शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 33
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] तैंतीसवाँ अध्याय
पाशुपत – व्रतकी विधि और महिमा तथा भस्मधारणकी महत्ता

ऋषि बोले – भगवन् ! हम परम उत्तम पाशुपत- व्रतको सुनना चाहते हैं, जिसका अनुष्ठान करके ब्रह्मा आदि सब देवता पाशुपत माने गये हैं ॥ १ ॥

वायुदेवने कहा- मैं तुम सब लोगोंको गोपनीय पाशुपत-व्रतका रहस्य बताता हूँ, जिसका अथर्ववेदके शीर्षभागमें वर्णन है तथा जो सभी पापोंका नाश करनेवाला है ॥ २ ॥ चित्रासे युक्त पौर्णमासी इसके लिये उत्तम काल है । शिवके द्वारा अनुगृहीत स्थान ही इसके लिये उत्तम देश है अथवा क्षेत्र, बगीचे आदि तथा वनप्रान्त भी शुभ एवं प्रशस्त देश हैं। पहले त्रयोदशीको भलीभाँति स्नान करके नित्यकर्म सम्पन्न कर ले। फिर अपने आचार्यकी आज्ञा लेकर उनका पूजन और नमस्कार करके [ व्रतके अंगरूपसे देवताओंकी] विशेष पूजा करे। उपासकको स्वयं श्वेत वस्त्र, श्वेत यज्ञोपवीत, श्वेत पुष्प और श्वेत चन्दन धारण करना चाहिये ॥ ३-५ ॥ वह कुशके आसनपर बैठकर हाथमें मुट्ठीभर कुश ले पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके तीन प्राणायाम करनेके पश्चात् भगवान् शिव और देवी पार्वतीका ध्यान करे । फिर यह संकल्प करे कि मैं शिवशास्त्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार यह पाशुपत – व्रत करूँगा। वह जबतक शरीर गिर न जाय, तबतकके लिये अथवा बारह, छः या तीन वर्षोंके लिये अथवा बारह, छः, तीन या एक महीनेके लिये अथवा बारह, छः, तीन या एक दिनके लिये इस व्रतकी दीक्षा ले ॥ ६–९ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


संकल्प करनेके बाद विरजा होमके लिये विधिवत् अग्निकी स्थापना करके क्रमशः घी, समिधा और चरुसे हवन करके पूर्णाहुति सम्पन्न करे । तत्पश्चात् तत्त्वोंकी शुद्धिके उद्देश्यसे मूलमन्त्रद्वारा उन समिधा आदि सामग्रियोंकी ही फिर आहुतियाँ दे ॥ १०-११ ॥ उस समय वह बारंबार यह चिन्तन करे कि ‘मेरे शरीरमें जो ये तत्त्व हैं, सब शुद्ध हो जायँ।’ उन तत्त्वोंके नाम इस प्रकार हैं—पाँचों भूत, उनकी पाँचों तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विषय, त्वचा आदि सात धातुएँ, प्राण आदि पाँच वायु, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति, पुरुष, राग, विद्या, कला, नियति, काल, माया, शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति-तत्त्व और शिव-तत्त्व—ये क्रमशः तत्त्व कहे गये हैं ॥ १२ – १५ ॥ विरजा मन्त्रोंसे आहुति करके होता रजोगुणरहित शुद्ध हो जाता है। फिर शिवका अनुग्रह पाकर वह ज्ञानवान् होता है ॥ १६ ॥

तदनन्तर गोबर लाकर उसकी पिण्डी बनाये। फिर उसे मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित करके अग्निमें डाल दे। इसके बाद इसका प्रोक्षण करके उस दिन व्रती केवल हविष्य खाकर रहे। जब रात बीतकर प्रातः काल आये, तब चतुर्दशीमें पुनः पूर्वोक्त सब कृत्य करे । उस दिन शेष समय निराहार रहकर ही बिताये ॥ १७-१८ ॥ फिर पूर्णिमाको प्रात:काल इसी तरह होमपर्यन्त कर्म करके रुद्राग्निका उपसंहार करे । तदनन्तर यत्नपूर्वक उसमेंसे भस्म ग्रहण करे। इसके बाद साधक चाहे जटा रखा ले, चाहे सारा सिर मुड़ा ले या चाहे तो केवल सिरपर शिखा धारण करे । इसके बाद स्नान करके यदि वह लोकलज्जा से ऊपर उठ गया हो तो दिगम्बर हो जाय । अथवा गेरुआ वस्त्र, मृगचर्म या फटे-पुराने चीथड़ेको ही धारण कर ले। एक वस्त्र धारण करे या वल्कल पहनकर रहे। कटिमें मेखला धारण करके हाथमें दण्ड ले ले ॥ १९–२१ ॥ तदनन्तर दोनों पैर धोकर आचमन करे । विरजाग्निसे प्रकट हुए भस्मको एकत्र करके ‘अग्निरिति भस्म’ इत्यादि छः अथर्ववेदीय मन्त्रोंद्वारा उसे अपने शरीरमें लगाये । मस्तकसे लेकर पैरतक सभी अंगोंमें उसे अच्छी तरह मल ले ॥ २२-२३ ॥

तत्पश्चात् इसी क्रमसे प्रणव या शिवमन्त्रद्वारा सर्वांगमें भस्म रमाकर ‘त्र्यायुषम्’ इत्यादि मन्त्रोंसे ललाट आदि अंगोंमें त्रिपुण्ड्रकी रचना करे। इस प्रकार शिवभावको प्राप्त हो शिवयोगका आचरण करे ॥ २४-२५ ॥ तीनों संध्याओंके समय ऐसा ही करना चाहिये । यही ‘पाशुपत – व्रत’ है, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है। यह जीवोंके पशुभावको निवृत्त कर देता है। इस प्रकार पाशुपत – व्रतके अनुष्ठान द्वारा पशुत्वका परित्याग करके लिंगमूर्ति सनातन महादेवजीका पूजन करना चाहिये ॥ २६-२७ ॥ यदि वैभव हो तो सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जिसमें नौ प्रकारके रत्न जड़े गये हों। उसमें कर्णिका और केसर भी हों। ऐसे कमलको भगवान्‌का आसन बनाये। धनाभाव होनेपर लाल या सफेद कमलके फूलका आसन अर्पित करे । वह भी न मिले तो केवल भावनामय कमल समर्पित करे ॥ २८-२९ ॥ उस कमलकी कर्णिकाके मध्यमें पीठिकासहित छोटेसे स्फटिकमणिमय लिंगकी स्थापना करके क्रमशः विधिपूर्वक उसका पूजन करे ॥ ३० ॥

उस लिंगका शोधन करके पहले शास्त्रीय विधिके अनुसार उसकी स्थापना कर लेनी चाहिये। फिर आसन दे पंचमुखके प्रकारसे मूर्तिकी कल्पना करके पंचगव्य आदिसे पूर्ण, अपने वैभवके अनुसार संगृहीत, भरे हुए सुवर्णनिर्मित कलशोंसे उस मूर्तिको स्नान कराये ॥ ३१-३२ ॥ फिर सुगन्धित द्रव्य, कपूर, चन्दन और कुंकुम आदिसे वेदीसहित भूषणभूषित शिवलिंगका अनुलेपन करके बिल्वपत्र, लाल कमल, श्वेत कमल, नील कमल, अन्यान्य सुगन्धित पुष्प, पवित्र एवं उत्तम पत्र तथा दूर्वा और अक्षत आदि विचित्र उपचार चढ़ाकर यथाप्राप्त सामग्रियोंद्वारा महापूजनकी विधिसे उसमें मूर्तिकी अभ्यर्चना करे ॥ ३३–३५ ॥ फिर धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे । वैभवसम्पन्न होनेपर इस तरह भगवान् शिवको उत्तम वस्तुएँ निवेदन करके अपना कल्याण करे ॥ ३६ ॥ उस व्रतमें विशेषतः वे सभी वस्तुएँ देनी चाहिये, जो अपनेको अधिक प्रिय हों, श्रेष्ठ हों, और न्यायपूर्वक उपार्जित हुई हों। हे द्विजो ! बिल्वपत्र, उत्पल और कमलोंकी संख्या एक-एक हजार होनी चाहिये । अन्य पत्रों और फूलोंमेंसे प्रत्येककी संख्या एक सौ आठ होनी चाहिये। इन सामग्रियोंमें भी बिल्वपत्रको विशेष यत्नपूर्वक जुटाये । उसे भूलकर भी न छोड़े ॥ ३७-३८१ / २ ॥

सोनेका बना हुआ एक ही कमल एक सहस्र कमलोंसे श्रेष्ठ बताया गया है। नील कमल आदिके विषयमें भी यही बात है । ये सब बिल्वपत्रोंके समान ही महत्त्व रखते हैं। अन्य पुष्पोंके लिये कोई नियम नहीं है। वे जितने मिलें, उतने ही चढ़ाने चाहिये । अष्टांग अर्घ्य उत्कृष्ट माना जाता है। धूप और आलेप ( चन्दन) – के विषयमें विशेष बात यह है ॥ ३९ – ४०१ / २ ॥ ‘वामदेव’ नामक मुखमें चन्दन, ‘तत्पुरुष’ नामक मुखमें हरिताल और ‘ईशान’ नामक मुखमें भस्म लगाना चाहिये । कोई-कोई भस्मकी जगह आलेपनका विधान करते हैं। दूसरे प्रकारके धूपका विधान होनेसे कुछ लोग प्रसिद्ध धूपका निषेध करते हैं । ‘अघोर’ नामक मुखके लिये श्वेत अगुरुका धूप देना चाहिये । ‘तत्पुरुष’ नामक मुखके लिये कृष्ण अगुरुके धूपका विधान है। ‘वामदेव’ के लिये सौगन्धिक, ‘सद्योजात’ मुखके लिये गुग्गुल तथा ‘ईशान’ के लिये भी उशीर आदि धूपको विशेषरूपसे देना चाहिये ॥ ४१–४३ ॥ शर्करा, मधु, कपूर, कपिला गायका घी, चन्दनका चूरा तथा अगुरु नामक काष्ठ आदिका चूर्ण – इन सबको मिलाकर जो धूप तैयार किया जाता है, उसे सब [देवताओं ] – के लिये सामान्यरूपसे उपयोगके योग्य बताया गया है ॥ ४४ ॥

कपूरकी बत्ती और घी के दीपक जलाकर दीपमाला देनी चाहिये। तत्पश्चात् प्रत्येक मुखके लिये पृथक्- पृथक् अर्घ्य और आचमन देनेका विधान है ॥ ४५ ॥ प्रथम आवरणमें गणेश और कार्तिकेयकी पूजा करनी चाहिये। उनके साथ ही बाह्य अंगोंकी भी पूजा आवश्यक है। प्रथमावरणकी पूजा हो जानेपर द्वितीयावरणमें चक्रवर्ती विघ्नेश्वरोंका पूजन करना चाहिये । तृतीयावरणमें भव आदि अष्टमूर्तियोंकी पूजाका विधान है ॥ ४६-४७ ॥ वहीं महादेव आदि एकादश मूर्तियोंका भी पूजन आवश्यक है। चौथे आवरणमें सभी गणेश्वर पूजनीय हैं। पंचमावरणमें कमलके बाह्यभागमें दस दिक्पालों, उनके अस्त्रों और अनुचरोंकी क्रमशः पूजा करनी चाहिये ॥ ४८-४९ ॥ वहीं ब्रह्माके मानस पुत्रोंकी, समस्त ज्योतिर्गणोंकी, सब देवी-देवताओंकी, सभी आकाशचारियोंकी, पातालवासियोंकी, अखिल मुनीश्वरोंकी, योगियोंकी, सब यज्ञोंकी, द्वादश सूर्योंकी, मातृकाओंकी, गणोंसहित क्षेत्रपालोंकी और इस समस्त चराचर जगत्की पूजा करनी चाहिये। इन सबको शंकरजीकी विभूति मानकर शिवकी प्रसन्नताके लिये ही इनका पूजन करना उचित है ॥ ५०–५२ ॥

इस प्रकार आवरणपूजाके पश्चात् परमेश्वर शिवका पूजन करके उन्हें भक्तिपूर्वक घृत और व्यंजनसहित मनोहर हविष्य निवेदन करना चाहिये। मुखशुद्धिके लिये आवश्यक उपकरणोंसहित ताम्बूल देकर नाना प्रकारके फूलोंसे पुनः इष्टदेवका श्रृंगार करे। आरती उतारे । तत्पश्चात् पूजनका शेष कृत्य पूर्ण करे । पानचषक तथा उपकारक सामग्रियोंसहित शय्या समर्पित करे ॥ ५३-५५ ॥ शय्यापर चन्द्रमाके समान चमकीला हार दे । राजोचित मनोहर वस्तुएँ सब प्रकारसे संचित करके दे । स्वयं पूजन करे, दूसरोंसे भी कराये तथा प्रत्येक पूजनमें आहुति दे । इसके बाद व्योमकेश भगवान् शिवकी स्तुति – प्रार्थना करके पंचाक्षरी विद्याको जपे ॥ ५६-५७ ॥ परिक्रमा और प्रणाम करके अपने-आपको समर्पित करे । तदनन्तर इष्टदेवके सामने ही गुरु और ब्राह्मणकी पूजा करे। इसके बाद अर्घ्य और आठ फूल देकर पूजित लिंग या मूर्तिसे देवताका विसर्जन करे। फिर अग्निदेवका भी विसर्जन करके पूजा समाप्त करे ॥ ५८-५९ ॥

मनुष्यको चाहिये कि प्रतिदिन इसी प्रकार पूर्वोक्तरूपसे सेवा करे। पूजनके अन्तमें [ सुवर्णमय ] कमल तथा अन्य सब उपकरणोंसहित उस शिवलिंगको गुरुके हाथमें दे दे अथवा शिवालयमें स्थापित कर दे ॥ ६०१ / २ ॥ गुरुओं, ब्राह्मणों तथा विशेषतः व्रतधारियोंकी पूजा करके सामर्थ्य हो तो भक्त ब्राह्मणों तथा दीनों और अनाथोंको भी संतुष्ट करे । स्वयं उपवासमें असमर्थ होनेपर फल-मूल खाकर या दूध पीकर रहे अथवा भिक्षान्नभोजी हो या एक समय भोजन करे । रातको प्रतिदिन परिमित भोजन करे और पवित्र भावसे भूमिपर ही सोये ॥ ६१–६३ ॥ भस्मपर, तृणपर अथवा चीर या मृगचर्मपर शयन करे । प्रतिदिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इस व्रतका अनुष्ठान करे। यदि शक्ति हो तो रविवारके दिन, आर्द्रा नक्षत्रमें, दोनों पक्षोंकी पूर्णिमा और अमावास्याको, अष्टमीको तथा चतुर्दशीको उपवास करे ॥ ६४-६५ ॥ मन, वाणी और क्रियाद्वारा सम्पूर्ण प्रयत्नसे पाखण्डी, पतित, रजस्वला स्त्री, सूतकमें पड़े हुए लोग तथा अन्त्यज आदिके सम्पर्कका त्याग करे । निरन्तर क्षमा, दान, दया, सत्यभाषण और अहिंसामें तत्पर रहे। संतुष्ट और शान्त रहकर जप और ध्यानमें लगा रहे ॥ ६६-६७ ॥

तीनों काल स्नान करे अथवा भस्म – स्नान कर ले। मन, वाणी और क्रियाद्वारा विशेष पूजा किया करे । इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ? व्रतधारी पुरुष कभी अशुभ आचरण न करे । प्रमादवश यदि वैसा आचरण बन जाय तो उसके गुरु – लाघवका विचार करके उसके दोषका निवारण करनेके लिये पूजा, होम और जप आदिके द्वारा उचित प्रायश्चित्त करे । व्रतकी समाप्तिपर्यन्त भूलकर भी अशुभ आचरण न करे ॥ ६८-७० ॥ सम्पत्ति हो तो उसके अनुसार गोदान, वृषोत्सर्ग और पूजन करे। भक्त पुरुष निष्कामभावसे शिवकी प्रीतिके लिये ही सब कुछ करे। यह संक्षेपसे इस व्रतकी सामान्य विधि कही गयी है ॥ ७११ / २ ॥

अब शास्त्र के अनुसार प्रत्येक मासमें जो विशेष कृत्य है, उसे बताता हूँ। वैशाखमासमें हीरेके बने हुए शिवलिंगका पूजन करना चाहिये। ज्येष्ठमासमें मरकत- मणिमय शिवलिंगकी पूजा उचित है। आषाढ़मासमें मोतीके बने हुए शिवलिंगको पूजनीय समझे । श्रावणमासमें नीलमका बना हुआ शिवलिंग पूजनके योग्य है। भाद्रपदमासमें पूजनके लिये पद्मरागमणिमय शिवलिंगको उत्तम माना गया है। आश्विनमासमें गोमेदमणिके बने हुए लिंगको उत्तम समझे ॥ ७२–७४ ॥ कार्तिकमासमें मूँगेके और मार्गशीर्षमासमें वैदूर्यमणिके बने हुए लिंगकी पूजाका विधान है। पौषमासमें पुष्पराग (पुखराज)-मणिके तथा माघमासमें सूर्यकान्तमणिके लिंगका पूजन करना चाहिये। फाल्गुनमासमें चन्द्रकान्तमणिके और चैत्रमें सूर्यकान्तमणिके बने हुए लिंगके पूजनकी विधि है । अथवा रत्नोंके न मिलनेपर सभी मासोंमें सुवर्णमय लिंगका ही पूजन करना चाहिये ॥ ७५-७६ ॥ सुवर्णके अभावमें चाँदी, ताँबे, पत्थर, मिट्टी, लाह या और किसी वस्तुका जो सुलभ हो, लिंग बना लेना चाहिये। अथवा अपनी रुचिके अनुसार सर्वगन्धमय लिंगका निर्माण करे ॥ ७७१/२ ॥

व्रतकी समाप्तिके समय नित्यकर्म पूर्ण करके पूर्ववत् विशेष पूजा और हवन करनेके पश्चात् आचार्यका तथा विशेषतः व्रती ब्राह्मणका पूजन करे ॥ ७८-७९ ॥ फिर आचार्यकी आज्ञा ले पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके कुशासनपर बैठे। हाथमें कुश ले, प्राणायाम करके, ‘साम्बसदाशिव’ का ध्यान करते हुए यथाशक्ति मूलमन्त्रका जप करे। फिर पूर्ववत् आज्ञा ले हाथ जोड़ नमस्कार करके कहे—’ भगवन्! अब मैं आपकी आज्ञासे इस व्रतका उत्सर्ग करता हूँ।’ ऐसा कहकर शिवलिंगके मूल भागमें उत्तरदिशाकी ओर कुशोंका त्याग करे । तदनन्तर दण्ड, चीर, जटा और मेखलाको भी त्याग दे। इसके बाद फिर विधिपूर्वक आचमन करके पंचाक्षरमन्त्रका जप करे ॥ ८० – ८३ ॥ जो आत्यन्तिक दीक्षा ग्रहण करके अपने शरीरका अन्त होनेतक शान्तभावसे इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह ‘नैष्ठिक व्रती’ कहा गया है। उसे सब आश्रमोंसे ऊपर उठा हुआ महापाशुपत जानना चाहिये। वही तपस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ है और वही महान् व्रतधारी है ॥ ८४-८५ ॥ मोक्षकी कामना करनेवालोंमें उसके समान धन्य कोई नहीं है। जो यति नैष्ठिक हो गया है, उसे निष्ठासम्पन्न पुरुषोंमें उत्तम कहा गया है ॥ ८६ ॥

जो बारह दिनोंतक प्रतिदिन विधिपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह भी नैष्ठिकके ही तुल्य है; क्योंकि उसने तीव्र व्रतका आश्रय लिया है। जो अपने शरीरमें घी लगाकर व्रतके सभी नियमोंके पालनमें तत्पर हो दो-तीन दिन या एक दिन भी इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह भी कोई नैष्ठिक ही है ॥ ८७-८८ ॥ जो निष्काम होकर अपना परम कर्तव्य मानकर अपने-आपको शिवके चरणोंमें समर्पित करके इस उत्तम व्रतका सदा अनुष्ठान करता है, उसके समान कहीं कोई नहीं है । विद्वान् ब्राह्मण भस्म लगाकर महापातक-जनित अत्यन्त दारुण पापोंसे भी तत्काल छूट जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ८९-९० ॥ रुद्राग्निका जो सबसे उत्तम वीर्य (बल) है, वही भस्म कहा गया है। अतः जो सभी समयोंमें भस्म लगाये रहता है, वह वीर्यवान् माना गया है। भस्ममें निष्ठा रखनेवाले पुरुषके सारे दोष उस भस्माग्निके संयोगसे दग्ध होकर नष्ट हो जाते हैं । जिसका शरीर भस्मस्नानसे विशुद्ध है, वह भस्मनिष्ठ कहा गया है ॥ ९१-९२ ॥ जिसके सारे अंगोंमें भस्म लगा हुआ है, जो भस्मसे प्रकाशमान है, जिसने भस्ममय त्रिपुण्ड्र लगा रखा है तथा जो भस्मसे स्नान करता है, वह भस्मनिष्ठ माना गया है। भूत, प्रेत, पिशाच तथा अत्यन्त दुःसह रोग भी भस्मनिष्ठके सान्निध्यसे दूर भागते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ९३-९४ ॥

वह शरीरको भासित करता है, इसलिये ‘ भसित’ कहा गया है तथा पापोंका भक्षण करनेके कारण उसका नाम ‘भस्म’ है। भूति ( ऐश्वर्य ) – कारक होनेसे उसे ‘भूति’ या ‘विभूति’ भी कहते हैं । विभूति रक्षा करनेवाली है, अतः उसका एक नाम ‘रक्षा’ भी है। भस्मके माहात्म्यको लेकर यहाँ और क्या कहा जाय । भस्मसे स्नान करनेवाला व्रती पुरुष साक्षात् महेश्वरदेव कहा गया है। यह परमेश्वर ( रुद्राग्नि) – सम्बन्धी भस्म शिव- भक्तोंके लिये बड़ा भारी अस्त्र है; क्योंकि उसने धौम्य मुनिके बड़े भाई उपमन्युके तपमें आयी हुई आपत्तियोंका निवारण किया था; इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके पाशुपत – व्रतका अनुष्ठान करनेके पश्चात् हवन – सम्बन्धी भस्मका धनके समान संग्रह करके सदा भस्मस्नानमें तत्पर रहना चाहिये ॥ ९५–९८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहितामें पूर्वखण्डके पशुपतिव्रतविधानवर्णन नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥

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