October 21, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-072 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ बहत्तरवाँ अध्याय विनायक का पिता कश्यप के आश्रम में आगमन, काशिराज द्वारा विनायक की महिमा का कथन, काशिराज का काशी में प्रत्यागमन तथा दुण्डिविनायक की स्थापना, माता अदिति तथा कश्यप को आश्वासन देकर विनायक का निजलोकगमन अथः द्विसप्ततितमोऽध्यायः विनायकचरित्रकथनं ब्रह्माजी बोले — काशिराज के दूत ने विनायक की माता देवी अदिति से यह पहले ही बता दिया था कि वे विनायक काशिराज के साथ रथ में बैठकर यहाँ आ रहे हैं। तदनन्तर वियोग से व्यथित हुई वे अदिति शीघ्र ही दौड़ती हुई आगे को गयीं। उत्सुकतावश शीघ्रता में दौड़ते हुए वे यह भी नहीं जान पायीं कि उनका उत्तरीय वस्त्र गिर पड़ा है ॥ १-२ ॥ माता को देखकर मुनि कश्यप के पुत्र वे विनायक शीघ्र ही रथ से उतर पड़े और माता के समीप चले आये, माता ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ उनका आलिंगन किया ॥ ३ ॥ देवी अदिति के आनन्दाश्रु निकल पड़े। बहुत समय बाद आने के कारण विनायक भी आँसू बहाने लगे । मुहूर्तभर के लिये वे दोनों उसी प्रकार एकीभाव को प्राप्त हो गये, जैसे जल में जल मिलकर एक हो जाता है ॥ ४ ॥ तदनन्तर स्नेह से स्वच्छचित्त हुई माता अदिति ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें स्तनपान कराया। उनके आँसू पोंछकर वे बोलीं — ‘तुम बहुत दिनों से थके हुए हो ।’ तदनन्तर काशिराज ने अदिति को प्रणाम किया और वे और वे गद्गद वाणी में कहने लगे ॥ ५ ॥ राजा बोले — देव विनायक को [मेरे साथ ] यहाँ से गये हुए बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, इसके निमित्त हे मातः! आप मुझ पर क्रोध न करें। हे कश्यपप्रिया ! मैं इन विनायक का वियोग सहन करने में समर्थ नहीं हूँ ॥ ६-७ ॥ अमृत से कभी तृप्ति नहीं होती और खजाने के प्रति कोई उदासीन नहीं होता। ये विनायक हमारे घर में दिन-प्रतिदिन नित्य नया-नया प्रेम बढ़ाते रहे हैं ॥ ८ ॥ हमारे नगर में होने वाले बहुत-से उत्पातों का इन्होंने निवारण कर दिया है । असंख्य दैत्यों का वध कर डाला है। इससे देवताओं को भी अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई । इन्होंने महान् यश अर्जित किया है और धर्मसेतु की स्थापना की है। इन्होंने इस प्रकार का पौरुष दिखलाया है, जैसा कि इन्द्र आदि देवता भी नहीं दिखला पाये ॥ ९-१० ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार काशिराज ने सारा वृत्तान्त उन्हें बतलाया । तदनन्तर माता अदिति ने दुष्ट जनों की दृष्टि (नजर) लगने से होने वाले उत्पात की शान्ति के लिये बालक विनायक के सिर के ऊपर दही और अन्न (सरसों आदि)- को घुमाकर घर के बाहर फेंका। तदनन्तर वे बालक विनायक को काशिराजसहित अपने आश्रममण्डल में ले गयीं ॥ ११-१२ ॥ अपने पुत्र विनायक को काशिराज के साथ आया देखकर मुनि कश्यप बाहर चले आये, उन दोनों ने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक मुनि को प्रणाम किया ॥ १३ ॥ तदनन्तर मुनि कश्यप ने उन दोनों का आलिंगन किया और पुत्र विनायक के सिर को सूँघकर तथा उसे गोद में बैठाकर रुँधे हुए कण्ठ से वे कहने लगे — हे काशिराज ! आपने बालक को ले जाकर वापस लाने में विलम्ब किया, यह ठीक नहीं किया। आप ‘शीघ्र ही वापस ले आऊँगा’ कहकर, इसे क्यों ले गये थे ? हे राजन् ! इसके वियोग में संतप्त मेरे अंगों को बड़े ही पुण्य से अभी इसका दर्शनकर शीतलता प्राप्त हो रही है ॥ १४–१६ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब काशिराज ने मुनि कश्यप के वचनामृत का पान करके तथा उनकी आज्ञा प्राप्तकर सुन्दर आसनपर बैठकर कहना प्रारम्भ किया ॥ १७ ॥ राजा बोले — हे मुनीश्वर ! इन विनायक की ही माया अर्थात् सामर्थ्य के कारण मुझे [स्व-स्वरूप की] सत्यता का बोध हुआ। इन देवदेव ने मेरे घर को निश्चित रूप से अपना घर बना लिया । हे मुने! ये विनायकदेव सम्पूर्ण कामनाओं से परिपूर्ण हैं और ये अपनी इच्छाओं के वशीभूत हैं अर्थात् नित्य स्वतन्त्र हैं । मेरे पुत्र का विवाह सम्पादित कराकर ये यहाँ आये हैं ॥ १८-१९ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर काशिराज ने उन विनायक द्वारा किये गये दैत्यों के वध आदि समस्त कर्मों को उन्हें बतलाया । यह सुनकर वे मुनि कश्यप तथा उनकी पत्नी देवी अदिति अपने पुत्र विनायक का पराक्रम तथा उनके बहुत से गुणों के विषय में जानकर बहुत प्रसन्न हुए। इसके पश्चात् उन सभी ने बड़े ही आदरपूर्वक छः रसों से सम्पन्न व्यंजनों का भोजन किया ॥ २०-२१ ॥ इसके बाद मुनि कश्यप ने उन काशिराज को आशीर्वाद प्रदानकर उन्हें विदा किया। राजा ने भी उन सभी को प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करते हुए उनकी अनुमति प्राप्तकर दोनों नेत्रों से आँसू बहाते हुए बड़े दुखी उन विनायक के गुणगणों का स्मरण करते हुए मन से उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया ॥ २२१/२ ॥ स्नेह से परिपूर्ण काशिराज ने वाद्यों की ध्वनि के साथ शीघ्र ही नगर प्रवेश किया। विनायकदेव को देखने की इच्छा वाले नगर के सभी लोग तथा बालक वहाँ आये, किंतु उन्होंने वहाँ उन्हें नहीं देखा, तो वे अत्यन्त दुखी मनवाले हो गये । वे उन काशिराज को अकेला देखकर अपने-अपने घरों को चले गये ॥ २३–२५ ॥ दूसरे दिन सभी नागरिकों ने राजा से अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पूछा — ‘हे राजन्! उन विनायकदेव ने ‘पुनः आऊँगा’ — ऐसा कहा था, तो फिर वे क्यों नहीं आये? आप भी बड़े ही निष्ठुर बनकर उन्हें छोड़कर यहाँ कैसे चले आये’ ॥ २६१/२ ॥ राजा बोले — मेरे द्वारा बार-बार प्रार्थना किये जाने पर मुनि कश्यप के पुत्र वे विनायक मुझसे कहने लगे — ‘आप सभी लोग मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठापूर्वक स्थापना करके उसकी सेवा-पूजा करें। सबके हृदय में स्थित रहने वाले मुझे अन्तर्यामी का आप लोगों से वियोग किसी प्रकार भी नहीं हो सकता’ ॥ २७-२८ ॥ तदनन्तर नगरवासियों ने विनायक की धातुनिर्मित अत्यन्त शुभ मूर्ति का निर्माण करवाया । वह प्रतिमा चार भुजावाली थी। उसके तीन नेत्र थे। वह सभी प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित थी । उसके कान शूर्प के समान थे। मुख हाथी के समान था । उसके शरीर के सभी अंग अत्यन्त मनोहर थे। पुरवासियों ने उसका ‘दुण्डिराज’ यह नाम रखा और बड़े ही आदरभाव से ऋत्विजों, ब्राह्मणों तथा अन्य वेदशास्त्र में पारंगत विद्वानों द्वारा उसकी स्थापना करवायी ॥ २९–३०१/२ ॥ उन्होंने एक उत्तम मन्दिर बनवाया और उसमें उन विनायक की प्रतिदिन वे पूजा करने लगे ॥ ३१ ॥ जिस-जिसके द्वारा भी जिस-जिस कामना से विनायक की पूजा की जाती, भक्तिपूर्वक पूजित हुए वे प्रभु विनायक उस-उस व्यक्ति की उन-उन कामनाओं को विविध स्वरूपों को धारण करने वाले वे उन्हें प्रदान करते ॥ ३२ ॥ विनायक इस प्रकार वहाँ सुशोभित हुए। जब सभी देवताओं के साथ भगवान् विश्वनाथ अपनी नगरी काशीपुरी में चले आये और काशिराज दिवोदास अविमुक्तक्षेत्र में सुखपूर्वक निवास करने लगे, तब वे विनायक अपने पिता मुनि कश्यप तथा माता अदिति से कहने लगे ॥ ३३-३४ ॥ प्राचीन काल में तपस्या के द्वारा आराधित होने पर मैं आपके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ था। मैंने पृथ्वी के भार को भलीभाँति दूर कर दिया है तथा तीनों लोकों को पीड़ित करने वाले महाबली दुष्ट दैत्यों देवान्तक तथा नरान्तक का वध कर डाला है। मैंने देवताओं तथा साधु- सन्तों की रक्षा की है और देवताओं को उनके पदों पर स्थापित कर दिया है, अब इस समय मैं अपने शाश्वत लोक को जाऊँगा ॥ ३५-३६१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — विनायक के ऐसे वचनों को सुनकर अदिति तथा कश्यप को बड़ा दुःख हुआ । वे गद्गद कण्ठ से उनसे कहने लगे — ‘हे देव! हम दोनों को पुनः आपका दर्शन कब प्राप्त होगा ?’ तब वे माता अदिति से बोले —– ‘हे मातः ! भवानी के मन्दिर में शीघ्र ही मेरा दर्शन आपको होगा । यह मेरा सत्य एवं प्रिय वचन है ‘ ॥ ३७-३८१/२ ॥ विनायक की यह बात सुनकर जबतक वे कुछ बोलतीं, उससे पहले ही वे अन्तर्धान हो गये। तब वे दोनों खिन्न मन वाले हो गये। भक्तिपरायण उन्होंने एक अत्यन्त सुन्दर मन्दिर बनवाया और एक मूर्ति बनवायी। उस मूर्ति का ‘विनायक’ यह नाम रखा। उस मूर्ति का ध्यान करनेमात्र से वे सर्वव्यापक एवं विविध रूपधारी विनायक प्रभु नित्य ही साक्षात् दर्शन देते हैं ॥ ३९-४११/२ ॥ इस प्रकार से मैंने भगवान् विनायक का अत्यन्त मंगलकारी चरित्र आपको बतलाया । यह आख्यान सुननेमात्र से सब प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। कृतार्थ करने वाला है । यश प्रदान करने वाला है । आयुष्य प्रदान करने वाला और सभी प्रकार के उपद्रवों को विनष्ट करने वाला है । यह सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला और सभी प्रकार के संचित पापों का नाश करने वाला है ॥ ४२-४३१/२ ॥ अब मैं आपको सिन्धु दैत्य के वध के लिये शिव के घर में मयूरेश्वर नाम से अवतरित हुए देव विनायक के विषय में बतलाऊँगा। जिन्होंने कि बाल्यकाल से ही अत्यन्त अद्भुत नाना कर्मों को किया था ॥ ४४-४५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘विनायक के चरित्रों का वर्णन’ नामक बहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७२ ॥ Content is available only for registered users. 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