शिवमहापुराण — शतरुद्रसंहिता — अध्याय 29
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
उनतीसवाँ अध्याय
भगवान् शिवके कृष्णदर्शन नामक अवतारकी कथा

नन्दीश्वर बोले— हे सनत्कुमार! अब आप नभगको ज्ञान प्रदान करनेवाले कृष्णदर्शन नामक उत्तम शिवावतारका श्रवण कीजिये ॥ १ ॥

श्राद्धदेवके इक्ष्वाकु आदि जो प्रमुख पुत्र हुए, उनमें नभग नौवें पुत्र थे, उन्हींके पुत्र नाभाग कहे गये हैं ॥ २ ॥ उनके पुत्र अम्बरीष थे। वे विष्णुजीके भक्त हुए, जिनकी ब्राह्मणभक्तिसे दुर्वासाजी उनपर प्रसन्न हुए थे ॥ ३ ॥ हे मुने! अम्बरीषके पितामह जो नभग कहे गये हैं, आप उनका चरित्र सुनिये। जिनको सदाशिवजीने ज्ञान दिया था ॥ ४ ॥ मनुके अति बुद्धिमान् तथा जितेन्द्रिय पुत्र नभग जब पढ़नेके लिये गुरुकुलमें निवास करने लगे, उसी समय मनुके इक्ष्वाकु आदि पुत्रोंने उनको भाग दिये बिना ही अपने— अपने भागोंको क्रमसे विभाजित कर लिया ॥ ५—६ ॥ वे महाबुद्धिमान् और भाग्यवान् पुत्र अपने पिताकी आज्ञासे अपने—अपने भागको लेकर सुखपूर्वक उत्तम राज्यका भोग करने लगे ॥ ७ ॥ उसके बाद ब्रह्मचारी नभग क्रमसे सांगोपांग सभी वेदोंका अध्ययन करके गुरुकुलसे वहाँ लौटे। तब हे मुने! इक्ष्वाकु आदि अपने सभी भाइयोंको राज्य विभक्त किये हुए देखकर अपना भाग प्राप्त करनेकी इच्छासे नभगने उनसे स्नेहपूर्वक कहा — ॥ ८—९ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


नभग बोले— हे भाइयो! आपलोगोंने मेरा हिस्सा बिना दिये ही पिताकी सम्पत्ति जैसे—तैसे आपसमें बाँट ली, अब मैं अपने दायभागके लिये आपलोगोंके पास आया हूँ ॥ १० ॥

उनके भाइयोंने कहा— दायका विभाग करते समय हमलोग तुम्हें भूल गये, अब हमलोगोंने तुम्हारे हिस्सेमें पिताजीको नियत किया है, अत: तुम उन्हींको ग्रहण करो, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ११ ॥

भाइयोंकी वह बात सुनकर नभग अत्यन्त विस्मित हो गये और अपने पिताके पास आकर कहने लगे ॥ १२ ॥

नभग बोले— हे तात! जब मैं ब्रह्मचारी होकर गुरुकुलमें पढ़नेके लिये चला गया था, तभी उन सभी भाइयोंने मुझे छोड़कर सारा राज्य बाँट लिया ॥ १३ ॥ वहाँसे लौटकर जब मैं अपने हिस्सेके लिये उनसे आदरपूर्वक पूछने लगा । तो उन्होंने आपको ही मेरे भागके रूपमें दिया, इसलिये मैं [ आपके पास ] आया हूँ ॥ १४ ॥

नन्दीश्वर बोले — हे मुने ! उनका वचन सुनकर विस्मित हुए पिता श्राद्धदेवने सत्यधर्ममें निरत अपने पुत्रको धीरज बँधाते हुए कहा— ॥ १५ ॥

मनु बोले — हे तात! तुम भाइयोंकी बातमें विश्वास मत करो। उनका यह वचन तुम्हें धोखा देनेके लिये है । मैं तुम्हारे भोगका साधनभूत परम दाय नहीं हूँ ॥ १६ ॥ किंतु उन धोखेबाजोंने तुम्हारे लिये मुझे दायभागके रूपमें दिया है, अत: मैं तुम्हारे जीवन—निर्वाहका ठीक— ठीक उपाय बताता हूँ, तुम श्रवण करो ॥ १७ ॥ इस समय आंगिरसगोत्रीय विद्वान् ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं, उस यज्ञमें वे अपने छठे दिनके कर्ममें भूल कर जाते हैं ॥ १८ ॥ अतः हे नभग ! हे महाकवे ! तुम वहाँ जाओ और जाकर विश्वेदेवसम्बन्धी दो सूक्तोंको उन्हें बतलाओ, जिससे वह यज्ञ शुद्ध हो सके ॥ १९ ॥ उस यज्ञकर्मके समाप्त हो जानेपर जब वे ब्राह्मण स्वर्ग जाने लगेंगे तो वे प्रसन्न होकर यज्ञसे बचा हुआ धन तुम्हें दे देंगे ॥ २० ॥

नन्दीश्वर बोले— पिताकी यह बात सुनकर सत्य बोलनेवाले नभग बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ गये, जहाँ वह उत्तम यज्ञ हो रहा था और हे मुने ! उस दिनके यज्ञकर्ममें उन परम बुद्धिमान् नभगने विश्वेदेवके दोनों सूक्तोंको स्पष्ट रूपसे कहा ॥ २१—२२ ॥ यज्ञकर्मके समाप्त हो जानेपर वे आंगिरस विप्र यज्ञसे बचा हुआ सारा धन उन्हें देकर स्वर्ग चले गये ॥ २३ ॥ उस श्रेष्ठ यज्ञके शेष धनको ज्यों ही नभगने लेना चाहा, उसी समय यह जानकर उत्तम लीला करनेवाले शिवजी शीघ्र ही प्रकट हो गये । वे कृष्णदर्शन शिवजी सर्वांगसुन्दर तथा श्रीमान् थे । यज्ञशेष धन किसका भाग होता है—
— इस बातकी परीक्षा करनेके लिये तथा नभगको भाग और उत्तम ज्ञान देनेके लिये वे प्रकट हुए थे ॥ २४—२५ ॥ इसके बाद परीक्षा करनेवाले ऐश्वर्यशाली उन कल्याणकारी शंकरने उन मनुपुत्र नभगके पास उत्तरकी ओरसे जाकर [उनका अभिप्राय जाननेके लिये] उनसे कहा—॥ २६ ॥

ईश्वर बोले — हे पुरुष ! तुम कौन हो ? तुम्हें यहाँ किसने भेजा है ? यह यज्ञमण्डपसम्बन्धी धन तो मेरा है, तुम इसे क्यों ग्रहण करते हो, मेरे सामने सत्य — सत्य बताओ ॥ २७ ॥

नन्दीश्वर बोले— हे तात! मनुपुत्र कवि नभगने उनका वचन सुनकर अत्यन्त विनम्र होकर उन कृष्णदर्शन पुरुषसे कहा— ॥ २८ ॥

नभग बोले— यज्ञसे ( अवशिष्ट) प्राप्त हुए इस धनको ऋषियोंने मुझे दिया है । हे कृष्णदर्शन ! तब आप इसे लेनेसे मुझे क्यों मना करते हैं ? ॥ २९ ॥

नन्दीश्वर बोले— नभगद्वारा कहे गये सत्य वचनको सुनकर प्रसन्नचित्त कृष्णदर्शन पुरुषने कहा —॥ ३० ॥

कृष्णदर्शन बोला— हे तात! हम दोनोंके इस विवादमें तुम्हारे पिता प्रमाण हैं, जाओ और उनसे पूछो, वे जो कुछ भी कहेंगे, वही सत्यरूपमें प्रमाण होगा ॥ ३१ ॥

नन्दीश्वर बोले — हे मुने! उनका यह वचन सुनकर मनुपुत्र कवि नभग अपने पिताके पास आये और प्रसन्नतासे उनके द्वारा कही गयी बातके विषयमें पूछने लगे ॥ ३२ ॥ तब उन श्राद्धदेव मनुने पुत्रकी बात सुनकर शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण किया और वस्तु— स्थितिको समझकर उससे कहा— ॥ ३३ ॥

मनु बोले — हे तात! मेरी बात सुनो, वे कृष्णदर्शन पुरुष साक्षात् शिव हैं । सब वस्तु उन्हींकी है और विशेषकर यज्ञसे प्राप्त वस्तु उन्हींकी है । यज्ञसे बचा हुआ भाग रुद्रभाग कहा गया है। उनकी प्रेरणा से कहीं— कहीं बुद्धिमान् लोग ऐसा कहा करते हैं ॥ ३४—३५ ॥ वे देव ईश्वर ही यज्ञसे बची हुई सारी वस्तुके अधिकारी हैं, इसमें सन्देह नहीं है । उन विभुकी इच्छाके परे है ही क्या ! ॥ ३६ ॥ नभग ! तुम्हारे ऊपर कृपा करनेके लिये ही वे प्रभु उस रूपमें आये हुए हैं, तुम वहाँ जाओ और अपने सत्यसे उन्हें प्रसन्न करो, अपने अपराधके लिये क्षमा माँगो और भलीभाँति प्रणाम करके उनकी स्तुति करो । वे शिव ही सर्वप्रभु, यज्ञके स्वामी एवं अखिलेश्वर हैं । हे तात! ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता, सिद्धगण एवं सभी ऋषि भी उनके अनुग्रहसे सभी कर्मोंको करनेमें समर्थ होते हैं। हे पुत्रश्रेष्ठ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, तुम वहाँ शीघ्र जाओ, विलम्ब मत करो और सर्वेश्वर महादेवको सब प्रकारसे प्रसन्न करो ॥ ३७—४० ॥

नन्दीश्वर बोले— इतना कहकर श्राद्धदेव मनुने पुत्रको शीघ्र ही शिवजीके समीप भेजा । वे महाबुद्धिमान् नभग भी शिवजीके पास शीघ्र जाकर हाथ जोड़कर सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके अति प्रसन्नचित्त होकर विनयपूर्वक कहने लगे — ॥ ४१—४२ ॥

नभग बोले— हे ईश ! इन तीनों लोकोंमें जो भी वस्तु है, सब आपकी ही वस्तु है, फिर यज्ञशेष वस्तुके विषयमें कहना ही क्या — ऐसा मेरे पिताने कहा है ॥ ४३ ॥ नाथ! मैंने अज्ञानवश भ्रमसे जो वचन कहा है, मेरे उस अपराधको आप क्षमा करें, मैं सिर झुकाकर आपको प्रसन्न करता हूँ ॥ ४४ ॥

ऐसा कहकर वे नभग अत्यन्त दीनबुद्धि होकर हाथ जोड़कर विनम्र हो उन कृष्णदर्शन महेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ ४५ ॥ शुद्धात्मा महाबुद्धिमान् श्राद्धदेव भी अपने अपराधके लिये क्षमायाचना करते हुए विनम्र हो हाथ जोड़कर उन शिवजीको नमस्कार करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४६ ॥ [ हे मुने!] इसी बीच ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि देवता, सिद्ध एवं मुनिगण भी वहाँ आ गये और महोत्सव करते हुए वे सब भक्तिसे हाथ जोड़कर पृथक्—पृथक् भलीभाँति प्रणामकर विनम्र हो उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४७—४८ ॥ इसके बाद कृष्णदर्शनरूपधारी सदाशिवने उन [देवताओं तथा मुनियों]—को कृपादृष्टिसे देखकर प्रेमपूर्वक हँसते हुए नभगसे कहा—॥ ४९ ॥

कृष्णदर्शन बोले— तुम्हारे पिताने जो धर्मयुक्त वचन कहा है, बात भी वैसी ही है और तुमने भी सारी बात सत्य — सत्य कही, इसलिये तुम साधु हो, इसमें संशय नहीं है। अतः मैं तुम्हारे इस सत्य आचरणसे सर्वथा प्रसन्न हूँ और कृपापूर्वक तुम्हें सनातन ब्रह्मका उपदेश करता हूँ ॥ ५०—५१ ॥ नभग! तुम [यज्ञकर्ता] ब्राह्मणोंसहित शीघ्र ही महाज्ञानी हो जाओ, अब मेरे द्वारा प्रदत्त इस समस्त [ यज्ञशेष ] सामग्रीको तुम मेरी कृपासे ग्रहण करो ॥ ५२ ॥ हे महामते! तुम निर्विकार होकर इस संसारमें सभी प्रकारका सुख भोगो, मेरी कृपासे तुम [ यज्ञकर्ता] ब्राह्मणोंके सहित सद्गति प्राप्त करोगे ॥ ५३ ॥

नन्दीश्वर बोले— हे तात! सत्यसे प्रेम करनेवाले वे भगवान् रुद्र ऐसा कहकर उन सबके देखते—देखते वहींपर अन्तर्धान हो गये ॥ ५४ ॥ हे मुनिसत्तम ! ब्रह्मा, विष्णु आदि वे समस्त देवगण आनन्दसे उस दिशाको नमस्कारकर प्रसन्नतापूर्वक अपने— अपने धामको चले गये ॥ ५५ ॥ अपने पुत्र नभगको साथ लेकर श्राद्धदेव भी प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये और वहाँ अनेक सुखोंको भोगकर अन्तमें वे शिवलोकको चले गये ॥ ५६ ॥

हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने नभगको आनन्द देनेवाले कृष्णदर्शन नामक शिवावतारका वर्णन आपसे किया ॥५७॥ यह पवित्र आख्यान सज्जनोंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करता है, पढ़ने और सुननेवालोंको भी यह समस्त कामनाओंका फल प्रदान करता है ॥ ५८ ॥ जो बुद्धिमान् प्रात:काल तथा सायंकाल इस चरित्रका स्मरण करता है, वह कवि तथा मन्त्रवेत्ता हो जाता है और अन्तमें परमगति प्राप्त करता है ॥ ५९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहितामें नन्दीश्वर — सनत्कुमार—संवादमें कृष्णदर्शन शिवावतारवर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥

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