शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 23
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] तेईसवाँ अध्याय
अन्तर्याग अथवा मानसिक पूजाविधिका वर्णन

तदनन्तर श्रीकृष्णके पूछनेपर नित्यनैमित्तिक कर्म तथा न्यासका वर्णन करनेके पश्चात् उपमन्यु बोले- अब मैं पूजाके विधानका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। इसे शिवशास्त्रमें शिवने शिवाके प्रति कहा है ॥ १ ॥ मनुष्य अग्निहोत्रपर्यन्त अन्तर्यागका अनुष्ठान करके पीछे बहिर्याग (बाह्यपूजन) करे । ( उसकी विधि इस प्रकार है—) अन्तर्यागमें पहले पूजाद्रव्योंको मनसे कल्पित और शुद्ध करके गणेशजीका विधिपूर्वक चिन्तन एवं पूजन करे ॥ २-३ ॥ तत्पश्चात् दक्षिण और उत्तरभागमें क्रमशः नन्दीश्वर और सुयशाकी आराधना करके विद्वान् पुरुष मनसे उत्तम आसनकी कल्पना करे ॥ ४ ॥ सिंहासन, योगासन अथवा तीनों तत्त्वोंसे युक्त निर्मल पद्मासनकी भावना करे । उसके ऊपर सर्वमनोहर साम्ब-शिवका ध्यान करे ॥ ५१ / २ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥

Content is available only for registered users. Please login or register वे शिव समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त और सम्पूर्ण अवयवोंसे शोभायमान हैं। वे सबसे बढ़कर हैं और समस्त आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं । उनके हाथ- पैर लाल हैं। उनका मुसकराता हुआ मुख कुन्द और चन्द्रमाके समान शोभा पाता है । उनकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है। तीन नेत्र प्रफुल्ल कमलकी भाँति सुन्दर हैं। चार भुजाएँ, उत्तम अंग और मनोहर चन्द्रकलाका मुकुट धारण किये भगवान् हर अपने दो हाथोंमें वर तथा अभयकी मुद्रा धारण करते हैं और शेष दो हाथोंमें मृगमुद्रा एवं टंक लिये हुए हैं। उनकी कलाई में सर्पोंकी माला कड़ेका काम देती है । गलेके भीतर मनोहर नील चिह्न शोभित होता है, उनकी कहीं कोई उपमा नहीं है। वे अपने अनुगामी सेवकों तथा आवश्यक उपकरणोंके साथ विराजमान हैं ॥ ६- ११/२ ॥

इस तरह ध्यान करके उनके वाम-भागमें महेश्वरी शिवाका चिन्तन करे । शिवाकी अंगकान्ति प्रफुल्ल कमलदलके समान परम सुन्दर है। उनके नेत्र बड़े- बड़े हैं। मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान सुशोभित है। मस्तकपर काले-काले घुँघराले केश शोभा पाते हैं । वे नील उत्पलदलके समान कान्तिमती हैं । मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण करती हैं । उनके पीन पयोधर अत्यन्त गोल, घनीभूत, ऊँचे और स्निग्ध हैं । शरीरका मध्यभाग कृश है। नितम्बभाग स्थूल है। वे महीन पीले वस्त्र धारण किये हुए हैं। सम्पूर्ण आभूषण उनकी शोभा बढ़ाते हैं । ललाटपर लगे हुए सुन्दर तिलकसे उनका सौन्दर्य और खिल उठा है। विचित्र फूलोंकी मालासे गुम्फित केशपाश उनकी शोभा बढ़ाते हैं। उनकी आकृति सब ओरसे सुन्दर और सुडौल है। मुख लज्जासे कुछ-कुछ झुका है। वे दाहिने हाथमें शोभाशाली सुवर्णमय कमल धारण किये हुए हैं और दूसरे हाथको दण्डकी भाँति सिंहासनपर रखकर उसका सहारा ले उस महान् आसनपर बैठी हुई हैं। शिवादेवी समस्त पाशोंका छेदन करनेवाली साक्षात् सच्चिदानन्दस्वरूपिणी हैं ॥ १० – १५१ / २ ॥

इस प्रकार महादेव और महादेवीका ध्यान करके शुभ एवं श्रेष्ठ आसनपर सम्पूर्ण उपचारोंसे युक्त भावमय पुष्पोंद्वारा उनका पूजन करे ॥ १६ १ / २ ॥ अथवा उपर्युक्त वर्णनके अनुसार प्रभु शिवकी एक मूर्ति बनवा ले, उसका नाम शिव या सदाशिव हो। दूसरी मूर्ति शिवाकी होनी चाहिये; उसका नाम माहेश्वरी षड्- विंशका अथवा ‘ श्रीकण्ठ’ हो ॥ १७ – १८ ॥ फिर अपने ही शरीरकी भाँति मूर्तिमें मन्त्रन्यास आदि करके उस मूर्तिमें सत्-असत् से परे मूर्तिमान् परम शिवका ध्यान करे। इसके बाद बाह्य पूजनके ही क्रमसे मनसे पूजा सम्पादित करे । तत्पश्चात् समिधा और घी आदिसे नाभिमें होमकी भावना करे ॥ १९-२० ॥ तदनन्तर भ्रूमध्यमें शुद्ध दीपशिखाके समान आकार- वाले ज्योतिर्मय शिवका ध्यान करे । इस प्रकार अपने अंगमें अथवा स्वतन्त्र विग्रहमें शुभ ध्यानयोगके द्वारा अग्निमें होम – पर्यन्त सारा पूजन करना चाहिये । यह विधि सर्वत्र ही समान है । इस तरह ध्यानमय आराधनाका सारा क्रम समाप्त करके महादेवजीका शिवलिंगमें, वेदीपर अथवा अग्निमें पूजन करे ॥ २१ – २३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें पूजाविधानव्याख्यानवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥

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