October 12, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-054 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चौवनवाँ अध्याय काशी में ‘वरदविनायक’ की स्थापना अथः चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः बालचरिते सनकसनन्दनस्तुतिवर्णनं ब्रह्माजी बोले — [ एक दिन विनायकदेव भक्ति के वंशीभूत होकर धनहीन शुक्ल के घर जा पहुँचे और ] उन बालरूप गणपति ने शुक्ल के यहाँ भोजन किया, तदुपरान्त वहीं प्रांगण में खेलते-खेलते क्षणभर में सो गये। इधर [बहुत-से] नगरनिवासी जन, जो कि उन्हें भोजन कराना चाह रहे थे, विनायक को बुलाने के लिये काशिराज के भवन में आये ॥ १-२ ॥ काशिराज ने उन नागरिकों से कहा [कि विनायक तो अभी यहीं खेल रहा था, लगता है] कि वह खेलता- खेलता यहाँ से [कहीं और] चला गया। तब लोग प्रत्येक घर में विनायक को खोजने लगे। तभी कुछ लोगों ने कहा कि वह तो शुक्ल के घर गया हुआ है, तब वे नागरिक उस अकिंचन शुक्ल और विनायकदेव की निन्दा करने लगे ॥ ३-४ ॥ नागरिक जन बोले — जैसे ऊँट कोमल पल्लवों को छोड़कर काँटे चबाता है, वैसे ही यह विनायक वैभवसम्पन्न हम लोगों की उपेक्षा करके उस दरिद्र के घर जा पहुँचा। राजा ने तो उसे व्यर्थ ही ईश्वर मान लिया है; क्योंकि यदि वह बालक ईश्वर होता तो सभी के मन को प्रसन्न रखता ॥ ५-६ ॥ उस बच्चे ने कैसे [उस दरिद्र का] अतिसामान्य और अल्पमात्र भोजन किया होगा, यह सोचकर उन नागरिकों में-से कुछ भले लोग विनायक को ले आने के लिये उद्यत हो गये। वे लोग इधर-उधर भटकने लगे और विनायक का पता पाने के लिये पथिकजनों से पूछने लगे कि क्या [आप लोगों ने] विनायक को कहीं देखा है । विनायक के प्रति भक्तिसम्पन्न वे लोग स्थान-स्थान पर उसके बारे में पूछते हुए भ्रमण कर रहे थे। तब कुछ लोगों ने कहा कि वह कदाचित् शुक्ल के घर गया है ॥ ७–९ ॥ तब वे लोग तत्काल ही शुक्ल के घर जा पहुँचे, वहाँ उन्हें जब ज्ञात हुआ कि विनायकदेव शयन कर रहे हैं तो वे सत्त्वगुणी जन [ यह सोचकर ] मौन भाव से बैठ गये कि जब वे विभु जगेंगे, तब उनसे हम [भोजन के लिये] प्रार्थना करेंगे। उन्हीं लोगों में कुछ रजोगुणी जन भी थे, वे [सोते हुए] विनायक से कहने लगे — ‘अरे ! उठो, भोजन करने के लिये चलो, नहीं तो भोजन बासी हो जायगा ॥ १०-११ ॥ [अरे!] तेरे लिये राजधानी के लोग कोलाहल कर रहे हैं, [और तू यहाँ शान्तिपूर्वक सो रहा है ] । शुक्ल अर्थात् विशुद्ध भिक्षा से जीविकोपार्जन करने वाले इस गरीब शुक्ल को तो स्वयं के लिये भी भिक्षा पूरी नहीं पड़ती और इसके घर कोई पानी तक नहीं पीता । तब तूने कश्यप का पुत्र होकर भी इसके घर का दूषित भोजन कैसे कर लिया?’ इस प्रकार उन विनायक की कुछ लोग तो भाँति-भाँति की बातें कहकर भर्त्सना कर रहे थे और कुछ अन्य लोग उनका स्तवन करने में लगे थे ॥ १२–१४ ॥ मुनि बोले — इस प्रकार उन सभी लोगों की बातें सुनकर कश्यपात्मज गणेशजी [जग गये और ] कहने लगे ॥ १४१/२ ॥ विनायकदेव बोले — [ हे नागरिको!] भक्तिपूर्वक अर्पित किये गये भोजन को मैं इच्छानुरूप ग्रहण कर चुका हूँ, अब तो मुझमें एक पग भी चल पाने की सामर्थ्य नहीं है। मैं पूर्णरूप से तृप्त हूँ, जिसके कारण इस समय तो एक ग्रास भी खाने की मुझे इच्छा नहीं हो रही है ॥ १५-१६ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब [ गणेशजी की] ऐसी निष्ठुरता देखकर वे लोग हतोत्साह हो गये और आपस में वार्तालाप करने लगे कि इस बालक के विषय में क्या किया जाय ? ॥ १७ ॥ जब गणेशजी ने पुरवासियों की विकलता को जाना तो जैसे आकाश एक और अखण्ड होकर भी घटाकाश, मठाकाशादि के भेद से अनेकरूप प्रतीत होता है अथवा जैसे सूर्यविम्ब एक होकर भी विभिन्न जलकुम्भों में अनेक रूपों में प्रतिविम्बित होता है, वैसे ही वे विभु क्षणभर में अनन्त रूपों में प्रकट हो गये और प्रत्येक (नागरिक) – के घर में जाकर अनेकविध बालक्रीडाएँ करने लगे ॥ १८-१९ ॥ वे विनायकदेव कहीं मार्ग की सीढ़ियों में, कहीं झूलों- हिंडोलों में, कहीं शय्या पर तो कहीं महलों में जाकर खेलते और हास-परिहास करते। कहीं घर के बच्चों के साथ बैठकर भोजन करते । कहीं स्वयं शास्त्राध्ययन करते, तो कहीं आप ही पढ़ाने लगते ॥ २०-२१ ॥ काशिराज के साथ उन्हें अपने घर पर आया देख वह गृहस्वामी हर्षित होता और कहता कि आज तो मैं धन्य हो गया। इस प्रकार वे विनायक राजा के साथ सभी के घर गये। कहीं उनका तैल से अभ्यंग (मालिश) किया जाता तो किसी के घर में वे स्वच्छ जल से स्नान कर रहे होते। कहीं पर अत्यन्त आदर से उनके पैर धुले जाते, तो कहीं षोडशोपचार विधि से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा होती ॥ २२-२४ ॥ कहीं वे बालभाव (बालोचित चंचलता) – के कारण जैसे-तैसे परमान्न (पायस, कृसर आदि) ग्रहण करते तो कहीं कस्तूरी, चन्दन आदि नानाविध सुगन्धित द्रव्यों और पुष्पों से पूजित होते । तदुपरान्त उन्हें भाँति-भाँति के नैवेद्य अर्पित किये जाते। जब वे यथेष्ट मात्रा में भोजन करके सो जाते तो घर की महिलाएँ, छोटे बच्चे और सेवक उनकी चरण-संवाहनादि (पैर दबाना, पंखा झलना आदि)- के द्वारा सेवा कर रहे होते ॥ २५-२६१/२ ॥ कहीं वे वेदपारायण करते, तो कहीं गायन कर रहे होते। कहीं वे महापुरुषों और श्रीहरि के चरित्रों को सुना करते, तो कहीं राजा के साथ नृत्यांगनाओं का नृत्य देखते ॥ २७-२८ ॥ कहीं उनका मंगलदीपों से नीराजन किया जाता, तो कहीं वे विभु हाथ में पाश लेकर छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेला करते। कहीं वे पुराणों, धर्मशास्त्रों, स्मृतियों आदि का प्रवचन करते। इस प्रकार से विनायकदेव ने सभी के घरों में भोजनकर सबकी कामनाओं को पूर्ण किया। जिस-जिस व्यक्ति ने जो-जो अभिलाषा की, उसकी वह वह अभिलाषा उन्होंने वैसे ही पूर्ण की, जैसे प्रसन्न हुए भगवान् शिव, सर्वकामप्रदायक कामधेनु, कल्पवृक्ष अथवा चिन्तामणि — ये सभी पूर्ण करते हैं ॥ २९-३११/२ ॥ उस समय [सबकी अभिलाषा पूर्ण करके] उन विनायक ने अपने ‘दीननाथ’ इस नाम को सफल बनाया। [उनके इस अलौकिक चरित से विस्मित हुए] देवताओं ने दुन्दुभी बजायी और घर-घर में फूल बरसाये। इधर वे काशिराज ऐसे विलक्षण चरित को देखकर भ्रमित हो गये और अपने लोगों से कहने लगे ॥ ३२-३३ ॥ ‘यह बालक विनायक तो मेरे ही समीप स्थित है, तब कैसे ये सभी के घरों में जा पहुँचा और सबके द्वारा पूजित हो रहा है ॥ ३४ ॥ यदि यह सभी के घरों में गया तो इस समय इसका यहाँ होना कैसे सम्भव है? मुझे जो भी बुलाने आता है, उससे मैं बार-बार यही कहता हूँ कि विनायक के बिना मैं आपके घर भोजन के लिये कैसे चल सकता हूँ ?’ ॥ ३५१/२ ॥ राजा ने अपने घर में कश्यपपुत्र विनायक के साथ भोजन किया और [ रहस्य जानने के अभिप्राय से] बीच में ही उठकर, भोजन करते विनायक को छोड़कर बाहर जब आकर देखने लगे तो उन्होंने विनायक को बाहर भी बैठा हुआ देखा ॥ ३६१/२ ॥ [राजा ने देखा कि] जहाँ-तहाँ अत्यन्त विस्मित लोग इस बात की चर्चा कर रहे थे कि ‘विभु विनायक ने काशिराज के साथ जाकर अनेक घरों में भोजन किया है!’ उनकी बातें सुनकर हँसते हुए वे काशिराज लोगों से कहने लगे — ‘मेरे बिना विनायक किस प्रकार विभिन्न घरों में भोजन करने चला गया ?’ तदुपरान्त राजा ने दो-तीन घरों में जाकर देखा कि कश्यपपुत्र और वे स्वयं भी प्रत्येक घर में भोजन कर रहे हैं ॥ ३७-३९१/२ ॥ इसी बीच [एक अन्य अद्भुत वृत्तान्त काशी में घटित हुआ-] सनक और सनन्दन ये दोनों मुनिश्रेष्ठ स्नानादि से निवृत्त होकर भोजनार्थ भ्रमण कर रहे थे । उन्होंने देखा कि [सारी काशी में] महान् उल्लास छाया हुआ है और वह सुन्दर [नगरी] विनायकमयी हो गयी है। वे जिस-जिस घर में प्रवेश करते, उन्हें वहाँ-वहाँ विनायक ही दीखते। तब वे [ आश्चर्यचकित से होकर ] बाहर आ जाते ॥ ४०-४२ ॥ कहीं भोजन किये हुए, कहीं सोते हुए, कहीं खेलते हुए, उन मुनियों ने विनायक को कहीं भोजन करते हुए, कहीं जप करते हुए, कहीं पढ़ते हुए तो कहीं पढ़ाते हुए देखा । प्रत्येक स्थान पर ऐसी ही स्थिति को देखकर वे आपस में कहने लगे कि ‘यहाँ तो भोजन के लिये कोई उपयुक्त स्थल दीखता नहीं है, अतः हमलोग शुक्ल के घर चलते हैं, वही आदरपूर्वक हमारा विविध प्रकार से आतिथ्य करेगा’ ॥ ४३–४४१/२ ॥ इस प्रकार से [आपस में] निश्चय करके वे शुक्ल के घर जा पहुँचे तो उनको वहाँ भी कश्यपपुत्र विनायक दिखायी पड़े। तब क्षुधापीड़ित वे लोग मुँह लटकाये हुए नगर से बाहर चले गये । उन्होंने वहाँ भी भगवान् विनायक के परम मनोहर स्वरूप को प्रत्यक्ष देखा ॥ ४५-४६ ॥ यह देख उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये तो उन्हें अन्तःकरण में विनायक दीखने लगे, जब मुनियों ने फिर आँखें खोलीं तो उनको बाहर भी विनायक के ही दर्शन हुए। उन मुनियों ने ऊपर-नीचे, मध्य में तथा दिशाओं – विदिशाओं (ईशान आदि कोणों) – में विनायक को ही देखा ॥ ४७ ॥ तदुपरान्त वे मुनि नेत्र बन्दकर ध्यानमग्न हो गये और कुछ क्षणों के बाद जब उन्होंने नेत्र खोले तो दोनों एक-दूसरे को विनायकरूप में देखने लगे। सनक को सनन्दन और सनन्दन को सनक विनायक के रूप में दीखने लगे। वे जिस-जिस देवता का ध्यान करते, उस-उस देवता के रूप में उनको विनायक का ही दर्शन हुआ ॥ ४८-४९ ॥ तदुपरान्त उन मुनियों के समक्ष सर्वव्यापक, सर्वरूप भगवान् विनायक प्रत्यक्ष प्रकट हो गये। उन मुनियों ने दश भुजाओं से युक्त, सिद्धि और बुद्धिदेवी से समन्वित, सिंह पर आरूढ़, देदीप्यमान मुकुट-कुण्डल एवं बाजूबन्द (आदि अलंकारों)-से विभूषित, दिव्य गन्ध, दिव्य माल्य, नाग, अर्धचन्द्र, कस्तूरी का तिलक और अग्निसदृश कान्तिमय वस्त्रों को धारण किये हुए और दुष्टों के लिये दुस्सह तथा सत्पुरुषों के लिये सौम्य, तेजस्विता से युक्त भगवान् विनायक को देखा ॥ ५०-५२ ॥ तब निर्भ्रान्त हुए तत्त्ववेत्ता परम बुद्धिमान् मुनियों ने उन विनायकदेव को प्रणाम किया और बड़ी ही भक्ति से हाथ जोड़कर उन पंचभूतस्वरूप विभु गणेश का स्तवन करने लगे ॥ ५३१/२ ॥ वे बोले — जो परब्रह्म नित्य, अद्वैत, अद्वय, सनातन, जिसके [ एक-एक ] चराचरात्मा एवं सर्वरूप है और रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड भ्रमण करते रहते हैं। उपनिषद्वाक्य भी जिसका प्रतिपादन कर पाने में समर्थ नहीं होते, उसका स्तवन करना कैसे सम्भव हो सकता है ? हे देव! आपने हमारी मनोकामना जानकर उसे पूर्ण कर दिया ॥ ५४-५६ ॥ बालरूप को धारण करने वाले आपकी महिमा को हम समझ नहीं सके, आपने पृथ्वी के भार का हरण करने के लिये इस उत्तम कश्यपात्मजरूप को अंगीकार किया है ॥ ५७ ॥ ब्रह्माजी बोले — उन मुनियों के स्तवन करते- करते उनके समक्ष [आविर्भूत हुआ] वह रूप अन्तर्धान हो गया। उन निर्भ्रान्त मुनियों ने जब स्वरूप को अन्तर्हित जाना तो एक विशाल प्रासाद बनवाकर भगवान् विनायक की एक सुन्दर मूर्ति, जैसी कि उन्होंने देखी थी, उस प्रासाद में वेदघोष तथा मंगलवाद्यों की ध्वनि के साथ शुभ मुहूर्त में स्थापित कर दी और उसका नाम ‘वरदविनायक’ रखा। वहीं पर उन मुनियों ने एक उत्तम सरोवर का भी निर्माण कराया, जो गणेशतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ ॥ ५८–६०१/२ ॥ इस तीर्थ में स्नान, दान और उन गणपतिदेव का पूजन करने से मनुष्य अपने पूर्वकृत पापों से मुक्त होकर समस्त मनोवांछितों को प्राप्त कर लेता है। [वरद- विनायक की स्थापना होने के बाद] वहाँ मुनिगण तथा दिक्पालोंसहित सभी देवगण उपस्थित हुए और समर्चित हुए विनायकदेव का दर्शन, स्तवन तथा वन्दन करके पुनः लौट गये। इस प्रकार बालरूप विनायक के प्रभाव की परीक्षा करने के लिये आये हुए सनक और सनन्दन उनके प्रभाव को देखकर सन्तोषपूर्वक अपने परमलोक को चले गये ॥ ६१-६३१/२ ॥ जो इन बालरूप विनायक के इस मंगलमय चरित्र का भक्ति-भाव से श्रवण करता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह देहावसान के बाद ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। [इस अरिष्टनाशक चरित्र का पाठ -श्रवण करने से] बालग्रहजनित पीड़ा नहीं होती और सर्वत्र विजय की प्राप्ति होती है ॥ ६४-६५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत ‘काशी में वरदविनायकमूर्ति की स्थापना का वर्णन’ नामक चौवनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५४ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe