शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [पंचम-युद्धखण्ड] – अध्याय 15
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पन्द्रहवाँ अध्याय
राहु के शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थन के समय के देवताओं के छल को जानकर जलन्धर द्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्ग पर आक्रमण, इन्द्रादि देवों की पराजय, अमरावती पर जलन्धर का आधिपत्य, भयभीत देवताओं का सुमेरु की गुफा में छिपना

सनत्कुमार बोले — एक बार वृन्दा का पति वह वीर तथा उदार बुद्धिवाला समुद्रपुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा एवं समस्त असुरों के साथ बैठा था ॥ १ ॥ उसी समय अत्यन्त प्रसन्न, महातेजस्वी, मूर्तस्वरूप तेजपुंज के समान भासित होते हुए शुक्राचार्य दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए वहाँ आये । उन गुरु को आते हुए देखकर प्रसन्न मनवाले उन सभी असुरों तथा जलन्धर ने भी शीघ्र आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ २-३ ॥

शिवमहापुराण

तब तेजोनिधि भार्गव उन्हें आशीर्वाद देकर रम्य आसन पर बैठ गये और वे [असुरगण] भी पूर्ववत् बैठ गये । उसके बाद स्थिर तथा उत्तम शासनवाला वह वीर सिन्धुपुत्र जलन्धर प्रेम से अपनी सभा को देखकर प्रसन्न हुआ । वहाँ बैठे हुए सिर कटे राहु को देखकर उस दैत्यराज समुद्रपुत्र ने शीघ्रतापूर्वक शुक्राचार्य से यह पूछा — ॥ ४-६ ॥

जलन्धर बोला — हे प्रभो ! हे गुरो ! राहु के सिर को किसने काटा है ? हे गुरो ! उस सम्पूर्ण वृत्तान्त को मुझे ठीक-ठीक बताइये ॥ ७ ॥

सनत्कुमार बोले — समुद्रपुत्र जलन्धर का यह वचन सुनकर भृगुपुत्र शुक्राचार्य शिवजी के चरणकमलों का स्मरण करके यथार्थरूप में कहने लगे — ॥ ८ ॥

शुक्र बोले — हे जलन्धर ! हे महावीर ! हे असुरों के सहायक ! तुम सुनो, मैं सारा वृत्तान्त तुमसे यथार्थ रूप से कह रहा हूँ । पूर्व समय में विरोचन का पुत्र तथा हिरण्यकशिपु का प्रपौत्र वीर, बलवान् और धर्मात्मा बलि [नामक दैत्य] हुआ था ॥ ९-१० ॥ उससे पराजित हुए इन्द्रसहित सभी देवता, जो स्वार्थसाधन में अत्यन्त निपुण थे, विष्णु की शरण में गये और उन्होंने अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा ॥ ११ ॥ हे तात ! तब छलकर्म में निपुण उन देवताओं ने उन विष्णु की आज्ञा से अपने कार्य की सिद्धि हेतु असुरों के साथ सन्धि कर ली । इसके बाद विष्णु के सहायक उन सभी देवताओं ने अमृत के लिये असुरों के साथ आदरपूर्वक समुद्रमन्थन किया । तत्पश्चात् दैत्यशत्रु देवताओं ने [समुद्रमन्थन से उत्पन्न हुए] रत्न स्वयं हरण कर लिये और यत्नपूर्वक छल से अमृत ग्रहण कर लिया तथा उसका पान भी कर लिया । तदनन्तर अमृतपान से बलशाली हुए इन्द्रसहित उन देवताओं ने विष्णु की सहायता से असुरों को पराजित कर दिया ॥ १२–१५ ॥

इन्द्र के सर्वदा पक्षपाती उन विष्णु ने देवताओं की सभा में अमृत पीते हुए राहु का शिरश्छेदन कर दिया ॥ १६ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार शुक्राचार्य ने अमृत के लिये देवताओं द्वारा कराये गये समुद्रमन्थन, राहु के शिरश्छेदन, रत्नों के अपहरण, दैत्यों के पराभव और देवों द्वारा किये गये अमृतपान — इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन किया ॥ १७-१८ ॥ तब अपने पिता [समुद्र]-का मन्थन सुनकर क्रोध के कारण रक्त नेत्रोंवाला वह महावीर तथा महाप्रतापी समुद्रपुत्र जलन्धर कुपित हो उठा । इसके बाद उसने शीघ्र ही घस्मर नामक [अपने] उत्तम दूत को बुलाकर उससे सारा वृत्तान्त कहा, जिसे आत्मवान् गुरु शुक्राचार्य ने बताया था । तत्पश्चात् बहुत प्रकार से सम्मानित करके तथा अभय देकर अपने उस कुशल दूत को उसने प्रेमपूर्वक इन्द्र के समीप भेजा ॥ १९–२१ ॥

उस समुद्रपुत्र जलन्धर का वह बुद्धिमान् दूत घस्मर बड़ी शीघ्रता से सभी देवगणों से युक्त स्वर्गलोक को गया ॥ २२ ॥ वहाँ जाकर वह दूत शीघ्र ही सुधर्मा सभा में पहुँचकर बड़े अहंकार के साथ देवराज इन्द्र से यह वचन कहने लगा — ॥ २३ ॥

घस्मर बोला — समुद्रपुत्र जलन्धर सभी दैत्यों का अधिपति, महाप्रतापी एवं महावीर है तथा शुक्राचार्य उसके सहायक हैं । मैं उसी वीर का घस्मर नामक दूत हूँ और वस्तुतः घस्मर (भक्षक) नहीं हूँ, उसी वीर के द्वारा भेजे जाने पर मैं आपके पास आया हूँ । सर्वत्र अप्रतिहत आज्ञावाले महान् बुद्धिमान् तथा सम्पूर्ण देवताओं को जीतनेवाले उस जलन्धर ने जो कहा है, उसे आप सुनिये ॥ २४–२६ ॥

जलन्धर बोला — हे देवाधम ! तुमने किस कारण से पर्वत के द्वारा मेरे पिता समुद्र का मन्थन किया ? और मेरे पिता के सारे रत्नों का अपहरण किया ? तुमने यह उचित नहीं किया, उन रत्नों को अभी शीघ्र लौटा दो और विचार करके देवताओं सहित मेरी शरण में आ जाओ । अन्यथा हे सुराधम ! तुम्हारे समक्ष बहुत बड़ा भय उपस्थित होगा तथा तुम्हारा राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा । मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ २७–२९ ॥

सनत्कुमार बोले — दूत की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र विस्मित हो गये और वे भय तथा रोष से युक्त हो उसे (पूर्ववृत्तान्त को) याद करते हुए कहने लगे — ॥ ३० ॥

[हे दूत!] मेरे भय से भागे हुए पर्वतों को तथा अन्य मेरे दानवशत्रुओं को पूर्वकाल में उस समुद्र ने शरण दी थी, इसीलिये मैंने उसके सारे रत्नों का अपहरण कर लिया है । मेरा द्रोही सुख से नहीं रह सकता है, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ३१-३२ ॥

पहले भी इसी सागर के शंख नामक मूर्ख पुत्र ने मुझसे विरोध किया था, इसलिये साधुओं ने उसे अपने साथ नहीं रखा । वह साधुओं का हिंसक और बड़ा पापी था, वह समुद्र में छिपा रहता था, अतः मेरे छोटे भाई विष्णु ने उसका संहार कर दिया ॥ ३३-३४ ॥ अतः हे दूत ! तुम शीघ्र जाओ और उस समुद्रपुत्र से सागरमन्थन का समस्त कारण ठीक-ठीक कह दो ॥ ३५ ॥

सनत्कुमार बोले — इस प्रकार इन्द्र के द्वारा विसर्जित किया गया वह महाबुद्धिमान् दूत शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वीर जलन्धर था । उस बुद्धिमान् दूत ने इन्द्र द्वारा कही गयी सभी बातों को दैत्यराज जलन्धर से कह दिया ॥ ३६-३७ ॥ इन्द्र के वचन को सुनकर दैत्य के ओष्ठ क्रोध से फड़कने लगे और वह शीघ्र ही सभी देवताओं को जीतने की इच्छा से उद्योग करने लगा । उस दैत्येन्द्र के उद्योग करते ही सभी दिशाओं से तथा पाताल से करोड़ों-करोड़ दैत्य आकर उपस्थित हो गये ॥ ३८-३९ ॥

तत्पश्चात् वह महावीर तथा प्रतापशाली समुद्रपुत्र जलन्धर शुम्भ-निशुम्भ आदि करोड़ों सेनापतियों के साथ [देवताओं पर विजय करने के लिये] निकल पड़ा ॥ ४० ॥ इस प्रकार अपनी सम्पूर्ण सेनाओं को साथ लेकर वह जलन्धर शीघ्र ही स्वर्ग में पहुँच गया । उसने शंख बजाया तथा सभी वीर चारों ओर से गरजने लगे ॥ ४१ ॥ इन्द्रलोक पहुँचकर उस दैत्य ने सम्पूर्ण सेना के साथ सिंहनाद करते हुए नन्दनवन में डेरा डाल दिया ॥ ४२ ॥ नगर को चारों ओर से घेरकर स्थित उसकी बड़ी सेना को देखकर देवता कवच धारणकर युद्ध के लिये अमरावतीपुरी से निकल पड़े ॥ ४३ ॥

इसके बाद देवों और दैत्यों की सेनाओं के बीच मूसल, परिघ, बाण, गदा, परशु एवं शक्तियों से युद्ध होने लगा ॥ ४४ ॥ वे एक-दूसरे की ओर दौड़ने लगे और एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे, थोड़ी ही देर में दोनों सेनाएँ रुधिर से लथपथ हो गयीं । हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सेनाओं के गिरने तथा गिराने से सारी रणभूमि सन्ध्याकालीन बादलों के समान प्रतीत होने लगी ॥ ४५-४६ ॥ शुक्राचार्य अमृतसंजीवनी विद्या के द्वारा अभिमन्त्रित जलबिन्दुओं से युद्ध में मरे हुए दैत्यों को जिलाने लगे ॥ ४७ ॥

अंगिरा (बृहस्पति) भी द्रोणपर्वत से बारंबार दिव्य औषधियों को लाकर उनके द्वारा युद्ध में देवताओं को जिलाने लगे ॥ ४८ ॥ तब जलन्धर ने देवताओं को पुनर्जीवित होते देखकर क्रोध में भरकर शुक्राचार्य से यह वचन कहा — ॥ ४९ ॥

जलन्धर बोला — [हे गुरो!] मेरे द्वारा युद्ध में मारे गये देवता कैसे जीवित होते जा रहे हैं ? मैंने तो सुन रखा है कि संजीवनी-विद्या आपके अतिरिक्त और किसी के पास है ही नहीं ॥ ५० ॥

सनत्कुमार बोले — सिन्धुपुत्र की यह बात सुनकर गुरु शुक्राचार्य ने प्रसन्नचित्त होकर जलन्धर से कहा — ॥ ५१ ॥

शुक्र बोले — हे तात ! ये अंगिरा (बृहस्पति) द्रोणपर्वत से औषधियों को लाकर देवताओं को जीवित कर रहे हैं, मेरी बात सत्य मानो । हे तात ! यदि तुम विजय चाहते हो, तो मेरी हितकारी बात सुनो, तुम शीघ्र ही उस द्रोणपर्वत को अपनी भुजाओं से उखाड़कर समुद्र में डाल दो ॥ ५२-५३ ॥

सनत्कुमार बोले — गुरु शुक्राचार्य के द्वारा इस प्रकार कहा गया वह दैत्येन्द्र शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वह पर्वतराज [द्रोण] था ॥ ५४ ॥ उसने वेगपूर्वक अपनी भुजाओं से उस द्रोण पर्वत को लेकर शीघ्र ही समुद्र में डाल दिया । शिवजी के तेज के सम्बन्ध में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी ॥ ५५ ॥ इसके बाद वह महावीर जलन्धर विशाल सेना लेकर पुनः युद्ध-स्थल में लौट आया और अनेक प्रकार के शस्त्रों से देवगणों का संहार करने लगा ॥ ५६ ॥ तब देवताओं को मरा हुआ देखकर देवपूजित देवगुरु द्रोणपर्वत पर गये, परंतु उन्होंने उस पर्वतराज को वहाँ नहीं देखा । दैत्य के द्वारा पर्वत को अपहृत जानकर देवगुरु भय से विह्वल हो उठे और आकर के व्याकुलचित्त होकर देवताओं से वे कहने लगे — ॥ ५७-५८ ॥

गुरु बोले — हे देवताओ ! तुमलोग भाग जाओ, महापर्वत द्रोण अब नहीं है, निश्चय ही समुद्रपुत्र जलन्धर ने उसे ध्वस्त कर दिया है ॥ ५९ ॥ सभी देवताओं का मर्दन करनेवाला यह महादैत्य जलन्धर जीता नहीं जा सकता है; क्योंकि यह रुद्र के अंश से उत्पन्न है । हे देवताओ ! यह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है तथा जैसा इसका प्रभाव है, उसे मैं जानता हूँ । शिवजी का अपमान करनेवाले इन्द्र की सम्पूर्ण चेष्टा को आपलोग स्मरण कीजिये ॥ ६०-६१ ॥

सनत्कुमार बोले — देवताओं के आचार्य बृहस्पति के द्वारा कहे गये उस वचन को सुनकर भय से व्याकुल हुए उन देवगणों ने विजय की आशा त्याग दी और उस दैत्यराज के द्वारा चारों ओर से मारे जाते हुए इन्द्रसहित सभी देवता धैर्य त्यागकर दसों दिशाओं में भाग गये ॥ ६२-६३ ॥ तब देवगणों को पलायित देखकर सागरपुत्र दैत्य जलन्धर ने शंख, भेरी तथा जयध्वनि के साथ अमरावतीपुरी में प्रवेश किया । तब उस दैत्य के नगरी में प्रविष्ट होने पर इन्द्र आदि देवता उस दैत्य से पीड़ित होकर सुमेरु पर्वत की गुफा में छिप गये ॥ ६४-६५ ॥
हे मुने ! तब वह असुर इन्द्रादिकों के सभी अधिकारों पर श्रेष्ठ शुम्भादि दैत्यों को भली-भाँति पृथक्-पृथक् नियुक्तकर स्वयं [देवताओं को खोजते हुए] मेरु पर्वत की गुफा में जा पहुँचा ॥ ६६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के पंचम युद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान में देव-जलन्धरयुद्धवर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥

 

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