October 6, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-042 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ बयालीसवाँ अध्याय दैत्य दुरासद द्वारा पुनः विनायक से युद्ध, विनायक द्वारा अपने तेज से छप्पन विनायकों को प्रकट करना, विनायकों द्वारा सम्पूर्ण सेना के मारे जाने पर दुरासद द्वारा भगवान् शंकर से प्राप्त वरदान का स्मरण करना, विनायक द्वारा योगबल से विराट् रूप धारणकर एक पैर काशी में तथा दूसरा पैर दुरासद के सिर पर रखकर उसे काशी के द्वार के रूप में काशी में प्रतिष्ठित करना और स्वयं भी ‘एकपाद विनायक’ के नाम से काशी में स्थित होना अथः द्विचत्वारिंशोऽध्यायः बालचरिते काशीस्थ षटपञ्चाशत् विनायकाः गृत्समद बोले — उन वक्रतुण्ड भगवान् गजानन के पराक्रम को जानकर धैर्य धारणकर वह दैत्यराज दुरासद अस्त्रोंको लेकर पुनः युद्ध के लिये आया ॥ १ ॥ भगवान् शिव का स्मरण करके तथा बड़े ही आदरपूर्वक अग्निदेव के मन्त्र का उच्चारणकर और उस मन्त्र से बाण को अभिमन्त्रित करके उसने विनायक पर वह आग्नेयास्त्र छोड़ा ॥ २ ॥ प्रज्वलित अग्नि की उस ज्वाला से भयभीत होकर सभी देवता देव विनायक के पीछे छिप गये । तब सर्वज्ञ विनायक ने पर्जन्यास्त्र को छोड़ा ॥ ३ ॥ उस पर्जन्यास्त्र के द्वारा क्षणभर में हाथी की सूँड़ के समान मोटी जल की धारा प्रवाहित हो गयी। फलतः वह अग्नि क्षणभर में शान्त हो गयी । यह देखकर वह दैत्य दुरासद अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा ॥ ४ ॥ तब उसने जलवृष्टि को रोकने के लिये अत्यन्त वेगशाली मारुतास्त्र को छोड़ा। उस वेगयुक्त वायु के कारण पृथ्वी कम्पायमान हो उठी। वृक्ष तथा पर्वत भूमि पर गिरने लगे ॥ ५ ॥ उस मारुतास्त्र के प्रभाव से महामेघ भी आधे क्षण में विनष्ट हो गये। तब विनायकदेव ने अपने मनोबल से पर्वतास्त्र को प्रकट किया। सर्वत्र पर्वत-ही-पर्वत हो गये, जिससे उस मारुतास्त्र की गति कुण्ठित हो गयी । मारुतास्त्र के विलीन हो जाने पर उस दुरासद ने रौद्रास्त्र को उत्पन्न किया ॥ ६-७ ॥ उस रौद्रास्त्र के छोड़े जाने पर वक्रतुण्ड गणेशजी ने भी उसको निवारित करने के लिये ब्रह्मास्त्र को प्रकट किया। उससे दुरासद की सेना भस्म हो गयी ॥ ८ ॥ वे दोनों अस्त्र — रौद्रास्त्र और ब्रह्मास्त्र बहुत दिनों तक परस्पर युद्ध करते रहे। उनके परस्पर संघात से उत्पन्न अग्नि पृथ्वी पर गिरने लगी ॥ ९ ॥ [हे शुभे ! ] उस अग्नि से लोगों को जलता हुआ जानकर ब्रह्मा तथा शिवजी ने उन दोनों अस्त्रों को रोका। तब वह दैत्य विनायक को अपने से अधिक उत्कृष्ट पराक्रमी जानकर अपने अमात्यों से बोला — ॥ १० ॥ आप सभी लोग उस विनायक से युद्ध करें, मैं भोजन करके पुनः युद्ध करूँगा। तब सभी सैनिकोंसहित अमात्यगण उन विनायक से युद्ध करने लगे ॥ ११ ॥ उस समय विनायक अकेले होने के कारण चिन्तित हो गये। तब उन्होंने अपने तेज से छप्पन विनायकमूर्तियों को प्रकट किया। वे सभी विनायक विविध प्रकार के अलंकारों से समन्वित थे, विविध प्रकार की मालाओं से सुशोभित थे। उन सभी ने दिव्य बाजूबन्द धारण कर रखे थे और सभी चन्द्रमा को अपने मस्तक पर आभूषण के रूप में धारण किये हुए थे ॥ १२-१३ ॥ उनमें कोई चार भुजावाले थे, कोई छः भुजावाले और कोई दस भुजावाले थे। कोई सिंह के ऊपर विराजमान थे, कोई मयूर के ऊपर आरूढ़ थे, तो कोई मूषक पर सवार थे। वे सभी शत्रुओं के सैनिकों को विदारित करते हुए युद्ध करने लगे। उन्होंने कुछ दैत्यों के पाँव तोड़ डाले, तो किसी के मस्तकों को फोड़ डाला ॥ १४-१५ ॥ कुछ के बाहुओं को छिन्न-भिन्न कर डाला और किसी के जानु, जंघा तथा उदरदेश को तोड़-मरोड़ दिया। वे हुंकार करते हुए गरज रहे थे। कुछ दैत्य उनकी शरण में आ गये ॥ १६ ॥ कुछ दैत्य अपने प्राणों की रक्षा करने के लिये वहाँ से भागने लगे। कुछ दैत्य प्रहार करते हुए युद्ध के आमने- सामने मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥ १७ ॥ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए वे स्वर्गलोक में गये और वहाँ विविध भोगों तथा अप्सराओं के साथ आनन्द मनाने लगे। अनेकों घोड़े, रथ, हाथी, खच्चर तथा ऊँट विविध प्रकार के शस्त्रों के द्वारा आहत होने पर शरीर के कट जाने से भूमि पर गिर पड़े और उनके प्राण निकल गये। वहाँ रक्त की नदियाँ प्रवाहित हो चलीं। जो केशरूपी सेवार से सुशोभित हो रही थीं ॥ १८-१९ ॥ छुरी और खड्ग उन रक्तरूपा नदियों के मत्स्य थे, हाथी मगरमच्छ थे तथा ढालें ही कच्छपरूप थीं । दैत्य सैनिकों के धड़ ही कमलरूप थे, सैनिकों की चर्बी ही नदी का फेन और मेद ही कीचड़रूप था ॥ २० ॥ धनुष [उन रक्तसरिताओं के] सर्प थे, हड्डियाँ बगुले थे, कवच एवं युद्ध परिधान बड़े-बड़े मेढक थे और भाले ही [पानी के साथ बहने वाले] काष्ठखण्ड थे। [इन सभी विशेषताओं से युक्त] तथा मनस्वीजनों को हर्षित करने वाली वे [रक्त सरिताएँ] शोभायमान हो रही थीं। भोजन कर लेने के अनन्तर वहाँ आकर उसने जब रणांगण को देखा तो सारी सेना के मारे जाने से वह दैत्य दुरासद अत्यन्त दुखित हो उठा ॥ २१-२२ ॥ उस समय वह शूलपाणि भगवान् शंकर द्वारा वरदान के समय दिये गये उस वचन को याद करने लगा, जिसमें कहा गया था कि शक्ति से उत्पन्न कोई देवता ही तुम पर विजय प्राप्त करेगा। क्या यही बालक शक्ति से उत्पन्न तो नहीं है ? क्योंकि इसमें तीनों लोकों का सारभूत बल दिखायी देता है । काल भी इस पर विजय प्राप्त करने में समर्थ नहीं है, फिर अन्य दूसरे की क्या बात है! ॥ २३-२४१/२ ॥ ऐसा मन में विचारकर वह अकेला पड़ जाने के कारण भाग उठा ॥ २५ ॥ वक्रतुण्ड गणेशजी ने उस समय विचार किया कि भागते हुए शत्रु को मारना नहीं चाहिये। [वैसे तो ] देवताओं के द्वारा भी यह मारे जा सकने योग्य नहीं है, जैसा कि शंकरजी ने कहा है — ॥ २६ ॥ अतः अब मैं अपने योगबल से उत्तम विराट् रूप धारण करूँगा। तब विराट् स्वरूपधारी उन विनायक ने अपने एक हाथ से उस दुरासद को पकड़ लिया ॥ २७ ॥ वे एक पैर से काशी में स्थित हुए ताकि बलपूर्वक उस नगरी की रक्षा कर सकें और दूसरा पैर उन्होंने उस दैत्य के सिर पर रखा। विनायक उस दैत्य से बोले — अरे दैत्य! भगवान् शिव के वरदान के प्रभाव से तुम्हारी मृत्यु नहीं हो रही है, अतः तुम इस काशीनगरी में पर्वत के समान निश्चल होकर रहो ॥ २८-२९ ॥ तुम इस नगरी के द्वार के समान बनकर स्थित रहो, ताकि यहाँ आने वालों की दृष्टि सबसे पहले तुम पर ही पड़े। तुम यहाँ दुष्टजनों को निरन्तर पीड़ा पहुँचाते रहो। तुम्हें मेरी नित्य सन्निधि प्राप्त होगी। उस दैत्य दुरासद ने भी परम भक्तिभावपूर्वक उसी वर की याचना की ॥ ३०१/२ ॥ दैत्य दुरासद बोला — [हे विनायक!] आप इसी प्रकार से मेरे मस्तक पर पैर रखकर सदा स्थित रहें ॥ ३१ ॥ मुनि बोले — उस दैत्य से ‘ऐसा ही होगा’ इस प्रकार कहकर विनायक काशी में स्थित हो गये। इस प्रकार दैत्य दुरासद पर विजय प्राप्त करके देव विनायक ने समस्त जगत् को आनन्दित कर दिया ॥ ३२ ॥ उन वक्रतुण्ड विनायक पर पुष्पों की वर्षा करके उन्हें प्रणाम करके और उनका भलीभाँति पूजन करके सभी देवता अपने-अपने स्थानों को गये और मुनिगण भी अपने-अपने आश्रमों की ओर चले गये ॥ ३३ ॥ अन्य जो-जो भी मनुष्य उन विनायक की पूजा करते हैं, उनकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रकार काशी में विनायकदेव छप्पन मूर्तियों से युक्त विख्यात हुए। वे विनायक अपने विराट् रूप को अन्तर्धान करके तुण्डन नामक पुर में भी ‘एकपाद विनायक’ नाम से स्थित हुए और वहाँ वे सभी की कामनाएँ पूर्ण करते हैं ॥ ३४-३५ ॥ . जो भक्तिमान् पुरुष इस श्रेष्ठ आख्यान का श्रवण करता है, वह अपनी सभी मनोकामनाओं को प्राप्त कर लेता है और अन्त में गणेशजी के धाम को प्राप्त होता है। वह सर्वत्र विजय प्राप्त करता है और पुष्टि तथा आरोग्य प्राप्त करता है ॥ ३६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘दुरासद पर विजय का वर्णन’ नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥ Content is available only for registered users. 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