श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-070
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
सत्तरवाँ अध्याय
देवान्तक-वध
अथः सप्ततितमोऽध्यायः
बालचरिते पुरप्रवेश

ब्रह्माजी बोले — भय से भ्रमित बुद्धि वाला वह देवान्तक जब ऐसा कह रहा था, तभी विनायकदेव ने उसे छोटे बालक के समान उठाकर अपनी गोद में ले लिया ॥ १ ॥ तदनन्तर गणों के स्वामी विनायक ने अपने प्रभाव से सुन्दर पद्मासन में बैठकर दैत्यराज से कहा —  ‘अपने सुन्दर वरदान का स्मरण करो’ ॥ २ ॥

तब वह दैत्य उनके दाँत को दोनों हाथों से पकड़कर अपने शरीर को अन्तरिक्ष में बार-बार झुलाने लगा ॥ ३ ॥ तब जैसे ही वह देवान्तक दाँत को तोड़कर भूतल पर गिरा, वैसे ही उन सर्वव्यापक देव विनायक ने शीघ्रता से अपने उस दाँत को पकड़ लिया ॥ ४ ॥ उन्होंने उसी दाँत से देवान्तक के मस्तक पर प्रहार किया और अत्यन्त उच्च स्वर से गर्जना की, जिससे दिशाएँ-विदिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं ॥ ५ ॥ सम्पूर्ण पृथ्वी और सभी पाताल विचलित हो गये। उस दन्ताघात से देवान्तक के शरीर के तत्क्षण सैकड़ों टुकड़े हो गये। आकाश से मेघवृष्टि की भाँति शीघ्र ही रक्त की वर्षा होने लगी। पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी लोगों ने इसे [दैवीय] उत्पात माना ॥ ६-७ ॥

उस समय युद्ध देख रहे सभी देवताओं के देखते- देखते दैत्य [देवान्तक] – के शरीर से निकलकर एक ज्योति विनायक में प्रवेश कर गयी ॥ ८ ॥ उसका शरीर तीन योजन के वृक्षसमूहों, पर्वतों और पौधों को चूर-चूर करता हुआ भूतल पर गिर पड़ा ॥ ९ ॥ उसकी ऐसी गति देखकर उसके सैनिक दसों दिशाओं में भाग गये । उसके शरीर के गिरने से कितने ही सैनिक मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥ १० ॥ अपने-अपने स्थान से आये हुए देवता [विनायकपर ] पुष्पवर्षा करने लगे। राजा ( काशिराज) – के नगाड़ों की ध्वनि के साथ देव-दुन्दुभियों की भी ध्वनि होने लगी ॥ ११ ॥ दिशाएँ निर्मल हो गयीं और सुखदायक हवा चलने लगी, अग्नि तेजयुक्त हो गयी और लोग प्रसन्न हो गये । प्रतिकूल बह रही नदियाँ सन्मार्गगामिनी हो गयीं। तब इन्द्रादि | देवताओं और मुनियों ने उनका पूजन किया ॥ १२-१३ ॥

उन्होंने परम भक्तिभाव से देवाधिदेव विनायक का स्तवन किया और कहा — ‘हे विभो ! आपने हमें देवान्तक के बन्धन से मुक्त किया। हे देवेश ! आपने उपेन्द्र 1  (विष्णु)- के समान कार्य किया है, अतः लोक में आपकी ख्याति ‘उपेन्द्र’ नाम से होगी’ ॥ १४-१५ ॥ अब हम लोग अपने-अपने पदों पर भयरहित होकर रहेंगे। स्वाहा, स्वधा और वषट्कार घर-घर में होंगे ॥ १६ ॥

ऐसा कहकर उन सबने विनायकदेव को नमस्कार कर उनकी प्रदक्षिणा की और आज्ञा लेकर प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थानों को वापस लौट आये ॥ १७ ॥ देवताओं और मुनियों ने उनका ‘हृषीकेश’ ऐसा नामकरण किया और उन्हें प्रणामकर हर्षित मन से अपने-अपने आश्रमों को चले गये ॥ १८ ॥ तदनन्तर सभी राजाओं ने विनायक का सम्यक् रूप से पूजनकर और प्रणामकर उनसे कहा — ‘हे देव! आपने दैत्यों के भार से पीड़ित पृथ्वी का उद्धार किया, इसलिये आप ‘धरणीधर’ कहे जायँगे।’ ऐसा कहकर वे सब उनकी आज्ञा लेकर अपने-अपने नगरों को चले गये। तत्पश्चात् काशिराज ने विनायक को देखा, वे बालरूप धारण किये थे और सिंहपर आरूढ़ होकर बालकों के साथ खेल रहे थे ॥ १९–२१ ॥  बालक [-रूपधारी] विनायक ने भी उन राजा (काशिराज) – को देखकर परम आदर से उनका आलिंगन किया। वे दोनों आनन्द से परिपूर्ण थे और आँखों से आँसुओं की वर्षा कर रहे थे ॥ २२ ॥

तदनन्तर राजा ने विनायकदेव से कहा — ‘मेरा महान् भाग्योदय हुआ है, जो कि ब्रह्मादि देवताओं के लिये भी अगम्य सनातन परब्रह्म हैं, उनका मैं नित्य दर्शन कर रहा हूँ। यह मेरे पूर्वजन्म के पुण्यों के फल का उदय है कि जो विश्व के कारणों के भी कारण हैं, और स्वयं कारणरहित हैं, जो वेदान्तवेद्य, नित्य, ग्रह-नक्षत्रों के प्रकाशक और स्वयं प्रकाशरूप हैं, जो अनेक रूपवाले और निराकार हैं, पृथ्वी के भार का हरण करने वाले और मनोहर स्वरूप वाले हैं, वे ही बालरूप से मेरे घर में स्वेच्छानुसार खेल रहे हैं’ ॥ २३–२५१/२

ब्रह्माजी कहते हैं — काशिराजद्वारा की गयी इस प्रकार की स्तुति सुनकर विघ्नराज ने आँसुओं को पोंछकर कहा — ‘मैं आपसे क्षणभर के लिये भी कभी दूर नहीं जाऊँगा।’ ॥ २६१/२

तब देवान्तक के वध से हर्षित राजा ने उनका अनेक प्रकार से उपचारों से पूजन किया और अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि तथा वन्दीजनों द्वारा गायी गयी स्तुतियों के साथ सैनिकों सहित बालरूप विनायक की स्तुति करते हुए अपने नगर को गये ॥ २७-२८१/२

वहाँ सभी लोगों को अनेक प्रकार के वस्त्र देकर तथा कुछ को पान देकर [राजा ने] विदा किया। तत्पश्चात् विनायक को आगे करके हर्षित मन से उन्होंने अपने रमणीय भवन में प्रवेश किया ॥ २९-३० ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘पुरप्रवेश’ नामक सत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७० ॥

1. भगवान् विष्णु वामनावतार में इन्द्र के छोटे भाई के रूप में अदिति से प्रकट हुए थे, अतः उन्हें ‘उपेन्द्र’ कहा गया था; वैसे ही विनायक भी अदितिपुत्र और इन्द्र के अनुज हैं, अतः उन्हें भी उपेन्द्र कहते हैं।

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