March 23, 2025 | aspundir | Leave a comment शिवसंकल्पसूक्त (कल्याणसूक्त ) मनुष्य शरीर में प्रत्येक इन्द्रिय का अपना विशिष्ट महत्त्व है, परंतु मन का महत्त्व सर्वोपरि है; क्योंकि मन सभी को नियन्त्रित करने वाला, विलक्षण शक्तिसम्पन्न तथा सर्वाधिक प्रभावशाली है। इसकी गति सर्वत्र है, सभी कर्मेन्द्रियाँ – ज्ञानेन्द्रियाँ, सुख-दुःख मन के ही अधीन हैं। स्पष्ट है कि व्यक्ति का अभ्युदय मन के शुभ संकल्पयुक्त होने पर निर्भर करता है, यही प्रार्थना मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने इस सूक्त में व्यक्त की है। यह सूक्त शुक्लयजुर्वेद के ३४वें अध्याय में पठित है। इसमें छः मन्त्र हैं। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १ ॥ येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः । यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २ ॥ यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु । यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३ ॥ जो जागते हुए पुरुष का [मन] दूर चला जाता है और सोते हुए पुरुष का वैसे ही निकट आ जाता है, जो परमात्मा के साक्षात्कार का प्रधान साधन है; जो भूत, भविष्य, वर्तमान, संनिकृष्ट एवं व्यवहित पदार्थों का एकमात्र ज्ञाता है तथा जो विषयों का ज्ञान प्राप्त करने वाले श्रोत्र आदि इन्द्रियों का एकमात्र प्रकाशक और प्रवर्तक है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो ॥ १ ॥ कर्मनिष्ठ एवं धीर विद्वान् जिसके द्वारा यज्ञिय पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके यज्ञ में कर्मों का विस्तार करते हैं, जो इन्द्रियों का पूर्वज अथवा आत्मस्वरूप है, जो पूज्य है और समस्त प्रजा के हृदय में निवास करता है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो ॥ २ ॥ जो विशेष प्रकार के ज्ञान का कारण है, जो सामान्य ज्ञान का कारण है, जो धैर्यरूप है, जो समस्त प्रजा के हृदय में रहकर उनकी समस्त इन्द्रियों को प्रकाशित करता है, जो स्थूल शरीर की मृत्यु होने पर भी अमर रहता है और जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो ॥ ३ ॥ येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम् । येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ४ ॥ यस्मिन्नृचः साम यजू&षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः । यस्मिंश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५ ॥ सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव । हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६ ॥ [ शुक्लयजुर्वेद अ० ३४] जिस अमृतस्वरूप मन के द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यत्सम्बन्धी सभी वस्तुएँ ग्रहण की जाती हैं तथा जिसके द्वारा सात होता वाला अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न होता है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो ॥ ४ ॥ जिस मन में रथचक्र की नाभिमें अरों के समान ऋग्वेद और सामवेद प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें यजुर्वेद प्रतिष्ठित है, जिसमें प्रजा का सब पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाला सम्पूर्ण ज्ञान ओतप्रोत है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से युक्त हो ॥ ५ ॥ श्रेष्ठ सारथि जैसे घोड़ों का संचालन और रास के द्वारा घोड़ों का नियन्त्रण करता हैं, वैसे ही जो प्राणियों का संचालन तथा नियन्त्रण करने वाला है, जो हृदय में रहता हैं, जो कभी बूढ़ा नहीं होता और जो अत्यन्त वेगवान् है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्प से “युक्त हो ॥ ६ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe