शिवमहापुराण — वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] — अध्याय 08
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
वायवीयसंहिता [ पूर्वखण्ड] आठवाँ अध्याय
कालका परिमाण एवं त्रिदेवोंके आयुमानका वर्णन

ऋषिगण बोले- इस कालमें किस प्रमाणके द्वारा आयु – गणनाकी कल्पना की जाती है और संख्यारूप कालकी परम अवधि क्या है ? ॥ १ ॥

वायुदेव बोले- आयुका पहला मान निमेष कहा जाता है। संख्यारूप कालकी शान्त्यतीत कला चरम सीमा है। पलक गिरनेमें जो समय लगता है, उसे ही निमेष कहा गया है। उस प्रकारके पन्द्रह निमेषोंकी एक काष्ठा होती है ॥ २-३ ॥ तीस काष्ठाओंकी एक कला, तीस कलाओंका एक मुहूर्त और तीस मुहूर्तोंका एक अहोरात्र कहा जाता है। मास तीस दिन-रातका तथा दो पक्षोंवाला होता है। एक मासके बराबर पितरोंका एक अहोरात्र होता है, जिसमें रात्रि कृष्णपक्ष और दिन शुक्लपक्ष माना जाता है ॥ ४-६ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


छः महीनोंका एक अयन होता है। दो अयनोंका एक वर्ष माना गया है, जिसे लौकिक मानसे मनुष्योंका वर्ष कहा जाता है। यही एक वर्ष देवताओंका एक अहोरात्र होता है – ऐसा शास्त्रका निश्चय है । दक्षिणायन देवताओंकी रात्रि एवं उत्तरायण दिन होता है ॥ ७-८ ॥ मनुष्योंकी भाँति देवताओंके भी तीस अहोरात्रोंको उनका एक मास कहा गया है और इस प्रकारके बारह महीनोंका देवताओंका भी एक वर्ष होता है । मनुष्योंके तीन सौ साठ वर्षोंका देवताओंका एक वर्ष जानना चाहिये। उसी दिव्य वर्षसे युगसंख्या होती है । विद्वानोंने भारतवर्षमें चार युगोंकी कल्पना की है ॥ ९-११ ॥

सबसे पहले कृतयुग (सत्ययुग), इसके बाद त्रेतायुग होता है, फिर द्वापर तथा कलियुग होते हैं- इस प्रकार कुल ये ही चार युग हैं ॥ १२ ॥ इनमें देवताओंके चार हजार वर्षोंका सत्ययुग होता है, इसके अतिरिक्त चार सौ वर्षोंकी सन्ध्या तथा इतने ही वर्षोंका सन्ध्यांश होता है ॥ १३ ॥ अन्य तीन युगोंमें वर्ष तथा सन्ध्या सन्ध्यांशमें एक-एक पाद क्रमशः हजार तथा सौ कम होता है अर्थात् त्रेता तीन हजार वर्षका, उसकी सन्ध्या एवं सन्ध्यांश तीन सौ वर्षके, द्वापर दो हजार वर्षका तथा उसकी सन्ध्या एवं सन्ध्यांश दो सौ वर्षके और कलियुग एक हजार वर्षका तथा उसकी सन्ध्या एवं सन्ध्यांश एक – एक सौ वर्षके होते हैं । इस तरह सन्ध्या एवं सन्ध्यांशके सहित चारों युग बारह हजार वर्षके होते हैं । एक हजार चतुर्युगीका एक कल्प कहा जाता है ॥ १४-१५ ॥

इकहत्तर चतुर्युगीका एक मन्वन्तर कहा जाता है । एक कल्पमें चौदह मनुओंका आवर्तन होता है ॥ १६ ॥ इस क्रमयोगसे प्रजाओंसहित सैकड़ों-हजारों कल्प और मन्वन्तर बीत चुके हैं । उन सभीको न जाननेके कारण तथा उनकी गणना न कर सकनेके कारण क्रमबद्धरूपसे उनके विस्तारका निरूपण नहीं किया जा सकता है। एक कल्पके बराबर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीका एक दिन कहा गया है तथा यहाँपर हजार कल्पोंका ब्रह्माका एक वर्ष कहा जाता है ॥ १७- १९ ॥ ऐसे आठ हजार वर्षोंका ब्रह्माका एक युग होता है और पद्मयोनि ब्रह्माके हजार युगोंका एक सवन होता है । एक हजार सवनोंका तीन गुना तथा उस तीन गुनाका भी तीन गुना अर्थात् नौ हजार सवनोंका ब्रह्माजीका कालमान कहा गया है। उनके एक दिनमें चौदह, एक मासमें चार सौ बीस, एक वर्षमें पाँच हजार चालीस तथा उनकी पूरी आयुमें पाँच लाख चालीस हजार इन्द्र व्यतीत हो जाते हैं ॥ २०–२३ ॥ ब्रह्मा विष्णुके एक दिनपर्यन्त, विष्णु रुद्रके एक दिनपर्यन्त, रुद्र ईश्वरके एक दिनपर्यन्त और ईश्वर सत् नामक शिवके एक दिनपर्यन्त रहते हैं ॥ २४ ॥

यही साक्षात् शिवके लिये कालकी संख्या है, उन्हें सदाशिव भी कहा जाता है। इनकी पूर्ण आयुमें पूर्वोक्त क्रमसे पाँच लाख चालीस हजार रुद्र हो जाते हैं ॥ २५ ॥ उन साक्षात् सदाशिवके द्वारा ही वह कालात्मा प्रवर्तित होता है। हे ब्राह्मणो ! सृष्टिके कालान्तरका मैंने वर्णन कर दिया, इतने कालको परमेश्वरका एक दिन जानना चाहिये और उतने ही कालको परमेश्वरकी एक पूर्ण रात्रि भी जाननी चाहिये । सृष्टिको दिन और प्रलयको रात्रि कहा गया है, किंतु उनके लिये न दिन है और न रात्रि – ऐसा समझना चाहिये ॥ २६–२८ ॥ यह औपचारिक व्यवहार तो लोकके हितकी कामनासे किया जाता है । प्रजा, प्रजापति, नानाविध शरीर, सुर, असुर, इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंके विषय, पंचमहाभूत, तन्मात्राएँ, भूतादि (अहंकार), देवगणोंके साथ बुद्धि – ये सब धीमान् परमेश्वरके दिनमें स्थित रहते हैं और दिनके अन्तमें प्रलयको प्राप्त हो जाते हैं, इसके बाद रात्रिके अन्तमें पुनः विश्वकी उत्पत्ति होती है ॥ २९-३० ॥ जो विश्वात्मा हैं और काल, कर्म तथा स्वभावादि अर्थमें जिनकी शक्तिका उल्लंघन नहीं किया जा सकता और जिनकी आज्ञाके अधीन यह समस्त जगत् है, उन महान् शंकरको नमस्कार है ॥ ३१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें कालप्रभावमें त्रिदेवोंका आयुवर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

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