शिवमहापुराण — कोटिरुद्रसंहिता — अध्याय 05
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
कोटिरुद्रसंहिता
पाँचवाँ अध्याय
रेवा नदीके तटपर स्थित विविध शिवलिंग-माहात्म्य वर्णनके क्रममें द्विजदम्पतीका वृत्तान्त

सूतजी बोले — दिव्य कालंजर पर्वतपर नीलकण्ठ नामक महादेव लिंगरूपसे सदा निवास करते हैं, जो भक्तजनोंको सर्वदा आनन्द प्रदान करनेवाले हैं ॥ १ ॥ उनकी महिमा परम दिव्य है, जिसका वर्णन वेद तथा स्मृतियोंमें किया गया है। वहाँपर नीलकण्ठ नामक तीर्थ है, जो स्नान करनेसे [ मनुष्योंके ] पापोंको नष्ट करनेवाला है ॥ २ ॥ सुव्रतो ! रेवा नदीके तटपर जितने शिवलिंग हैं, उनकी गणना नहीं की जा सकती; वे सभी सब प्रकारके सुखों को देनेवाले हैं ॥ ३ ॥ [साक्षात्] रुद्रस्वरूप वह रेवा दर्शनमात्रसे पापोंका नाश कर देनेवाली है और उसमें जो भी पाषाण स्थित हैं, वे शिवस्वरूप हैं। फिर भी हे मुनि ! भोग एवं मोक्षको देनेवाले प्रधान शिवलिंगोंका वर्णन यथोचितरूपसे कर रहा हूँ ॥ ४-५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


वहाँ आर्तेश्वर नामक लिंग है, जो सभी पापोंको दूर करनेवाला है । इसी प्रकार परमेश्वर एवं सिंहेश्वर नामक लिंग भी कहे गये हैं ॥ ६ ॥ इसी प्रकार वहाँपर शर्मेश्वर, कुमारेश्वर, पुण्डरीकेश्वर एवं मण्डपेश्वर नामक लिंग भी हैं ॥ ७ ॥ वहाँ नर्मदा नदीके किनारे दर्शनमात्रसे पापको नष्ट करनेवाला तीक्ष्णेश्वर नामक लिंग है तथा पापको करनेवाला धुन्धुरेश्वर नामक लिंग भी है ॥ ८ ॥ शूलेश्वर, कुम्भेश्वर, कुबेरेश्वर तथा सोमेश्वर नामक लिंग भी प्रसिद्ध हैं । नीलकण्ठ तथा मंगलेश तो महामंगलके स्थान ही हैं। महाकपीश्वर महादेवकी स्थापना स्वयं हनुमान् जी ने की थी ॥ ९-१० ॥

इसी क्रममें करोड़ों हत्याओंके पापको नष्ट करनेवाले, सम्पूर्ण कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले और मोक्षदायक नन्दिकदेव भी कहे गये हैं । जो अति प्रसन्नतापूर्वक नन्दिकेश्वरका पूजन करता है, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ नित्य प्राप्त होती हैं; इसमें संशय नहीं है ॥ ११-१२ ॥ हे श्रेष्ठ मुनियो ! वहाँ रेवा नदीके तटपर जो स्नान करता है, उसकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १३ ॥

ऋषिगण बोले— उस नन्दिकेश्वर लिंगका ऐसा माहात्म्य क्यों है; आप इस समय कृपा करके उसे बतायें ? ॥ १४ ॥

सूतजी बोले— [हे ऋषियो!] आपलोगोंने बड़ा उत्तम प्रश्न किया; इस विषयमें मैंने जैसा सुना है, वैसा कह रहा हूँ। शौनक आदि आप सभी मुनिलोग आदरपूर्वक सुनिये। पूर्व समयमें युधिष्ठिरके प्रश्न करनेपर ऋषिवर व्यासजीने जैसा कहा था, वही बात मैं आपलोगोंके स्नेहके कारण कह रहा हूँ ॥ १५-१६ ॥ रेवा (नर्मदा) नदीके पश्चिमी तटपर कर्णिकी नामक एक नगरी विराजमान है, जो सम्पूर्ण शोभासे युक्त है और चारों वर्णोंसे भरी पड़ी है ॥ १७ ॥ वहीं उतथ्यके कुलमें उत्पन्न कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण [ रहता था, वह ] अपनी पत्नीको अपने दो पुत्रोंको सौंपकर काशी चला गया। वह विप्र वहीं पर मर गया । जब उसके पुत्रोंने यह समाचार सुना, तो दोनों पुत्रोंने उसका [श्राद्ध आदि] कृत्य कर दिया ॥ १८-१९ ॥

पुत्रोंका हित चाहनेवाली उसकी पत्नीने अपने बालकोंका लालन-पालन किया । [ पुत्रोंके बड़े हो जानेपर] उसने कुछ धन बचाकर शेष धनका बँटवारा कर दिया। उसने कुछ धन अपने मरण – कृत्यके लिये सुरक्षितकर अपने पास रख लिया। कुछ समय बीतनेपर मरणासन्न होनेपर उस ब्राह्मणीने अनेक प्रकारके पुण्य कार्य किये, किंतु हे द्विजो ! दैवयोगसे वह ब्राह्मणी मरी नहीं ॥ २०–२२ ॥ जब दैववश उन दोनोंकी माताके प्राण नहीं निकले, तब माताके उस कष्टको देखकर उसके दोनों पुत्रोंने कहा— ॥ २३ ॥

पुत्र बोले— हे माता ! अब किस बातकी कमी रह गयी है, जिससे आपको यह महान् कष्ट मिल रहा है ? आप शीघ्रतासे हमें बतायें, हमलोग प्रेमपूर्वक उसे करेंगे ॥ २४ ॥

सूतजी बोले— यह सुनकर माताने कहा कि कमी तो बहुत रह गयी है, किंतु यदि तुमलोग उसे पूरा करो, तो सुखपूर्वक मेरी मृत्यु हो सकती है । तब उसका जो ज्येष्ठ पुत्र था, उसने कहा कि आप बताइये; मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा। तब उसने कह— ॥ २५-२६ ॥

द्विजपत्नी बोल— हे पुत्र ! मेरी बात प्रेमसे सुनो; पहले मेरी इच्छा काशी जानेकी थी, किंतु वैसा नहीं हो सका और अब मैं मर रही हूँ । हे पुत्र ! तुम आलस्यका त्यागकर मेरी अस्थियोंको [ काशीमें] गंगाजलमें प्रवाहित करा; तुम्हारा कल्याण होगा, इसमें संशय नहीं है॥ २७-२८ ॥

सूतजी बोले— माताके इस प्रकार कहनेपर मातामें भक्ति रखनेवाले उस ज्येष्ठ पुत्रने सुव्रता, मरणासन्न मातासे कह— ॥ २९ ॥

पुत्र बोला — हे मातः ! आप सुखपूर्वक अपने प्राणोंका त्याग कीजिये; मैं सर्वप्रथम आपका कार्य करनेके बाद ही अपना काम करूँगा; इसमें संशय नहीं है । इसके बाद [ अपनी माताके ] हाथमें जल देकर ज्यों ही पुत्र घर गया, तभी वह शिवजीका ध्यान करती हुई वहाँ मर गयी ॥ ३०-३१ ॥  तब उसका जो भी कृत्य था, वह सब भलीभाँति करके पुनः सारा मासिक [पिण्डदानादि ] कार्य करके वह काशी जानेको तैयार हो गया। दोनोंमें ज्येष्ठ पुत्र जो सुवाद नामसे प्रसिद्ध था, वह उसकी अस्थियोंको लेकर तीर्थकी कामनासे निकल पड़ा ॥ ३२-३३ ॥

श्राद्धदान तथा ब्राह्मणभोजन आदि उत्तम विधि सम्पन्नकर अपनी भार्या और पुत्रोंको आश्वासन देकर माताका हित करनेकी इच्छासे किसी सेवकको बुलाकर उसीके साथ मंगलस्मरण करके वह द्विज घरसे चल दिया ॥ ३४-३५ ॥ उस दिन उसने एक योजन चलकर सूर्यास्त होनेपर किसी विंशति नामक शुभ ग्राममें किसी ब्राह्मणके घरमें निवास किया ॥ ३६ ॥ उसके बाद उस द्विजने विधिपूर्वक सन्ध्यादि सत्कर्म किया और अद्भुत क्रिया-कलापवाले शंकरकी स्तुति आदि की ॥ ३७ ॥ इस प्रकार सेवकके सहित वह ब्राह्मण वहाँ रुका रहा और दो मुहूर्तभर रात बीत गयी ॥ ३८ ॥

हे मुनियो! इसी बीच वहाँ जो आश्चर्यमयी घटना घटी, उसे आपलोग आदरपूर्वक सुनिये; मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ ३९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें नन्दिकेश्वरमाहात्म्यमें ब्राह्मणीमरणवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

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