शिवमहापुराण – शतरुद्रसंहिता – अध्याय 11
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
ग्यारहवाँ अध्याय
भगवान् नृसिंह और वीरभद्रका संवाद

नन्दीश्वर बोले – [ हे सनत्कुमार!] देवताओंने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब कृपानिधि परमेश्वरने नृसिंह नामक महातेजको संहृत करनेका निश्चय किया ॥ १ ॥ इसके बाद रुद्रने महाबलवान् प्रलयकारी एवं अपने भैरवरूप वीरभद्रका स्मरण किया और उनसे कहा ॥ २ ॥ तब तत्काल ही अट्टहास करते हुए श्रेष्ठ गणोंसे परिवेष्टित गणाग्रणी वीरभद्र वहाँ आ पहुँचे । वीरभद्रके वे गण इधर-उधर उछल रहे थे, उनमेंसे करोड़ों गण अति उग्र नृसिंहरूप धारण किये हुए थे । कुछ आनन्दित हो नाचते हुए वीरभद्रकी परिक्रमा कर रहे थे । कुछ उन्मत्त थे, और कुछ ब्रह्मादि देवताओंसे कन्दुकके समान क्रीड़ा कर रहे थे । कुछ ऐसे भी थे, जो सर्वथा अज्ञात थे । इस प्रकारके कल्पान्तकी अग्निके समान प्रज्वलित त्रिनेत्रसे युक्त, मस्तकपर जटाजूट एवं बालचन्द्रमा तथा अल्प शस्त्रोंको धारण किये हुए जाज्वल्यमान वीरभद्र अपने गणोंसे वन्दित हो रहे थे ॥ ३५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


उनके आगेके तीक्ष्ण दन्ताग्र बालचन्द्राकार तथा दोनों भौंहें इन्द्रधनुषके खण्डके समान प्रतीत हो रही थीं । वीरभद्रके प्रचण्डतम हुंकारसे दिशाएँ बधिर हो रही थीं । उनका रूप काले बादल और काजलके समान कृष्णवर्ण और भयावह था, उनके मुखपर दाढ़ी एवं मूँछें थीं। अद्भुत स्वरूपवाले वे अपनी अखण्ड भुजाओंसे वाद्यखण्ड (वाद्यदण्ड ) – की भाँति बार – बार त्रिशूल घुमा रहे थे। इस प्रकार अपनी वीरोचित शक्तिसहित भगवान् वीरभद्र शिवजीके समीप आकर स्वयं बोले- हे देव! यहाँ आपद्वारा मैं किस उद्देश्यसे स्मरण किया गया हूँ ? हे जगत् के स्वामिन्! शीघ्र मेरे ऊपर प्रसन्न होकर आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ ६–१० ॥

नन्दीश्वर बोले – वीरभद्रके आदरपूर्वक कहे गये इस वचनको सुनकर दुष्टोंको दण्ड देनेवाले शिवजी उनकी ओर देखकर प्रीतिपूर्वक कहने लगे-॥ ११ ॥

शंकर बोले—[हे वीरभद्र!] असमयमें देवताओंको घोर भय उत्पन्न हो गया है । नृसिंहकी असह्य कोपाग्नि प्रज्वलित हो उठी है, तुम इस कोपाग्निको शान्त करो ॥ १२ ॥ पहले सान्त्वना देते हुए उन्हें समझाओ कि आप क्यों नहीं शान्त होते हैं । तब भी यदि वे शान्त न हों तो तुम मेरे परम भैरवरूपको दिखाओ ॥ १३ ॥ हे वीरभद्र ! तुम सूक्ष्म तेजसे सूक्ष्मका और स्थूल तेजसे स्थूलका संहरण करके मेरी आज्ञासे अग्निको वशमें करो ॥ १४ ॥

नन्दीश्वर बोले- शिवजीकी इस आज्ञाको स्वीकार गणाध्यक्ष वीरभद्रने परमशान्त रूप धारण कर लिया और जहाँ नृसिंह थे, वहाँ वे अतिशीघ्र जा पहुँचे ॥ १५ ॥ तत्पश्चात् शिवरूप वीरभद्रने नृसिंहरूपी विष्णुको समझाया और उन महेश्वरने इस प्रकार वचन कहा, जैसे पिता अपने औरस पुत्रसे बात करता है ॥ १६ ॥

वीरभद्र बोले – हे भगवन्! हे माधव ! आप संसारके कल्याणके निमित्त अवतीर्ण हुए हैं । परमेष्ठीने आप परमेश्वरको पालनके लिये नियुक्त किया है ॥ १७ ॥ पूर्व समयमें जब प्रलय हुआ था, उस समय भगवन्! आपने मत्स्यका रूप धारणकर प्राणियों [से युक्त नौका ] – को अपनी पूँछमें बाँधकर [ सागरमें] भ्रमण करते हुए उनकी रक्षा की थी। इसी प्रकार आपने कूर्मस्वरूपसे [ मन्दराचलको ] धारण किया एवं वराहावतारद्वारा पृथ्वीका उद्धार किया था और [इस समय भी आपने] इस नृसिंहरूपसे हिरण्यकशिपुका वध किया है। इसी प्रकार आपने वामनावतार ग्रहणकर [दैत्यराज] बलिको तीन पैरमें तीनों लोकों और उसके शरीरको नापकर बाँध लिया। आप ही सभी प्राणियोंके उत्पत्तिस्थान और अविनाशी प्रभु हैं ॥ १८-२० ॥ जब-जब इस संसारपर कोई विपत्ति आती है, तब-तब आप अवतार ग्रहणकर उसे दुःखरहित करते हैं। हे हरे ! आपसे बढ़कर अथवा आपके समान भी कोई अन्य शिवपरायण नहीं है । आपने ही वेदों तथा धर्मोको शुभमार्गमें प्रतिष्ठित किया है ॥ २१-२२ ॥ जिसके लिये आपका यह अवतार हुआ है, वह दानव हिरण्यकशिपु मार डाला गया और प्रह्लादकी भी रक्षा हो गयी ॥ २३ ॥ अतः हे भगवन् ! हे विश्वात्मन् ! [ आपका प्रयोजन सिद्ध हो चुका है, ] अब आप अपने इस घोर नृसिंहरूपको मेरे समक्ष ही उपसंहृत कीजिये ॥ २४ ॥

नन्दीश्वर बोले – इस प्रकार वीरभद्रद्वारा शान्त वाणीमें निवेदन किये जानेपर महामदसे भरे हुए उन नृसिंहने पहलेसे भी अधिक महाभयानक क्रोध किया और हे मुने! अपने दाँतोंसे भयभीत करते हुए महावीर वीरभद्रसे महाघोर एवं कठोर वचन कहा— ॥ २५-२६ ॥

नृसिंह बोले – [हे वीरभद्र!] तुम जहाँसे आये हो, वहीं चले जाओ और मुझसे लोकहितकी बात न कहो । मैं अभी इसी समय इस चराचर जगत् ‌को विनष् करूँगा। स्वयं मुझ संहारकर्ताका संहार अपनेसे अथवा दूसरेसे नहीं हो सकता है । सर्वत्र मेरा ही शासन है, मेरे ऊपर शासन करनेवाला कोई भी नहीं है ॥ २७-२८ ॥ मेरी कृपासे सारा संसार निर्भय रहता है, मैं ही सभी शक्तियोंका प्रवर्तक एवं निवर्तक हूँ ॥ २९ ॥ हे गणाध्यक्ष ! [ इस जगत् में] जो भी विभूतिमान्, कान्तियुक्त तथा शक्तिसम्पन्न वस्तु है, उस उसको मेरे ही तेजसे विजृम्भित जानो ॥ ३० ॥ समस्त देवगण मुझे ही परमार्थको जाननेवाला तथा परमब्रह्म कहते हैं और ब्रह्मा एवं इन्द्रादि समस्त देवगण मेरे ही अंश तथा [ मुझसे ही ] शक्तिसम्पन्न हैं ॥ ३१ ॥

जगत्कर्ता ब्रह्मा भी पूर्व समयमें मेरे नाभिकमलसे उत्पन्न हुए थे। मैं ही सबसे अधिक, स्वतन्त्र, कर्ता, हर्ता तथा अखिलेश्वर हूँ ॥ ३२ ॥ यह [नृसिंहरूपकी ज्वाला] मेरा सर्वाधिक तेज है, [मेरे विषयमें] और क्या सुनना चाहते हो ? अतः मेरी शरणमें आकर निर्भय होकर तुम चले जाओ ॥ ३३ ॥ हे गणेश्वर ! दिखायी पड़नेवाले इस संसारको मेरा ही परम स्वरूप जानो । देवता, असुर एवं मनुष्योंसे युक्त यह सारा विश्व मेरा है ॥ ३४ ॥ मैं लोकोंके विनाशका कारण कालस्वरूप हूँ, अतः मैं लोकोंका संहार करनेके लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। हे वीरभद्र ! मुझे मृत्युका भी मृत्यु समझो, ये देवगण मेरी ही कृपासे जीवन धारण करते हैं ॥ ३५ ॥

नन्दीश्वर बोले- विष्णुके अहंकारयुक्त वचनको सुनकर महापराक्रमी वीरभद्र ओठोंको फड़फड़ाते हुए अवज्ञापूर्वक हँसकर कहने लगे – ॥ ३६ ॥

वीरभद्र बोले- क्या आप संसारके ईश्वर तथा संहारकर्ता पिनाकधारी शिवको नहीं जानते हैं ? आपमें केवल मिथ्या वाद-विवाद भरा पड़ा है, जो कि आपके विनाशका कारण है ॥ ३७ ॥ आपके अन्यान्य कितने ही अवतार हो चुके हैं, कितने ही बाकी हैं । हे विष्णो ! जिस कारण से आपका यह अवतार हुआ है, कहीं ऐसा न हो कि उसी अवतारसे आप कथामात्र ही शेष न रह जायँ ॥ ३८ ॥
आप उस दोषको बताइये, जिससे आप इस दशाको प्राप्त हुए हैं । संसारके संहारमें प्रवीण होनेके कारण कहीं ऐसा न हो कि उसकी दक्षिणा आपको ही प्राप्त हो जाय ॥ ३९ ॥ आप प्रकृति हैं तथा रुद्र पुरुष हैं, उन्होंने आपमें अपने वीर्यका आधान किया है, इसीलिये आपके नाभिकमलसे पाँच मुखवाले ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं ॥ ४० ॥

उन्होंने इस त्रिलोकीकी सृष्टिके लिये अपने ललाटमें नीललोहित शिवका ध्यान किया और वे उग्र तपमें स्थित हुए । तब उन्हींके ललाटसे सृष्टिहेतु शिवजी उत्पन्न हुए और ब्रह्माजीने उन्हें भूषणरूपमें धारण किया । मैं उन्हीं देवाधिदेव भैरवरूपधारीकी आज्ञासे यहाँ आया हूँ। हे हरे ! मैं उन्हीं देवदेव सर्वेश्वर रुद्रके द्वारा विनय और बल दोनोंसे आपका नियमन करनेके लिये नियुक्त किया गया हूँ॥ ४१–४३ ॥ आपने तो उनकी शक्तिकी कलामात्रसे ही युक्त होकर एक राक्षसका वध किया, पर अब असावधान होकर अहंकारके प्रभावसे गर्जन कर रहे हैं । सज्जन व्यक्तियोंके साथ किया गया उपकार सुखको बढ़ानेवाला होता है। किंतु वही उपकार यदि दुष्ट व्यक्तियोंके साथ किया जाय तो वह हानिकारक होता है ॥ ४४-४५ ॥

हे नृसिंह ! यदि आप शिवजीको अजन्मा नहीं मानते हैं, तो निश्चय ही आप अज्ञानी, महागर्वी एवं दोषोंसे परिपूर्ण हैं ॥ ४६ ॥ हे नृसिंह ! आप न स्रष्टा हैं, न भर्ता हैं और न संहारकर्ता ही हैं, आप किसी भी प्रकार स्वतन्त्र नहीं हैं, आप परतन्त्र एवं विमूढ चित्तवाले हैं ॥ ४७ ॥ हे हरे! आप महादेवकी शक्तिसे ही कुलालचक्रकी भाँति प्रेरित हैं और सदा उन्हींके अधीन रहकर अनेक अवतार धारण करते हैं ॥ ४८ ॥ [हे हरे!] कूर्मावतारके समय [ बारम्बार मन्दराचलके द्वारा घर्षित होनेसे ] झुलसे हुए कपालको किसीने धारण नहीं किया । तुम्हारेद्वारा त्यागा गया वह कपाल आज भी शिवजीकी हारलता (मुण्डमाला) – में विद्यमान है ॥ ४९ ॥ उनके अंशमात्रसे उत्पन्न हुए तारकासुरने जो आपका वैरी था, वराहावतारमें तुम्हारे दाँतोंको उखाड़कर जैसी पीड़ा पहुँचायी, पुनः जिन शिवजीकी कृपासे आपके सारे विघ्न दूर हो गये, क्या उन परमात्मा शिवजीको आप भूल गये ! ॥ ५० ॥

विष्वक्सेनावतारमें शिवजीने अपने शूलाग्रसे आपको दग्ध कर दिया था। तेजस्वरूप मैंने दक्षके यज्ञमें आपके पुत्र ब्रह्माका पाँचवाँ सिर काट दिया था, जिसे अबतक कोई जोड़ न सका, हे हरे ! क्या आप उसे भूल गये हैं ? ॥ ५१-५२ ॥ शिवभक्त दधीचिने सिर खुजलानेमात्रसे मरुद्गणोंसहित आपको संग्राममें जीत लिया था, क्या आप उसे भूल गये ? | हे चक्रपाणे! आप जिस चक्रके सहारे अपना पुरुषार्थ प्रकट करते हैं, वह कहाँसे और किसके द्वारा प्राप्त हुआ है, क्या आप उसको भूल गये हैं ? ॥ ५३ – ५४ ॥ मैंने तो सम्पूर्ण लोकोंको धारण कर रखा है और तुम क्षीरसागरमें निद्राके परवश होकर सोते रहते हो, ऐसी स्थितिमें तुम सात्त्विक कैसे हो ? ॥ ५५ ॥ आपसे लेकर स्तम्बपर्यन्त शिवजीकी शक्ति फैली हुई है, उसीसे आप सर्वथा शक्तिमान् हैं, अन्यथा आप उनके लिंगाकार तेजमात्रके प्रकट होते ही मोहित हो गये थे। उनके तेजके माहात्म्यको देखनेमें कोई भी पुरुष समर्थ नहीं है। सूक्ष्म बुद्धिवाले लोग ही उन सर्वव्यापीके परम पदको देख पाते हैं ॥ ५६-५७ ॥

आकाश, पृथ्वीका अन्तराल, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, अन्धकारको लील जानेवाले सूर्य एवं चन्द्रमाको उत्पन्नकर वही परमेश्वर उनमें प्रविष्ट हो जाते हैं ॥ ५८ ॥ हे [नृसिंह!] आप ही काल, महाकाल, कालकाल तथा महेश्वर हैं, आप अपनी उग्रकलाके कारण मृत्युके भी मृत्यु हैं ॥ ५९ ॥ वे [ शिवजी ही] स्थिर, अक्षर, वीर, विश्वरक्षक, प्रभु, दुःखोंके नाशकर्ता, भीम, मृग, पक्षी, हिरण्मय हैं और सम्पूर्ण जगत् के शास्ता हैं; आप, ब्रह्मा तथा अन्य कोई नहीं है, केवल शम्भु ही सबके शासक हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६०-६१ ॥ इस प्रकार सब कुछ विचारकर आप अपनी ज्वालाको स्वयं ही शान्त करें, हे नृसिंह! हे अबुध ! आप अपनेको विनष्ट न करें, अन्यथा इसी समय जैसे सूखे वृक्षपर बिजली गिरती है, वैसे ही महाभैरवरूप उन रुद्रका क्रोध मृत्युरूप होकर तुमपर गिरेगा ॥ ६२-६३॥

नन्दी बोले- इतना कहकर शिवकी क्रोधमूर्ति वे वीरभद्र निर्भय होकर नृसिंहका अभिप्राय जानकर मौन हो गये॥ ६४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें शरभावतार- वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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