिवज्ञानको जैसा मैंने सुना है, वैसा ही कहता हूँ, आप सभी लोग सुनिये ॥ १ ॥ ब्रह्मा, नारद, सनत्कुमार, व्यास एवं कपिल- सभीके समाजमें इन्हीं [ महर्षियोंने शिवज्ञानका स्वरूप] निश्चय करके कहा है ॥ २ ॥ यह सारा जगत् शिवमय है, ऐसा ज्ञान निरन्तर अनुशीलन करनेयोग्य है । इस प्रकार सर्वज्ञ विद्वान्को [निश्चितरूपसे] शिवको सर्वमय जानना चाहिये ॥ ३ ॥ ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ संसार दीख रहा है, वह सब शिव ही है, वे देव शिव [ सर्वमय ] कहे जाते हैं ॥ ४ ॥ महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥ जिस समय उनकी इच्छा होती है, तभी वे इस संसारकी सृष्टि करते हैं । वे सबको जानते हैं, किंतु उन्हें कोई नहीं जानता ॥ ५ ॥ वे इस जगत् का निर्माणकर उसमें प्रविष्ट होकर भी [ जगत् से] दूर ही रहते हैं । वे न तो वहाँ हैं और न उसमें प्रविष्ट हैं, [ क्योंकि] वे निर्लिप्त तथा चित्स्वरूपवाले हैं ॥ ६ ॥ जिस प्रकार जल आदिमें प्रकाशका प्रतिबिम्ब दिखायी देता है, किंतु यथार्थ रूपसे उसका प्रवेश नहीं होता है, उसी प्रकार स्वयं शिव भी [ जगत् में भासमान होते हुए भी स्व-स्वरूपमें स्थित रहते ] हैं। वस्तुरूपसे स्वयं वे ही सर्वमय हैं और सर्वत्र उन्हींका शुभ क्रम अर्थात् अनुप्रवेश भासित होता है । बुद्धिका भेद भ्रम ही अज्ञान है, शिवके अतिरिक्त और कोई द्वितीय वस्तु नहीं है । सम्पूर्ण दर्शनोंमें बुद्धिका भेद ही दिखायी पड़ता है, किंतु वेदान्ती लोग नित्य अद्वैततत्त्वका ही प्रतिपादन करते हैं ॥ ७–९ ॥ स्वयं आत्मरूप शिवका अंशभूत यह जीवात्मा अविद्यासे मोहित होकर परतन्त्र – सा हो गया है और दूसरा हूँ – ऐसा समझता है, किंतु उस अविद्यासे मुक्त हो जानेपर वह [साक्षात् ] शिव हो जाता है ॥ १० ॥ सभीको व्याप्त करके वे शिवजी सभी जन्तुओंमें व्यापक रूपसे स्थित हैं, जड़-चेतनके ईश्वर वे शिव स्वयं सर्वत्र विद्यमान हैं ॥ ११ ॥ जो विद्वान् वेदान्तमार्गका आश्रय लेकर इनके दर्शनके लिये उपाय करता है, वह [ अवश्य ही] उनका दर्शनरूप फल प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ जिस प्रकार अग्नि व्यापक होकर प्रत्येक काष्ठमें [अलक्षितरूपसे] स्थित है, किंतु जो उस काष्ठका मन्थन करता है, उसे ही निःसन्देह अग्निका दर्शन प्राप्त होता है ॥ १३ ॥ जो विद्वान् भक्ति आदि साधनोंका अनुष्ठान इस लोकमें करता है, वह अवश्य ही उन शिवका दर्शन प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है ॥ १४ ॥ सर्वत्र शिव ही हैं, शिव ही हैं, शिव ही हैं, अन्य कुछ भी नहीं है, भ्रमके कारण ही वे शंकर [ अज्ञानी जीवोंको] अनेक स्वरूपोंमें निरन्तर भासते रहते हैं ॥ १५ ॥ जिस प्रकार समुद्र, मिट्टी एवं सुवर्ण उपाधिभेदसे [ एक होकर भी ] अनेकत्वको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार शिव भी उपाधियोंके भेदसे अनेक रूपोंमें भासते हैं ॥ १६ ॥ वास्तवमें कार्य-कारणमें [ कुछ भी ] भेद नहीं है, केवल बुद्धिकी भ्रान्तिसे अन्तर दिखायी पड़ता है और उसके न रहनेपर वह भेद दूर हो जाता है ॥ १७ ॥ बीजसे प्ररोह अनेक प्रकारका दिखायी देता है, किंतु अन्तमें बीज ही शेष रहता है और प्ररोह नष्ट हो जाता है ॥ १८ ॥ ज्ञानी बीजस्वरूप है और प्ररोह ( अंकुर ) – को विकार माना गया है। उस विकाररूपी अंकुरके नष्ट हो जानेपर ज्ञानीरूपी बीज शेष रहता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १९ ॥ सब कुछ शिव है तथा शिव ही सब कुछ हैं । इन दोनोंमें कुछ भी भेद नहीं है, फिर क्यों अनेकता देखी जाय या एकता देखी जाय ? जिस प्रकार लोग एक ही सूर्य नामक ज्योतिको जल आदिमें अनेक रूपमें देखते हैं, उसी प्रकार एक ही शिव अनेक रूपमें भासते हैं ॥ २०-२१ ॥ जिस प्रकार आकाश सर्वत्र व्यापक होकर भी स्पर्शसे बद्ध नहीं होता, उसी प्रकार सर्वव्यापक वह परमात्मा कहीं भी बद्ध नहीं होता है ॥ २२ ॥ [आत्मतत्त्व] जबतक अहंकारसे युक्त है, तबतक ही वह जीव है और उससे मुक्त हो जानेपर वह स्वयं शिव है। जीव कर्मभोगी होनेके कारण तुच्छ है और उससे निर्लिप्त होनेसे शिव महान् हैं ॥ २३ ॥ जैसे चाँदी आदिसे मिश्रित होनेपर सुवर्ण अल्प मूल्यवाला हो जाता है, वैसे ही जीव अहंकारयुक्त होनेपर महत्त्वहीन हो जाता है ॥ २४ ॥ जैसे सुवर्ण आदि क्षार आदिसे शोधित होकर शुद्ध हो जानेपर पहलेके समान मूल्य प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार जीव भी संस्कारसे शुद्ध हो [ साक्षात् शिव ही ] हो जाता है। पहले श्रेष्ठ गुरुको प्राप्तकर भक्तिभावसे युक्त होकर शिवबुद्धिसे उनका भलीभाँति पूजन – स्मरण आदि करे ॥ २५-२६ ॥ उनमें इस प्रकारकी बुद्धि (शिवबुद्धि) रखनेसे देहसे सम्पूर्ण पाप आदि दोष दूर हो जाते हैं, इस प्रकार जब वह ज्ञानवान् हो जाता है, तब उस जीवका [द्वैतभावरूप] अज्ञान विनष्ट हो जाता है। वह अहंकारमुक्त होकर निर्मल बुद्धिसे युक्त हो जाता है एवं शिवजीकी कृपासे शिवत्व प्राप्त कर लेता है ॥ २७-२८ ॥ जिस प्रकार शुद्ध दर्पणमें अपना रूप दिखायी देता है, उसी प्रकार जीवको भी सभी जगह शिवका साक्षात्कार होने लगता है – यह निश्चित है ॥ २९ ॥ वह जीव शिवसाक्षात्कार होनेपर जीवन्मुक्त हो जाता है । शरीरके शीर्ण हो जानेपर वह शिवमें मिल जाता है। शरीर प्रारब्धके अधीन है, जो देहाभिमानशून्य है, वही ज्ञानी कहा गया है ॥ ३० ॥ शुभ वस्तुको प्राप्तकर जो हर्षित नहीं होता और अशुभको प्राप्तकर क्रोध नही करता और द्वन्द्वोंमें समान रहता है, वह ज्ञानवान् कहा जाता है ॥ ३१ ॥ आत्मचिन्तनसे तथा तत्त्वोंके विवेकसे ऐसा प्रयत्न करे कि शरीरसे अपनी पृथक्ताका बोध हो जाय । मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष शरीर एवं उसके अभिमानको त्यागकर अहंकारशून्य एवं मुक्त हो सदाशिवमें विलीन हो जाता है। अध्यात्मचिन्तन एवं उन शिवजीकी भक्ति – ये ज्ञानके मूल कारण हैं ॥ ३२-३३ ॥ भक्तिसे प्रेम, प्रेमसे श्रवण, श्रवणसे सत्संग और सत्संगसे विद्वान् गुरुकी प्राप्ति कही गयी है। ज्ञान हो जानेपर मनुष्य निश्चितरूपसे मुक्त हो जाता है । इस प्रकार जो ज्ञानवान् है, वह सदा शिवजीका भजन करता है। जो अनन्य भक्तिसे युक्त होकर शिवका भजन करता है, वह अन्तमें मुक्त हो जाता है, इसमें किसी भी प्रकारका विचार नहीं करना चाहिये ॥ ३४–३६ ॥ मुक्ति प्राप्त करनेके लिये शिवसे बढ़कर अन्य कोई देवता नहीं है, जिनकी शरण प्राप्तकर मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ३७ ॥ हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने ऋषियोंके समागमसे निश्चय किये गये अनेक वचन कहे, आपलोगोंको उन्हें यत्नपूर्वक बुद्धिसे धारण करना चाहिये ॥ ३८ ॥ सर्वप्रथम शिवने ज्योतिर्लिंग के सामने विष्णुको वह ज्ञान दिया था । विष्णुने ब्रह्माको तथा ब्रह्माने सनक आदि ऋषियोंको दिया। उसके बाद सनक आदिने वह ज्ञान नारदसे कहा, नारदने व्यासजीसे कहा, उन कृपालु व्यासजीने मुझसे कहा और मैंने आपलोगोंसे कहा । अब आपलोगोंको लोककल्याणके लिये उसे प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये; क्योंकि वह शिवकी प्राप्ति करानेवाला है ॥ ३९—४१ ॥ हे मुनीश्वरो ! आपलोगोंने मुझसे जो पूछा था, वह मैंने आपलोगोंसे कह दिया, इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये, अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४२ ॥ व्यासजी बोले- यह सुनकर वे ऋषि परम हर्षको प्राप्त हुए और सूतजीको नमस्कारकर हर्षके कारण गद्गद वाणीमें बारंबार उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४३ ॥ ऋषिगण बोले- हे व्यासशिष्य ! आपको नमस्कार है। हे शैवसत्तम! आप धन्य हैं, जो कि आपने हमलोगोंको परम तत्त्वरूपी उत्तम शिवज्ञान सुनाया । आपकी कृपासे हमलोगोंके चित्तकी भ्रान्ति दूर हो गयी । हमलोग आपसे मुक्तिदायक शिवविषयक उत्तम ज्ञान प्राप्तकर सन्तुष्ट हो गये ॥ ४४-४५ ॥ सूतजी बोले- हे द्विजो ! नास्तिक, श्रद्धारहित, शठ, शिवमें भक्ति न रखनेवाले तथा सुननेकी इच्छा न रखनेवालेको इसे नहीं बताना चाहिये । व्यासजीने इतिहास, पुराण और वेद – शास्त्रोंको बारंबार विचारकर तथा उनका तत्त्व निकालकर मुझसे कहा है ॥ ४६-४७ ॥ इसे एक बार सुननेसे पाप नष्ट हो जाता है । अभक्तको भक्ति प्राप्त होती है एवं भक्तकी भक्तिमें वृद्धि होती है । पुनः सुननेसे श्रेष्ठ भक्ति मिलती है और पुनः सुननेसे मुक्ति प्राप्त होती है। अतः भोग तथा मोक्षरूप फल चाहनेवालोंको इसे बार-बार सुनना चाहिये ॥ ४८-४९ ॥ उत्तम फलको लक्ष्य करके इसकी पाँच आवृत्ति करनी चाहिये, ऐसा करनेसे मनुष्य उसे प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है; यह व्यासजीका वचन है ॥ ५० ॥ जिसने इस उत्तम इतिहासको सुना, उसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है । इसकी पाँच आवृत्ति करनेसे शिवजीका दर्शन प्राप्त होता है । हे श्रेष्ठ ऋषियो ! प्राचीनकालके राजा, ब्राह्मण एवं वैश्य बुद्धिपूर्वक इसे पाँच बार सुनकर उत्कृष्ट सिद्धिको प्राप्त हुए हैं। आज भी जो मनुष्य भक्तिमें तत्पर होकर इस शिवसंज्ञक विज्ञानका श्रवण करेगा, वह भोग तथा मोक्ष प्राप्त करेगा ॥ ५१ – ५३ ॥ व्यासजी बोले – उनका यह वचन सुनकर वे ऋषि परम आनन्दित हुए और आदरके साथ अनेक प्रकारकी वस्तुओंसे सूतजीकी पूजा करने लगे। वे सन्देहरहित तथा प्रसन्न होकर स्वस्तिवाचनपूर्वक नमस्कार करके अनेक स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करते हुए शुभकामनाओंसे उनका अभिनन्दन करने लगे ॥ ५४-५५ ॥ इसके बाद परम बुद्धिमान् वे ऋषिगण एवं सूतजी परस्पर सन्तुष्ट होकर शिवको परम देवता मानकर नमस्कार तथा भजन करने लगे ॥ ५६ ॥ शिवसम्बन्धी यह विशिष्ट ज्ञान शिवको अत्यन्त प्रसन्न करनेवाला, भोग- मोक्ष देनेवाला तथा दिव्य शिवभक्तिको बढ़ानेवाला है । इस प्रकार मैंने शिवपुराणकी | आनन्द प्रदान करनेवाली तथा उत्कृष्ट कोटिरुद्र नामक चौथी संहिताका वर्णन कर दिया ॥ ५७-५८ ॥जो मनुष्य सावधानचित्त होकर भक्तिपूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर अन्तमें परम गति प्राप्त करता है ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें ज्ञान – निरूपण नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥ ॥ चतुर्थ कोटिरुद्रसंहिता पूर्ण हुई ॥ महादेव – महिमा अशक्तोऽहं गुणान् वक्तुं महादेवस्य धीमतः । यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते ॥ ब्रह्मविष्णुसुरेशानां स्स्रष्टा च प्रभुरेव च । ब्रह्मादयः पिशाचान्ता यं हि देवा उपासते ॥ प्रकृतीनां परत्वेन पुरुषस्य च यः परः । चिन्त्यते यो योगविद्भिऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । अक्षरं परमं ब्रह्म असच्च सदसच्च यः ॥ प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षोभयित्वा स्वतेजसा । ब्रह्माणमसृजत् तस्माद् देवदेवः प्रजापतिः ॥ को हि शक्तो भवंगुणान् वक्तुं देवदेवस्य धीमतः । गर्भजन्मजरायुक्तो मर्त्यो मृत्युसमन्वितः ॥ को हि शक्तो भवं ज्ञातुं मद्विधः परमेश्वरम् । ऋते नारायणात्पुत्र शङ्खचक्रगदाधरात् ॥ ××× रुद्रभक्त्या तु कृष्णेन जगद्व्याप्तं महात्मना । तं प्रसाद्य महादेवं बदर्यां किल भारत ॥ अर्थात् प्रियतरत्वं च सर्वलोकेषु वै तदा । प्राप्तवानेव राजेन्द्र सुवर्णाक्षान्महेश्वरात् ॥ [ भीष्मपितामह युधिष्ठिरसे कहते हैं – ] राजन् ! मैं परम बुद्धिमान् महादेवजीके गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ हूँ। जो भगवान् सर्वत्र व्यापक हैं, किंतु ( सबके आत्मा होनेके कारण ) सर्वत्र देखनेमें नहीं आते हैं, ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्रके भी स्रष्टा तथा प्रभु हैं, ब्रह्मा आदि देवताओंसे लेकर पिशाचतक जिनकी उपासना करते हैं, जो प्रकृतिसे भी परे और पुरुषसे भी विलक्षण हैं, योगवेत्ता तत्त्वदर्शी ऋषि जिनका चिन्तन करते हैं, जो अविनाशी परमब्रह्म एवं सद्- सत्स्वरूप हैं, जिन देवाधिदेव प्रजापति शिवने अपने तेजसे प्रकृति और पुरुषको क्षुब्ध करके ब्रह्माजीकी सृष्टि की, उन्हीं देवदेव बुद्धिमान् महादेवजीके गुणोंका वर्णन करनेमें गर्भ, जन्म, जरा और मृत्युसे युक्त कौन मनुष्य समर्थ हो सकता है। बेटा ! शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् नारायणको छोड़कर मेरे- जैसा कौन पुरुष परमेश्वर शिवके तत्त्वको जान सकता है ? ‘ xxx भरतनन्दन ! रुद्रभक्तिके प्रभावसे ही महात्मा श्रीकृष्णने सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है । राजन् ! कहते हैं कि पूर्वकालमें महादेवजीको बदरिकाश्रममें प्रसन्न करके उन दिव्यदृष्टि महेश्वरसे श्रीकृष्णने सब पदार्थोंकी अपेक्षा प्रियतर- भावको प्राप्त कर लिया अर्थात् वे सम्पूर्ण लोकोंके प्रियतम बन गये । [ महाभारत, अनुशासनपर्व ] Related