शिवमहापुराण – शतरुद्रसंहिता – अध्याय 18
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
अठारहवाँ अध्याय
शिवजीके एकादश रुद्रावतारोंका वर्णन

नन्दीश्वर बोले – [ हे सनत्कुमार!] अब शिवजीके उत्तम ग्यारह अवतारोंको सुनिये, जिन्हें सुनकर मनुष्यको असत्य आदिसे उत्पन्न होनेवाला पाप पीड़ित नहीं करता है ॥ १ ॥ पूर्वकालकी बात है, दैत्योंसे पराजित होकर इन्द्र आदि देवता भयसे अपनी अमरावतीपुरी छोड़कर भाग गये थे। दैत्योंसे पीड़ित वे देवता कश्यपके समीप गये और अत्यन्त विनम्रताके साथ हाथ जोड़कर व्याकुलचित्त हो उन्हें प्रणाम किया ॥ २-३ ॥ भलीभाँति उनकी स्तुति करके सभी देवताओंने आदरपूर्वक प्रार्थनाकर अपने पराजयजन्य दुःखको निवेदन किया। हे तात! उसके बाद शिवमें आसक्त मनवाले उनके पिता कश्यप देवताओंका दुःख सुनकर कुछ दुखी तो हुए, पर अधिक नहीं; [ क्योंकि उनकी बुद्धि शिवमें निरत थी] ॥ ४-५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


हे मुने! शान्त बुद्धिवाले उन मुनिने देवताओंको आश्वस्त करके तथा धैर्य धारण करके अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक विश्वेश्वरपुरी काशीकी ओर प्रस्थान किया ॥ ६ ॥ वहाँ गंगाके जलमें स्नान करके श्रद्धासे नित्यक्रियाकर उन्होंने पार्वतीसहित सर्वेश्वर प्रभु विश्वेश्वरका पूजन किया और देवगणोंके कल्याणकी कामनासे शिवकी प्रसन्नताहेतु श्रद्धायुक्त हो लिंगकी स्थापनाकर कठोर तप करने लगे ॥ ७-८ ॥ हे मुने! इस प्रकार शिवके चरणकमलोंमें आसक्त मनवाले उन धैर्यवान् महर्षिको तप करते हुए बहुत समय बीत गया ॥ ९ ॥ तब सज्जनोंके एकमात्र शरण दीनबन्धु भगवान् शिव अपने चरणकमलोंमें आसक्त मनवाले उन ऋषिको वर देनेके लिये प्रकट हुए ॥ १० ॥ भक्तवत्सल शिवजीने अति प्रसन्न होकर अपने भक्त मुनिश्रेष्ठ कश्यपसे ‘ वर माँगिये’ – ऐसा कहा ॥ ११ ॥ उन महेश्वरको देखकर देवगणके पिता कश्यपने हर्षित हो उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रसन्नचित्त होकर उनकी स्तुति की ॥ १२ ॥

कश्यप उवाच ।
देवदेव महेशान शरणागतवत्सल ।
सर्वेश्वरः परात्मा त्वं ध्यानगम्योद्वयोऽव्ययः ॥ १३ ॥
बलनिग्रह कर्ता त्वं महेश्वर सतां गतिः ।
दीनबन्धुर्दयासिन्धुर्भक्तरक्षणदक्षधीः ॥ १४ ॥
एते सुरास्त्वदीया हि त्वद्भक्ताश्च विशेषतः ।
दैत्यैः पराजिताश्चाथ पाहि तान्दुःखितान् प्रभो ॥ १५ ॥
असमर्थो रमेशोपि दुःखदस्ते मुहुर्मुहुः ।
अतः सुरा मच्छरणा वेदयन्तोऽसुखं च तत् ॥ १६ ॥
तदर्थं देवदेवेश देवदुःखविनाशकः ।
तत्पूरितुं तपोनिष्ठां प्रसन्नार्थं तवासदम् ॥ १७ ॥
शरणं ते प्रपन्नोऽस्मि सर्वथाहं महेश्वर ।
कामं मे पूरय स्वामिन्देवदुःखं विनाशय ॥ १८ ॥
पुत्रदुःखैश्च देवेश दुःखितोऽहं विशेषतः ।
सुखिनं कुरु मामीश सहाय स्त्वन्दिवौकसाम् ॥ १९ ॥
भूत्वा मम सुतो नाथ देवा यक्षाः पराजिताः ।
दैत्यैर्महाबलैश्शम्भो सुरानन्दप्रदो भव ॥ २० ॥
सदैवास्तु महेशान सर्वलेखसहायकः ।
यथा दैत्यकृता बाधा न बाधेत सुरान्प्रभो ॥ २१ ॥

कश्यपजी बोले – हे देवदेव ! हे महेशान! हे शरणागतवत्सल ! आप सर्वेश्वर, परमात्मा, ध्यानगम्य, अद्वितीय तथा अविनाशी हैं ॥ १३ ॥ हे महेश्वर ! आप बलवानोंका निग्रह करनेवाले, सज्जनोंको शरण देनेवाले, दीनबन्धु, दयासागर एवं भक्तोंकी रक्षा करनेमें दक्ष बुद्धिवाले हैं ॥ १४ ॥ ये सभी देवता आपके हैं और विशेषरूपसे आपके भक्त हैं । हे प्रभो ! इस समय ये दैत्योंसे पराजित हो गये हैं, अतः आप इन दुःखियोंकी रक्षा कीजिये ॥ १५ ॥ विष्णु भी असमर्थ हो जानेपर आपको ही बारम्बार कष्ट देते हैं । इसलिये देवता भी [ मानो असहायसे होकर ] अपना दुःख प्रकट करते हुए मेरी शरणमें आये हुए हैं ॥ १६ ॥ हे देवदेवेश! हे देवगणके दुःखका निवारण करनेवाले! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ । [ अतएव देवताओंके] अभीष्टको पूर्ण करनेके लिये काशीपुरीमें आकर आपके लिये तपस्या कर रहा हूँ ॥ १७ ॥

हे महेश्वर ! मैं सब प्रकारसे आपकी शरणमें प्राप्त हुआ हूँ । हे स्वामिन्! मेरी कामनाको पूर्ण कीजिये और देवताओंके दुःखको दूर कीजिये ॥ १८ ॥ हे देवेश ! मैं अपने पुत्रोंके दुःखोंसे विशेषरूपसे दुखी हूँ । हे ईश ! मुझे सुखी कीजिये; आप ही देवताओंके सहायक हैं । हे नाथ! देवता तथा यक्ष महाबली दैत्योंसे पराभवको प्राप्त हुए हैं, अतः हे शम्भो ! आप मेरे पुत्रके रूपमें अवतीर्ण होकर देवताओंको आनन्द प्रदान कीजिये ॥ १९-२० ॥ हे महेश्वर ! हे प्रभो ! जिस प्रकार इन देवताओंको दैत्योंके द्वारा की जानेवाली बाधा पीड़ित न करे, उस प्रकार आप सदा सभी देवताओंके सहायक बनें ॥ २१ ॥

नन्दीश्वर बोले— कश्यपके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सर्वेश्वर हर भगवान् शंकरजी ‘तथास्तु’ कहकर उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २२ ॥ कश्यपजी भी अत्यन्त प्रसन्न होकर शीघ्र अपने स्थानपर चले गये और उन्होंने आदरपूर्वक देवताओंसे समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ २३ ॥ उसके बाद संहर्ता शंकरजीने अपना वचन सत्य करनेके निमित्त ग्यारह रूप धारणकर कश्यपसे उनकी सुरभि नामक पत्नीके गर्भसे अवतार ग्रहण किया ॥ २४ ॥ उस समय महान् उत्सव हुआ और सब कुछ शिवमय हो गया। कश्यपमुनिसहित सभी देवता भी बहुत प्रसन्न हुए ॥ २५ ॥

कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद्, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड तथा भव – ये ग्यारहों रुद्र सुरभिके पुत्र कहे गये हैं । ये सुखके आवासस्थान [रुद्रगण] देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये उत्पन्न हुए थे। वे कश्यपपुत्र रुद्रगण वीर तथा महान् बल एवं पराक्रमवाले थे। इन्होंने संग्राममें देवताओंके सहायक बनकर दैत्योंका संहार कर डाला ॥ २६–२८ ॥ उन रुद्रोंकी कृपासे इन्द्र आदि सभी देवता दैत्योंको जीतकर निर्भय हो गये और स्वस्थचित्त होकर अपना- अपना राजकार्य सँभालने लगे ॥ २९ ॥

आज भी शिवस्वरूप वे सभी महारुद्र देवताओंकी रक्षाके लिये सदा स्वर्गमें विराजमान हैं ॥ ३० ॥ भक्तवत्सल एवं नाना प्रकारकी लीला करनेमें निपुण वे सब ईशानपुरीमें निवास करते हैं तथा वहाँ सदा रमण करते हैं ॥ ३१ ॥ उनके अनुचर करोड़ों रुद्र कहे गये हैं, जो तीनों लोकोंमें विभक्त होकर चारों ओर सर्वत्र स्थित हैं ॥ ३२ ॥ हे तात! इस प्रकार मैंने आपसे शंकरजीके अवतारोंका वर्णन किया; ये एकादश रुद्र सबको सुख प्रदान करनेवाले हैं ॥ ३३ ॥

यह आख्यान निर्मल, सभी पापोंको दूर करनेवाला, धन तथा यश प्रदान करनेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है ॥ ३४ ॥ हे तात! जो सावधान होकर इसको सुनता है अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सब प्रकारका सुख भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ ३५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें एकादशावतार- वर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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