श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-075
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
पचहत्तरवाँ अध्याय
दैत्यराज सिन्धु का आख्यान, सिन्धु द्वारा दिग्विजय से सम्पूर्ण पृथ्वी को विजित करना, अमरावती पर आधिपत्य और स्वयं इन्द्रासन पर विराजमान होना
अथः पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः
सुरपराजय

ब्रह्माजी बोले — अपने पुत्र को बुद्धिसम्पन्न और भगवान् सूर्य से प्राप्त वरदानों के कारण गर्वित जानकर उसके पिता राजा चक्रपाणि ने उसे देश, कोश, सैन्यबल – सहित सम्पूर्ण राज्य प्रदान कर दिया ॥ १ ॥ अपने आत्मकल्याण की इच्छा वाला उसका वह पिता वन चला गया । पिता के द्वारा अभिषिक्त होने पर सिन्धु राज्य के कार्यों में संलग्न हो गया ॥ २ ॥ उसने व्यापारीवर्ग के प्रधान – प्रधान श्रीमानों, दोनों अमात्यों एवं अधिकारियों को बुलाकर उन्हें वस्त्र-आभूषणों आदि के द्वारा सम्मानित करके अपने-अपने पदों पर पूर्ववत् प्रतिष्ठित किया । उसने राज्य में यह डिण्डिमघोष करवाया कि उसकी आज्ञा के भंग होने पर उसे दण्डनीय अपराध माना जायगा ॥ ३१/२

तदनन्तर उसने शीघ्र ही वीरों को दिग्विजय यात्रा के लिये आज्ञा प्रदान की । अत्यन्त भीषण शरीरवाले उस सिन्धु ने अपने तेज के द्वारा सूर्य को लज्जित-सा बना डाला। उसके आगे-आगे वीर सैनिक चल रहे थे, जो विकराल और लाल वर्ण के मुखवाले थे ॥ ४-५ ॥ वे हाथों में विविध प्रकार के खुले शस्त्रों को धारण किये हुए थे। उन्होंने अपने पैरों से उड़ने वाली धूलराशि से भगवान् सूर्य को आच्छादित कर दिया था। उनके पीछे-पीछे हाथी चल रहे थे। जो चार दाँतों वाले थे, नाना प्रकार के रंगों की चित्रकारी से विभूषित थे ॥ ६ ॥ पैरों में बँधी हुई श्रृंखलाओं वाले वे हाथी पृथ्वी को कम्पायमान कर रहे थे । उन हाथियों के ऊपर महावत आरूढ़ थे। वे हाथी चलते हुए पर्वतों के समान लग रहे थे। वे विविध वर्णों वाली ध्वजाओं से युक्त थे और ऐसा प्रतीत होता था कि वे दिग्गजों को विदीर्ण करने की इच्छा रखते हों। वे अपने महान् घण्टाघोष से दिगन्तरालों को निनादित कर रहे थे ॥ ७-८ ॥

गजसेना के पीछे-पीछे अश्वारोही सैनिक चल रहे थे। वे वीर सैनिक अनेक प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित थे, शत्रुसेना का मर्दन करने वाले उन सैनिकों ने देह की रक्षा करने वाले कवच धारण कर रखे थे। इनके पीछे रथारूढ़ सेना जा रही थी। जो नानाविध अलंकारों से विभूषित थी और असंख्य तरकशों, धनुषों तथा विविध शस्त्रसमूहों से समन्वित थी ॥ ९-१० ॥ वह सिन्धु नामक दैत्य सेना के मध्य भाग में घोड़े की पीठ पर आरूढ़ होकर विराजमान था । उसका कण्ठदेश मोतियों की माला से सुशोभित था तथा धनुष एवं बाण ने उसके हाथ की शोभा को बढ़ा रखा था ॥ ११ ॥

हाथ में खड्ग तथा ढाल लेकर वह वृक्षों तथा पर्वतों को विदीर्ण करता हुआ जा रहा था। जिस-जिस नगर को उद्देश्य करके वह महाबली दैत्य वहाँ जाता था, उस-उस नगर के राजा को सिन्धु के महावीर सैनिक पकड़कर अपने स्वामी के पास ले आते थे। तब वह दैत्य सिन्धु अपना चिह्न तथा मुद्रा देकर किसी अपने सेनानायक को वहाँ प्रतिष्ठित कर देता था ॥ १२-१३ ॥ इसके अतिरिक्त जो राजा उसकी शरण में आकर उसकी दासता को स्वीकार कर लेते थे, उन्हें वह बलपूर्वक कर देने वाला बनाकर उनकी रक्षा करके उन्हें उनके पद पर स्थापित कर देता था ॥ १४ ॥ इस प्रकार उसने सभी को अपने अधीन बना लिया । तदनन्तर शुम्भ, निशुम्भ, वृत्रासुर, प्रचण्ड, काल, कदम्बासुर, शम्बर तथा कमलासुर नामक करोड़ों-करोड़ों दैत्य उसके समीप में आ गये ॥ १५१/२

उस समय कोलासुर ने राजा सिन्धु से कहा — ‘पूर्वकाल में जिस प्रकार से दैत्यराज त्रिपुरासुर ने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करके हमें अधिकार प्रदान किये, वैसे ही आप भी अपने तेज के बल पर तीनों लोकों को जीतकर हमें अधिकार प्रदान करें’ ॥ १६-१७ ॥ उस त्रिपुरासुर को भगवान् शिव के द्वारा मार दिये जाने पर अब आप ही एकमात्र महान् बलवान् असुर दिखायी देते हैं। आपके पराक्रम की तुलना को साक्षात् यमराज भी कभी प्राप्त नहीं कर सकते हैं । हे महान् बलसम्पन्न सिन्धु ! हम लोग आपकी आज्ञा का पालन करना चाहते हैं, हम आपकी सेवा में उपस्थित हैं ॥ १८१/२

कोलासुर की इस बात को सुनकर दैत्यराज सिन्धु को अति प्रसन्नता हुई। तब उसने उन असुरों को अश्व, गज, वस्त्र तथा आभूषण प्रदान किये ॥ १९१/२

सिन्धु बोला — मैं महान् बलशाली तो तब होऊँगा, जब मैं देवराज इन्द्र की अमरावती नगरी, शिव के कैलास, विष्णु के वैकुण्ठ, ब्रह्मा के सत्यलोक तथा सातों पातालों पर विजय प्राप्त कर लूँगा ॥ २०१/२

ब्रह्माजी बोले — तब सभी के द्वारा ‘बहुत ठीक-बहुत ठीक’ इस प्रकार कहे जाने पर सभी दैत्याधिपति जोर की गर्जना करने लगे और वे अत्यन्त हर्षित हो उठे। वे ब्रह्माण्ड को कँपाने लगे। वे कहने लगे — ‘हमारी खुजली तो राजाओं से युद्ध करने पर शान्त नहीं हुई। अब लगता है कि देवताओं से युद्ध करने पर ही वह शान्त होगी।’ ॥ २१–२२ ॥

अतः वे लोग शीघ्र ही निकल पड़े और स्वर्गलोक में जा पहुँचे। उन्होंने इन्द्र की पुरी अमरावती को चारों ओर से वैसे ही घेर लिया, जैसे ब्राह्मण धन देने वाले दानी व्यक्ति को घेर लेते हैं ॥ २३ ॥ कुछ दैत्य वहाँ की रत्नराशि को लूटते हुए नगरी के मध्य में प्रविष्ट हो गये। वहाँ गर्जन करते हुए दैत्यों का महान् कोलाहल होने लगा ॥ २४ ॥ तदनन्तर सभा के मध्य में विराजमान देवराज इन्द्र ने दूत के मुख से दैत्यराज सिन्धु के आगमन तथा दैत्यों के द्वारा अपनी पुरी को घेरे जाने का समाचार सुना। तब हाथ में वज्र धारण किये हुए देवराज इन्द्र सभी देवताओं को साथ लेकर, ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर उस दैत्य सिन्धु के साथ युद्ध करने की इच्छा से वहाँ आये ॥ २५-२६ ॥

उस समय कुछ देवता कहने लगे — ‘हे इन्द्र! इसके साथ युद्ध करने में हम समर्थ नहीं हैं। लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु के अतिरिक्त कोई भी ऐसा कहीं नहीं दिखायी देता, जो इसके साथ युद्ध कर सके ‘ ॥ २७ ॥

वे देवता इस प्रकार कह ही रहे थे कि उसी समय उस महाबली दैत्य सिन्धु ने देवताओं से घिरे हुए इन्द्र को बाणों की वृष्टि से बींध डाला ॥ २८ ॥ तभी कुछ देवता भागते हुए वहाँ से पलायन कर गये। तदनन्तर वे इन्द्र गर्जना करते हुए अत्यन्त क्रुद्ध होकर युद्ध के लिये दौड़ पड़े ॥ २९ ॥ हाथ में वज्र उठाये हुए उन शत्रुहन्ता इन्द्र ने सभी दैत्यगणों को ग्रास बनाते हुए उस दैत्यराज सिन्धु के मस्तक पर वज्र से भीषण प्रहार किया ॥ ३० ॥ वज्र के प्रहार से उसे महान् मूर्च्छा आ गयी, किंतु मुहूर्तभर में ही वह पुन: उठ खड़ा हुआ और इन्द्र से बोला —‘यहाँ से अपने घर चले जाओ, अपनी मृत्यु न होने दो। मेरी मुष्टिका प्रहार से साक्षात् काल भी मृत्यु को प्राप्त हो जायगा । फिर तुम्हारी क्या गणना है !’ किंतु इन्द्र ने उसकी कही बात को अनसुना कर दिया ॥ ३१-३२ ॥

तब अत्यन्त रोष में भरकर महादैत्य सिन्धु ने अपनी मुष्टिका के आघात से इन्द्र के हाथी ऐरावत के मस्तक को विदीर्ण कर डाला, जिससे रक्त की धारा प्रवाहित होने लगी। फिर दैत्य ने उछलकर उस हाथी ऐरावत के चारों दाँतों को कसकर पकड़कर उस गजराज को जमीन पर गिरा दिया। यह देखकर इन्द्र अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३३-३४ ॥ तदनन्तर जब वह दैत्य इन्द्र को अपने पैर से कुचलने ही जा रहा था कि इन्द्र सूक्ष्म शरीर बनाकर उसके हाथों की पकड़ से बाहर निकल आये और दूर चले गये तथा मन-ही मन उसकी प्रशंसा करने लगे कि इस प्रकार का पराक्रम मैंने पहले कभी नहीं देखा। यदि मैं वहीं पर ठहरा रह गया होता तो निश्चित ही मृत्यु को प्राप्त होता ॥ ३५-३६ ॥

तदनन्तर इन्द्र ने अपना ऐरावत हाथी वहीं छोड़ दिया और वे रूप बदलकर देवताओं के साथ उन भगवान् विष्णु की शरण में गये ॥ ३७ ॥

तत्पश्चात् देवराज इन्द्रसहित सभी देवताओं के वहाँ से पलायन कर जाने पर सभी दैत्यों द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ दैत्यराज सिन्धु देवराज इन्द्र के आसन पर आरूढ़ हो गया। उसने देवताओं के सभी पदों पर उन दैत्यों को नियुक्त कर दिया। तब शुम्भ आदि दैत्य उन-उन पदों पर नि:शंक होकर स्थित हो गये ॥ ३८-३९ ॥ वे सभी दैत्य उस असुराधिपति सिन्धु, जो सर्वाधिक बल-पराक्रमशाली था, उसकी प्रशंसा करने लगे और विविध प्रकार के वाद्यों की ध्वनि से स्वर्गलोक को निनादित करने लगे ॥ ४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘देवताओं की पराजय’ नामक पचहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७५ ॥

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