शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] — अध्याय 33
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [उत्तरखण्ड] तैंतीसवाँ अध्याय
पारलौकिक फल देनेवाले कर्म- शिवलिंग- महाव्रतकी विधि और महिमाका वर्णन

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन ! अब मैं केवल परलोकमें फल देनेवाले कर्मकी विधि बतलाऊँगा। तीनों लोकोंमें इसके समान दूसरा कोई कर्म नहीं है ॥ १ ॥ यह विधि अतिशय पुण्यसे युक्त है और सम्पूर्ण देवताओंने इसका अनुष्ठान किया है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्रादि लोकपाल, सूर्यादि नवग्रह, विश्वामित्र और वसिष्ठ आदि ब्रह्मवेत्ता महर्षि, श्वेत, अगस्त्य, दधीचि तथा हम – सरीखे शिवभक्त, नन्दीश्वर, महाकाल और भृंगीश आदि गणेश्वर, पातालवासी दैत्य, शेष आदि महानाग, सिद्ध, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, भूत और पिशाच- इन सबने अपना-अपना पद प्राप्त करनेके लिये इस विधिका अनुष्ठान किया है । इस विधिसे ही सब देवता देवत्वको प्राप्त हुए हैं ॥ २-६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


इसी विधिसे ब्रह्माको ब्रह्मत्वकी, विष्णुको विष्णुत्वकी, रुद्रको रुद्रत्वकी, इन्द्रको इन्द्रत्वकी और गणेशको गणेशत्वकी प्राप्ति हुई है। श्वेतचन्दनयुक्त जलसे लिंगस्वरूप शिव और शिवाको स्नान कराकर प्रफुल्ल श्वेत कमलोंद्वारा उनका पूजन करे । फिर उनके चरणोंमें प्रणाम करके वहीं [ लिपी – पुती भूमिपर] सुन्दर शुभलक्षण पद्मासन बनवाकर रखे । धन हो तो अपनी शक्तिके अनुसार सोने या रत्न आदिका पद्मासन बनवाना चाहिये ॥ ७–९ ॥ कमलके केसरोंके मध्यभागमें अंगुष्ठके बराबर छोटे-से सुन्दर शिवलिंगकी स्थापना करे । वह सर्वगन्धमय और सुन्दर होना चाहिये । उसे दक्षिणभागमें स्थापित करके बिल्वपत्रोंद्वारा उसकी पूजा करे। फिर उसके दक्षिणभागमें अगुरु, पश्चिम भागमें मैनसिल, उत्तरभागमें चन्दन और पूर्वभागमें हरिताल चढ़ाये । फिर सुन्दर सुगन्धित विचित्र पुष्पोंद्वारा पूजा करे ॥ १० -१२ ॥

सब ओर काले अगुरु और गुग्गुलकी धूप दे । अत्यन्त महीन और निर्मल वस्त्र निवेदन करे । घृतमिश्रित खीरका भोग लगाये। घीके दीपक जलाकर रखे । मन्त्रोच्चारणपूर्वक सब कुछ चढ़ाकर परिक्रमा करे ॥ १३-१४ ॥ भक्तिभावसे देवेश्वर शिवको प्रणाम करके उनकी स्तुति करे और अन्तमें त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करे । तत्पश्चात् शिवपंचाक्षरमन्त्रसे सम्पूर्ण उपहारों सहित वह शिवलिंग शिवको समर्पित करे और स्वयं दक्षिणामूर्तिका आश्रय ले । जो इस प्रकार पंच गन्धमय शुभ लिंगकी नित्य अर्चना करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह शिवलिंग- महाव्रत सब व्रतोंमें उत्तम और गोपनीय है। तुम भगवान् शंकरके भक्त हो; इसलिये तुमसे इसका वर्णन किया है। जिस किसीको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये । केवल शिवभक्तोंको ही इसका उपदेश देना चाहिये । प्राचीनकालमें भगवान् शिवने ही इस व्रतका उपदेश दिया था ॥ १५–१८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके उत्तरखण्डमें आमुष्मिक कर्मविधिवर्णन नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥

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