श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-062
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बासठवाँ अध्याय
नरान्तक के सिर को लेकर उसके माता-पिता का देवान्तक के पास जाना और देवान्तक का काशिराज की नगरी पर आक्रमण करना
अथः द्विषष्टितमोऽध्यायः
नगरीनिरोधं

ब्रह्माजी बोले — रौद्रकेतु विप्र की भार्या, जिसका नाम शारदा था, वह अपनी सखियों के साथ कौतूहलपूर्वक वितर्दी (आँगन में बने चबूतरे)- ) – पर बैठी हुई थी ॥ १ ॥ अचानक उन सबके साथ उसने आँगन में गिरे हुए नरान्तक के सिर को देखा, जिसके दोनों कानों में कुण्डल सुशोभित हो रहे थे ॥ २ ॥ उस सिर के गिरने से वहाँ पर्वतशिखर के गिरने के सदृश ध्वनि हुई, जिससे वह सम्पूर्ण नगर गूँज उठा। वह सिर उसी प्रकार श्यामल और शोभाहीन हो गया था, जैसे हिमपात से प्रभावित कमल ॥ ३ ॥ उस आघात से व्याकुल शारदा और रौद्रकेतु दोनों भयभीत हो गये, तदनन्तर सावधान होने पर नरान्तक के सिर को देखकर वे दोनों अत्यन्त रुदन करने लगे ॥ ४ ॥

वे दोनों अपनी छाती पीटते हुए धरती पर लोटने लगे और मूर्च्छित हो गये । तदनन्तर एक मुहूर्त के बाद जब वे पुनः चेतनायुक्त हुए तो माता शारदा उस सिर को अपने हृदय से लगाकर अत्यन्त शोकाकुल हो उठी। वह विह्वल होकर वैसे ही करुण क्रन्दन करने लगी, जैसे मृतवत्सा गौ क्रन्दन करती है ॥ ५-६ ॥

शारदा कहने लगी — [ हे पुत्र ! ] तुम्हारा शरीर वीरोचित शोभा से परिपूर्ण रहता था, तुम सदैव युद्ध के लिये उत्सुक रहते थे । [ युद्ध में जाते समय ] तुमने मुझसे कुछ कहा भी नहीं। अब तो कुछ बोलो ॥ ७ ॥ [हे वत्स!] तुम्हारा पूरा शरीर कहाँ गया ? तुम तो केवल सिरमात्र से ही आये हो। तुम अकेले क्यों आये हो ? तुम्हारी महान् सेना कहाँ है ? तुम्हारे साथ जल लेकर चलने वाले और छत्र तथा चँवर धारण करने वाले कहाँ गये? जिसे देखकर श्रेष्ठ सुन्दरियाँ विरहरूपी अग्नि से [संतप्त होकर] म्लान हो जाया करती थीं; तुम्हारा वह रूप अस्ताचलगामी सूर्य की भाँति म्लान कैसे हो गया ? ॥ ८- ९१/२

मेरे द्वारा अथवा तुम्हारे पुत्रवत्सल पिता द्वारा तुम्हारा क्या अपराध किया गया है ? रुदन करते हुए हम दोनों के आँसुओं को पोंछकर तुम हमसे क्यों नहीं बोल रहे हो ? ॥ १०१/२

हे पुत्र ! तुम [कभी तो] अत्यन्त मूल्यवान् बिस्तर से युक्त पलंग पर शयन करते थे और इस समय कहाँ सो रहे हो — यह देखकर मेरा मन अत्यन्त खिन्न हो रहा है। तुम्हारे बिना हम दोनों किसी को मुँह दिखाने योग्य भी नहीं रह गये हैं ॥ ११-१२ ॥

ब्रह्माजी बोले — शारदा के शोकपूर्ण वचनों को सुनकर रौद्रकेतु भी शोकाकुल हो उठे और कहने लगे — ‘हे प्रिय पुत्र! तुम अपने विषय में कुछ बताये बिना कहाँ चले गये? ॥ १३ ॥ प्रतिदिन जो होता था और जो भविष्य की योजना होती थी — उस सम्पूर्ण वृत्तान्त को तथा अपने स्थान के विषय में हमें तुम बताया करते थे; इस समय क्यों नहीं बोल रहे हो ?॥ १४ ॥ यदि तुम युद्ध में [शत्रु के] सम्मुख लड़ते हुए रक्त- धाराओं से पवित्र होकर स्वर्गलोक को चले गये हो तो बिना मुझसे पूछे और मुझे त्यागकर क्यों चले गये ? तुम्हारा तो अपने माता-पिता के प्रति पुत्रभाव था, उसे शत्रुता में कैसे परिणत कर दिया ? ॥ १५१/२

जब तुम सेवक के हाथसे  अपने हाथ में तलवार ग्रहण करते थे, तो पर्वतों और काननों सहित पृथ्वी और स्वर्ग काँपने लगते थे; ऐसे तुमको किसने [पृथ्वी पर] गिरा दिया, काल की इस विपरीत गति को हम नहीं जानते ॥ १६-१७ ॥ लोक में प्रारब्ध ही बलवान् है, पुरुषार्थ निरर्थक है। मेरे वंश और इस लोक का आभूषणरूप नरान्तक न जाने कहाँ चला गया? जो काल के लिये भी काल, शत्रुरूपी हाथी के लिये सिंह और राजाओं रूपी रूई का दाह करने के लिये अग्नि के समान था; जिसका प्रताप सूर्य के समान था — ऐसे तुम दात्र (लकड़ी काटने का उपकरण) – से काटे गये वृक्ष की भाँति दो खण्डों में कैसे विभक्त हो गये?’ ॥ १८–१९१/२

ब्रह्माजी बोले — [ हे व्यासजी !] इस तरह अनेक प्रकार से शोक करके रौद्रकेतु और शारदा नरान्तक के सिर को लेकर देवान्तक के पास गये ॥ २०१/२ ॥ उन दोनों (माता-पिता) – को उस स्थिति में देखकर देवान्तक त्वरापूर्वक भद्रासन से उठकर उनके गले लगकर छोटे भाई की मृत्यु पर रुदन करने लगा। तब उसके परिवार के जो काल और यम के समान [दुर्धर्ष] दैत्य थे, भी नरान्तक के सिर को देखकर उच्च स्वर से विलाप करने लगे ॥ २१-२२१/२

देवान्तक माता के हाथ से नरान्तक का सिर लेकर उसे अपने हृदय से लगाकर भ्रातृस्नेह से दुखी होकर कुररी पक्षी के समान क्रन्दन करने लगा ॥ २३१/२

देवान्तक कहने लगा — हम दोनों साथ-साथ भोजन करते थे, एक साथ जल पीते थे, साथ-साथ खेलते थे और एक साथ सोते तथा एक साथ उठते थे। हम दोनों ने साथ-साथ तप किया, साथ-साथ जप किया, [[अब] तुम मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ? ॥ २४१/२

जिस तुम्हें देखकर मनुष्य और देवता दसों दिशाओं में पलायन कर जाते थे, वही तुम किस बलवान् दुष्ट द्वारा मार डाले गये ? मैंने तो पृथ्वी और रसातल का ही राज्य तुम्हें निवेदित किया था, तो भी हे भ्रातृवत्सल (भाई के प्रति प्रेम रखने वाले) ! तुम मुझे छोड़कर स्वर्ग कैसे चले गये ? ॥ २५–२६१/२

जिसके धनुष के टंकार की ध्वनि से सम्पूर्ण जड़- चेतन काँपने लगते थे, असंख्य राजागण जिसके भवन के द्वारदेश में [किंकरों की भाँति ] शोभा पाते थे; वही तुम माता-पिता और सुन्दर स्त्री को छोड़कर कैसे चले गये ? ॥ २७-२८ ॥

देवान्तक का इस प्रकार का क्रन्दन श्रवणकर वीर लोग वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने बलपूर्वक उसका हाथ पकड़कर तर्कों द्वारा समझाते हुए उसे क्रन्दन करने से रोका ॥ २९ ॥

लोगों ने कहा — हे राजन् ! किसी वीर के युद्ध में मारे जाने पर वीर लोग शोक नहीं करते हैं, अपितु वह जिसके द्वारा मारा गया है, उसके पास जाकर उसका बलपूर्वक वध करते हैं ॥ ३० ॥ सम्पूर्ण प्राणियों के देहधारण के साथ ही उनकी मृत्यु भी प्रादुर्भूत होती है। हे राजन् ! वह मृत्यु आज हो या सौ वर्ष बाद; अपनी हो या दूसरे की, परन्तु होगी अवश्य, इसमें सन्देह नहीं है। फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ? ॥ ३११/२

तब वह धर्मज्ञ असुर देवान्तक उन लोगों के [इस प्रकार के] वचन सुनकर सावधानचित्त होकर माता- पिता से बोला — ‘आप दोनों शोक न करें। मैं अपने उस शत्रु को ग्रास बनाने के लिये जा रहा हूँ । बताओ, जिसने मेरे भाई को मारा है, वह कहाँ रहता है ? या तो मैं उसको मारकर सुख का अनुभव करूँगा अथवा स्वयं मरकर भाई के पास चला जाऊँगा ॥ ३२-३४ ॥ हे माता ! हे पिता ! मेरी भौहों के टेढ़े होने मात्र से त्रिभुवन कम्पायमान हो जाता है, फिर मेरे क्रोधित हो जाने पर तीनों लोकों की रक्षा कौन कर सकता है ?’ ॥ ३५ ॥

ब्रह्माजी बोले — तब देवान्तक की बात सुनकर वे दोनों (शारदा और रौद्रकेतु) आश्वस्त हो गये। शोकसागर में डूबे हुए उन दोनों का उसके वचनों से उद्धार हो गया ॥ ३६ ॥ ज्येष्ठ पुत्र के पूछने पर रौद्रकेतु ने विस्तारपूर्वक सारी बात कही —  काशिराज नाम से विख्यात एक परम धार्मिक राजा है। उसके घर में विवाह-सम्बन्धी महान् उत्सव का आयोजन था । उसमें सभी लोगों के साथ ‘विनायक’ नाम से विख्यात कश्यपजी का पुत्र भी आमन्त्रित था । वह बालक होते हुए भी अत्यन्त बलवान् माना जाता है । हे पुत्र! उसने रास्ते में ही मेरे भाई धूम्राक्ष को मार डाला। उसका बदला लेने के लिये मैंने पाँच सौ निशाचर वीरों को भेजा था, वे सब दौड़ते हुए वहाँ गये, परंतु उस सप्त- वर्षीय मुनिपुत्र [विनायक ] – द्वारा वे सभी मार डाले गये । उनका प्रतिशोध लेने के लिये नरान्तक स्वयं गया। उसके साथ अनेक शस्त्रों से युक्त चतुरंगिणी सेना थी; किंतु उनमें से एक भी वापस नहीं लौटा। अकस्मात् यह नरान्तक का [कटा हुआ] सिर दिखायी दिया, तो हम लोग शोकाकुल होकर उसके सिर को लेकर तुम्हारे सम्मुख आये हैं ॥ ३७–४२१/२

ब्रह्माजी बोले — रौद्रकेतु का इस प्रकार का वचन सुनकर देवान्तक [क्रोध से] काँपने लगा, उसके नेत्र लाल हो गये। वह [अपने आसन से] उठ खड़ा हुआ । उस समय ऐसा लगता था, मानो वह तीनों लोकों को निगल जायगा। अहंकार और अज्ञान के वशवर्ती होकर वह अपने पिता से कहने लगा — ‘मैं सबको मारने वाले काल को भी मार डालूँगा, पृथ्वी को उलटकर अपनी क्रोधपूर्ण दृष्टि से क्षणभर में ब्रह्माण्ड को भस्म कर डालूँगा’ ॥ ४३–४५ ॥

इस प्रकार अपने क्रोधपूर्ण वचनों से पृथिवी को कम्पित-सा करते हुए उसने उन सभी दैत्यों को बुलाया, जो देवताओं के अधिकारों पर प्रतिष्ठित थे ॥ ४६ ॥ तदनन्तर देवान्तक ने माता-पिता को प्रणामकर कहा —  ‘अब मैं शीघ्र ही उस मुनिकुमार [विनायक ] -को लाऊँगा और उसके साथ ही [ नरान्तक के इस ] सिर का अग्नि-संस्कार करूँगा’ ॥ ४७१/२

ऐसा कहकर देवान्तक तथा उसके साथी असंख्य दैत्यों ने शीघ्रगामी पक्षियों की भाँति बलपूर्वक उड़कर और काशिराज की नगरी में पहुँचकर उसे चारों ओर से घेर लिया ॥ ४८-४९ ॥ उस समय [काशीपुरी में] महान् कोलाहल होने लगा और दिशाएँ धूल से भर गयीं; [जिससे] सूर्य का प्रकाश भी वहाँ नहीं आ पा रहा था । [ यह देखकर ] पुरवासी अत्यधिक चीत्कार करने लगे ॥ ५० ॥ [वे कहने लगे — ] नरान्तक को मरे तो अभी दो-तीन दिन भी नहीं हुए, तो फिर यह जनसंहारकारी प्रलय पुनः कैसे आ गया ? ॥ ५१ ॥ यह देखने में अत्यन्त कठिन भयंकर शरीर वाला कौन आ गया, यह तो काल को भी कवलित और तीनों लोकों को भक्षण कर जाने में समर्थ है ॥ ५२ ॥ इससे पहले भेजे गये दैत्यवीरों का तो उस विनायक ने वध कर डाला था, परंतु अब पुनः दैत्योंकी एक परिखा (खाईं) – सी बन गयी है, जिसके कारण अब बाहर जाने का मार्ग भी नहीं है ॥ ५३ ॥

जब पुरजन इस प्रकार कह रहे थे, तभी देवान्तक के आने (आक्रमण)-का समाचार काशिराज को बतलाने उसके दूत आ गये ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘नगरीनिरोध’ नामक बासठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६२ ॥

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