शिवमहापुराण — शतरुद्रसंहिता — अध्याय 39
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
शतरुद्रसंहिता
उनतालीसवाँ अध्याय
मूक नामक दैत्यके वधका वर्णन

नन्दीश्वर बोले— इस प्रकार व्यासजीने जैसा कहा था, उसी प्रकार अर्जुन विधिवत् स्नान, न्यासादि करके उत्तम भक्तिसे शिवका ध्यान करने लगे ॥ १ ॥ वे एक श्रेष्ठ मुनिके समान एक पैर के तलवेपर स्थित होकर अपनी एकाग्र दृष्टि सूर्यमें लगाकर विधिपूर्वक शिवके मन्त्रका जप खड़े—खड़े करने लगे ॥ २ ॥ वे मनसे शिवका स्मरण करते हुए तथा शिवजीके सर्वोत्तम पंचाक्षरमन्त्र का जप करते हुए प्रीतिपूर्वक तप करने लगे ॥ ३ ॥ उनके तपका तेज ऐसा था कि देवता भी आश्चर्यचकित हो गये, फिर वे शिवजीके समीप गये और सावधान होकर कहने लगे— ॥ ४ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


देवता बोले— हे सर्वेश ! एक मनुष्य आपको प्रसन्न करनेके लिये तप कर रहा है । अत: हे प्रभो! यह मनुष्य जो कुछ चाहता है, उसे आप क्यों नहीं दे देते हैं ? ॥ ५ ॥

नन्दीश्वर बोले— तब ऐसा कहकर चिन्ताग्रस्त वे देवगण शिवजीकी अनेक प्रकारसे स्तुति करने लगे। वे उनके चरणोंपर दृष्टि लगाकर वहीं स्थित हो गये ॥ ६ ॥ तब उदारबुद्धिवाले महाप्रभु शिव उनका वचन सुनकर हँस करके प्रसन्नचित्त होकर देवताओंसे यह वचन कहने लगे— ॥ ७ ॥

शिवजी बोले— हे देवताओ ! आप लोगोंकी बात निःसन्देह सत्य है । अब आपलोग अपने—अपने स्थानको जाइये; मैं आपलोगोंका कार्य सर्वथा करूँगा; इसमें संशय नहीं है ॥ ८ ॥

नन्दीश्वर बोले— शिवजीका यह वचन सुनकर देवताओंको पूर्ण विश्वास हो गया और वहाँसे लौटकर वे अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ९ ॥ हे विप्रेन्द्र ! इसी बीच दुरात्मा तथा मायावी दुर्योधनके द्वारा अर्जुनके प्रति भेजा गया मूक नामक दैत्य शूकरका रूप धारणकर वहाँ आया, जहाँ अर्जुन स्थित थे। वह पर्वतोंके शिखरोंको तोड़ता हुआ, अनेक वृक्षोंको उखाड़ता हुआ तथा विविध प्रकारके शब्द करता हुआ बड़े वेगसे उसी मार्गसे जा रहा था ॥ १० — १२ ॥ उस समय अर्जुन भी मूक नामक दैत्यको देखकर शिवके चरणकमलोंका स्मरणकर [ अपने मनमें] विचार करने लगे ॥ १३ ॥

अर्जुन बोले— यह कौन है ? कहाँसे आ रहा है ? यह तो बड़ा क्रूर कर्म करनेवाला दिखायी दे रहा है ! निश्चय ही यह मेरा अनिष्ट करनेके लिये मेरी ओर आ रहा है ॥ १४ ॥ मेरे मनमें तो यह आ रहा है कि यह शत्रु ही है; इसमें सन्देह नहीं है। मैंने इससे पूर्व अनेक दैत्य— दानवोंका संहार किया है। उन्हींका कोई सम्बन्धी अपना वैर साधनेके लिये [मेरी ओर] आ रहा है अथवा यह दुर्योधनका कोई हितकारी मित्र है ॥ १५—१६ ॥

यस्मिन्दृष्टे प्रसीदेत्स्वं मनः स हितकृद्ध्रुवम् ।
यस्मिन्दृष्टे तदेव स्यादाकुलं शत्रुरेव सः ॥ १७ ॥
आचारः कुलमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ।
वचनं श्रुतमाख्याति स्नेहमाख्याति लोचनम् ॥ १८ ॥
आकारेण तथा गत्या चेष्टया भाषितैरपि ।
नेत्रवक्त्रविकाराभ्यां ज्ञायतेऽन्तर्हितं मनः ॥ १९ ॥
उज्ज्वलं सरसञ्चैव वक्रमारक्त कन्तथा ।
नेत्रं चतुर्विधं प्रोक्तं तस्य भावं पृथग्बुधाः ॥ २० ॥
उज्ज्वलं मित्रसंयोगे सरसम्पुत्रदर्शने ।
वक्रं च कामिनीयोगे आरक्तं शत्रुदर्शने ॥ २१ ॥
अस्मिन्मम तु सर्वाणि कलुषानीन्द्रियाणि च ।
अयं शत्रुर्भवेदेव मारणीयो न संशयः ॥ २२ ॥

जिसके देखनेसे अपना मन प्रसन्न हो, वह निश्चय ही हितैषी होता है और जिसके देखनेसे मनमें व्याकुलता उत्पन्न हो, वह अवश्य ही शत्रु होता है । सदाचारसे कुलका, शरीरसे भोजनका, वचनके द्वारा शास्त्रज्ञानका तथा नेत्रके द्वारा स्नेहका पता लग जाता है ॥ १७—१८ ॥ आकार, गति, चेष्टा, सम्भाषण एवं नेत्र तथा मुखके विकारसे मनुष्यके अन्तःकरणकी बात ज्ञात हो जाती है। उज्ज्वल, सरस, टेढ़ा और लाल—ये चार प्रकारके नेत्र कहे गये हैं; विद्वानोंने उनका पृथक्—पृथक् भाव बताया है ॥ १९—२० ॥ मित्रके मिलनेपर उज्ज्वल, पुत्रको देखनेपर सरस, स्त्रीके मिलनेपर वक्र तथा शत्रुके देखनेपर नेत्र लाल हो जाते हैं। किंतु इसे देखनेपर तो मेरी सारी इन्द्रियाँ कलुषित हो गयी हैं । अतः यह अवश्य ही मेरा शत्रु है, इसका वध कर देना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २१—२२ ॥

मेरे गुरुका यह कथन भी है — हे राजन् ! तुम दुःख देनेवालेका सर्वथा वध कर देना, इसमें विचार नहीं करना चाहिये। निस्सन्देह इसीलिये तो ये आयुध भी हैं । इस प्रकार विचारकर अर्जुन [धनुषपर] बाण चढ़ाकर खड़े हो गये ॥ २३—२४ ॥

इसी बीच अर्जुनकी रक्षाके लिये एवं उनकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणोंके सहित अत्यन्त अद्भुत सुशिक्षित भीलका रूप धारणकर उस दैत्यका विनाश करनेके लिये शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे। कच्छ (लाँग—काछ) लगाये हुए, लताओंसे अपने केशोंको बाँधे हुए, शरीरपर श्वेत वर्णकी रेखा अंकित किये हुए, धनुष—बाण धारण किये हुए तथा पीठपर बाणोंका तरकस धारण किये हुए वे गणों सहित वहाँ गये । वे शिवजी भीलराज बने हुए थे ॥ २५—२८ ॥ वे शिवजी भील सेनाके अधिपति होकर कोलाहल करते हुए निकले, उसी समय शूकरके गरजने की ध्वनि दसों दिशाओंमें सुनायी पड़ी ॥ २९ ॥

तब उस वनचारी शूकरके [ घोर घर्घर] शब्दसे अर्जुन व्याकुल हो गये, साथ ही जो पर्वत आदि थे, वे सभी उन शब्दोंसे व्याकुल हो उठे ॥ ३० ॥ अहो ! यह क्या है ? कहीं ये कल्याणकारी शिवजी ही तो नहीं हैं, जो यहाँ पधारे हैं; क्योंकि मैंने ऐसा पूर्वमें सुना था, श्रीकृष्णने भी मुझसे कहा था, व्यासजीने भी ऐसा ही कहा था और देवगणोंने भी स्मरणकर यही बात कही थी कि शिवजी ही सभी प्रकारका मंगल करनेवाले तथा सुख देनेवाले कहे गये हैं ॥ ३१—३२ ॥ वे मुक्ति देनेके कारण मुक्तिदाता कहे गये हैं; इसमें सन्देह नहीं है। उनके नामस्मरणमात्रसे निश्चितरूपसे मनुष्योंका कल्याण होता है । सब प्रकारसे इनका भजन करनेवालोंको स्वप्नमें भी दुःख नहीं होता है । यदि कभी होता है, तो उसे कर्मजन्य समझना चाहिये ॥ ३३—३४ ॥

[ शिवजीके अनुग्रहसे तो ] प्रबल होनहार भी अवश्य कम हो जाता है — ऐसा जानना चाहिये; इसमें सन्देह नहीं है अथवा विशेषरूपसे प्रारब्धका दोष समझना चाहिये और शिवजी स्वयं अपनी इच्छासे कभी बहुत अथवा कम उस भोगको भुगताकर उस दुर्भाग्यका निवारण करते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ३५—३६ ॥ वे विषको अमृत एवं अमृतको विष बना देते हैं । वे समर्थ हैं, जैसा चाहते हैं, वैसा करते हैं, भला ! उन सर्वसमर्थको कौन मना कर सकता है ? अन्य पुरातन भक्तोंके द्वारा इस प्रकार विचार किये जानेके कारण भावी भक्तोंको भी सदा शिवजीमें अपना मन स्थिर रखना चाहिये ॥ ३७—३८ ॥

लक्ष्मी रहे या चली जाय, मृत्यु भले ही सन्निकट और समक्ष खड़ी हो, लोग निन्दा करें अथवा स्तुति करें, [दुःख बना रहे या] दुःखनाश हो जाय [यह इष्ट— अनिष्टात्मक द्वन्द्व तो] पुण्य तथा पापके कारण उत्पन्न होता है, [ इसमें शिव निमित्त नहीं हैं ] वे तो सर्वदा अपने भक्तोंको सुख ही देते हैं । कभी—कभी वे अपने भक्तोंकी । परीक्षा करनेके लिये उनको दुःख भी देते हैं; किंतु दयालु होनेके कारण वे अन्तमें सुख देनेवाले ही होते हैं । जैसे सुवर्ण अग्निमें तपानेपर शुद्ध होता है, उसी प्रकार भक्त भी तपानेसे निखरते हैं ॥ ३९—४१ ॥ पूर्वकालमें मैंने मुनियोंके मुखसे ऐसा ही सुना है, इसलिये मैं उनके भजनसे ही उत्तम सुख प्राप्त करूँगा, जबतक अर्जुन इस प्रकारका विचार कर ही रहे थे, तबतक शरसन्धानका लक्ष्य वह शूकर वहाँ आ पहुँचा। उधर, [भीलवेषधारी ] शिवजी भी शूकरका पीछा करते हुए आ पहुँचे। उस समय उन दोनोंके बीचमें वह शूकर अद्भुत शिखरके समान दिखायी पड़ रहा था ॥ ४२—४४ ॥

अर्जुनने शिवका माहात्म्य कहा था, इसलिये भक्तवत्सल शिव उनकी रक्षा करनेके लिये वहाँ पहुँच गये ॥ ४५ ॥ इसी समय उन दोनोंने बाण चलाया; शिवजीका बाण शूकरकी पूँछमें तथा अर्जुनका बाण मुखमें लगा । शिवजीका बाण पूँछमें घुसकर मुखसे निकलकर शीघ्र ही पृथ्वीमें विलीन गया और अर्जुनका बाण [ मुखमें प्रविष्ट होकर ] पूँछसे निकलकर पार्श्वभागमें गिर पड़ा । वह शूकररूप दैत्य उसी क्षण मरकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ४६—४८ ॥

देवता परम हर्षित हो गये और पुष्पवृष्टि करने लगे। उन्होंने बार—बार प्रणामकर जय—जयकार करते हुए शिवजीकी स्तुति की ॥ ४९ ॥ उस दैत्यके क्रूर रूपको देखकर शिवजी प्रसन्नचित्त हो गये और अर्जुनको भी सुख प्राप्त हुआ । तब अर्जुनने विशेषरूपसे प्रसन्न मनसे कहा— अरे, यह महादैत्य अत्यन्त अद्भुत रूप धारणकर मेरे वधके लिये आया था, किंतु शिवजीने मेरी रक्षा की । शिवजीने ही आज मुझे बुद्धि प्रदान की; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५०—५२ ॥ ऐसा विचारकर अर्जुनने ‘शिव—शिव’ कहकर उनका यशोगान किया और उन्हें प्रणाम किया तथा बार—बार उनकी स्तुति की ॥ ५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत तृतीय शतरुद्रसंहिताके किरातावतारवर्णनमें मूकदैत्यवध नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥

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