October 25, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-079 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ उन्यासीवाँ अध्याय भगवान् शिव का गौरी तथा गणोंसहित त्रिसन्ध्याक्षेत्र में गमन, भगवान् शिव द्वारा गौरी को गणेशजी के माहात्म्य का प्रतिपादन और उन्हें गणेशाराधना का उपदेश, देवी पार्वती का तपस्या करने के लिये लेखनाद्रिपर्वत पर गमन अथः नवसप्ततितमोऽध्यायः गौरीमन्त्रप्रदानं ब्रह्माजी बोले — [ हे व्यासजी !] दैत्यराज सिन्धु के द्वारा देवताओं को जीत लिये जाने का वृत्तान्त जानकर भगवान् शम्भु अपने सात करोड़ गणों से घिरे हुए होकर अपने स्थान से त्रिसन्ध्या नामक क्षेत्र में आ गये ॥ १ ॥ वहाँ पर दैत्य सिन्धु के भय से गौतम आदि महर्षिगण स्वाहाकार, स्वधाकार, वषट्कार तथा वेद आदि के अध्ययन से रहित होकर निवास कर रहे थे। भगवान् त्र्यम्बक का दर्शनकर वे सभी महर्षिगण चारों ओर से उन्हें घेरकर वैसे ही खड़े हो गये, जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण तीर्थस्थल को तथा बालक अपनी माता को घेर लेते हैं ॥ २-३ ॥ महर्षियों ने उन्हें प्रणाम किया। उनकी पूजा की और वे कहने लगे — ‘आज हम धन्य-धन्य हो गये । हमारे नेत्रों का होना धन्य हो गया। हमारा जन्म लेना धन्य हो गया और हमारा ज्ञान धन्य हो गया, जो कि हम अगोचर भगवान् शिव का इस दण्डकारण्य में दर्शन कर रहे हैं। आज हमारा पाप समाप्त हो गया और महान् पुण्य फलीभूत हो गया है ॥ ४-५ ॥ भगवान् शिव का दर्शन कर लेने पर अब हमें वैसे ही कोई दुःख नहीं होगा, जैसे कि दिवानाथ भगवान् सूर्य के उदित हो जाने पर कहीं भी अन्धकार नहीं दिखायी देता है।’ तदनन्तर भगवान् महादेव उन सभी श्रेष्ठ मुनियों से कहने लगे —॥ ६१/२ ॥ शिवजी बोले — दैत्य सिन्धु ने तीनों लोकों पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधीन बना लिया है। देवताओं को बन्दी बना लिया है। उसने कुछ मुनियों को भी बन्धन में डाल रखा है। यह सब जानकर मेरा मन अत्यन्त खिन्न है, मुझे [किसी भी ] स्थान पर शान्ति नहीं प्राप्त हो रही है। अतः मैं यहाँ चला आया हूँ ॥ ७-८ ॥ आप सभी के दर्शन से मैं सन्तुष्ट हुआ हूँ और मुझे अत्यन्त प्रसन्नता भी हो रही है। इस समय आप सभी मुझे परिवारसहित रहने का कोई स्थान प्रदान करें ॥ ९ ॥ महान् पुण्य के फलीभूत होने पर ही आपका दर्शन होता है, जो समस्त प्रकार के पापों को विनष्ट करने वाला है। यहाँ पर रहकर मैं जगदीश्वर का श्रेष्ठ ध्यान करूँगा ॥ १० ॥ ब्रह्माजी बोले — त्रिशूली भगवान् शंकर के ये वचन सुनकर वे सभी महर्षि कहने लगे — ‘हे देव ! आप तो सभी के ईश्वर हैं, फिर आपको स्थान देने वाला दूसरा दाता और कौन हो सकता है ? ॥ ११ ॥ कल्पवृक्ष की कौन-सी कामना हो सकती है ? और वह कामना किस दूसरे के द्वारा पूरी की जा सकती है ? क्षीरसागर के जल को पीने की तृष्णा क्या छोटे सरोवर के जल से शान्त हो सकती है ? ॥ १२ ॥ यह पृथिवी आपका ही एक रूप है। वह सदैव आपके वशवर्तिनी है । आप समस्त लोकों के स्वामी हैं। आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा आप करें ॥ १३ ॥ हे देवेश्वर ! हम आपके रहने के लिये आपको सुन्दर आश्रम दिखलाते हैं । वह स्थान विविध प्रकार के वृक्षों तथा लताओं से घिरा हुआ है। वहीं पर रमणीय वापी तथा सरोवर का जल उपलब्ध है, उसमें जलजन्तु तथा अनेक पक्षी स्थित हैं। वहाँ पर वृक्षों की घनी छाया है और वह दूर-दूर तक फैला हुआ है। उस स्थान पर स्वादिष्ट कन्द-मूल तथा फल प्राप्त हैं, वहाँ भूमि पर कोमल-कोमल घास उगी हुई है । हे त्रिनेत्र भगवान् शंकर! यदि आपकी इच्छा हो तो आप यहाँ पर निवास करें और हम सभी की रक्षा करें’ ॥ १४-१५१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर भगवान् महादेव गंगा तथा गौरी और गणों के साथ वहाँ पर निवास करने लगे। हे मुने! उस आश्रममण्डल को भगवान् शिव ने कैलास से भी अधिक रुचिकर माना । भगवान् शिव का आश्रय पा करके गौतम आदि महर्षिगण संताप रहित होकर विविध प्रकार के तप करने लगे। गंगा तथा गौरी के साथ अवस्थित भगवान् शिव ने भी वहाँ तपस्या प्रारम्भ कर दी ॥ १६-१८ ॥ महात्मा भगवान् शिव के गण उनके लिये सभी प्रकार की सामग्री जुटाते थे। एक दिन की बात है, देवी गौरी भगवान् सदाशिव से पूछने लगीं — ॥ १९ ॥ हे शंकर! आप ही इस विश्व की सृष्टि करने वाले हैं। इसका पालन-पोषण करने वाले हैं और इसका संहार करने वाले भी आप ही हैं। आप पृथ्वी, जल, अग्नि इत्यादि रूपों से अष्टमूर्तिस्वरूप हैं और मूर्ति से रहित अर्थात् निराकार भी आप ही हैं। आप सर्वेश्वर हैं और सभी को तृप्त करने वाले हैं। आप सर्वश्रेष्ठतम हैं, सभी की सब प्रकार की कामना की पूर्ति करने वाले भी आप ही हैं। हे देव! आप आठों प्रकार के कर्मों का फल प्रदान करने वाले और सब प्रकार के अर्थों के ज्ञाता हैं ॥ २०-२१ ॥ फिर आपसे श्रेष्ठतम और कौन है, जिसका आप ध्यान करते हैं, उसे मुझे बतलायें । देवता, मुनि, नाग, यक्ष, मनुष्य तथा राक्षस और सम्पूर्ण विश्व जिनकी सत्ता पर निर्भर है, फिर उन आपसे भी श्रेष्ठ कोई है क्या ? तैंतीस करोड़ देवताओं तथा सिद्धों और साधकों द्वारा आपकी ही पूजा की जाती है ॥ २२-२३ ॥ ब्रह्माजी बोले — पार्वतीजी का यह वचन सुनकर भगवान् शिव कहने लगे — ॥ २३१/२ ॥ शिवजी बोले — देवि! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। हे अनघे! तुम्हारे कथन से मैं बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ । हे देवि! तुम सावधान होकर सुनो। मैं विस्तार से तुम्हें बताता हूँ। हे सुरेश्वरी! मैं जिनका ध्यान करता हूँ, उन्हें आज तक तुम क्यों नहीं जान पायी ? ॥ २४-२५ ॥ मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिये, लोकों के कल्याण के लिये तथा [जीवों को] संसार-सागर से पार करने के लिये उन (परमात्मा)-के स्वरूप का वर्णन करता हूँ ॥ २६ ॥ जो ईश्वर सभी प्राणियों में [अन्तरात्मारूप में] गूढ़ भाव से स्थित हैं, इस विश्व की सृष्टि करने वाले हैं, जो अनन्त सिर वाले, अनन्त ऐश्वर्यवाले, अनन्त चरणों वाले हैं, स्वराट् हैं, अनन्त कानों वाले, अनन्त नेत्रों वाले तथा अनन्त नामों वाले हैं। तीनों गुणों से अतीत हैं। अनन्त स्वरूप धारण करने वाले हैं। जो देव वेदों की सृष्टि करने वाले और अखिल अर्थों को प्रदान करने वाले हैं। जो अनन्त शक्ति से सम्पन्न हैं, विश्व की आत्मा हैं । सब प्रकार की उपमाओं से रहित हैं, पुरातन हैं। शेषनाग, चन्द्रमा, समुद्र, आकाश, नारायण, भारत अर्थात् नर ऋषि के अवतार अर्जुन तथा मुनि वेदव्यासजी से भी जिनकी उपमा नहीं दी जा सकती, जिनसे अनन्त जीव उसी प्रकार उत्पन्न होते हैं, जैसे मेघों से जल की धारा निकलती है और जैसे अग्नि से चिनगारियाँ निकलती हैं, जिन प्रभु ने ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि को सत्त्व, रज तथा तमोगुण प्रदान किये हैं और फिर जिन्होंने उन तीनों देवों को सृष्टि, पालन तथा संहार करने की आज्ञा प्रदान की है, वे ही देव तीनों गुणों का विभाग करने वाले होने से ‘गुणेश’ इस नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हीं इन परमात्मा गणेश का, जो पर से भी परतर हैं, सर्वसमर्थ हैं, परब्रह्मस्वरूप हैं, मैं रात-दिन ध्यान किया करता हूँ ॥ २७-३३ ॥ गौरीजी बोलीं — मैं आपके कथन से सन्तुष्ट हूँ। लेकिन मुझे विश्वास कैसे हो सकता है ? मैं उन गुणेश का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे करूँ तथा कैसे उनका भजन करूँ? हे विभो! हे शंकर! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो उस उपाय को बताइये ॥ ३४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — गौरी के इन वचनों को सुनकर महेश्वर पुनः उनसे बोले ॥ ३५ ॥ शिवजी बोले — हे देवि ! जबतक तुम अनन्य मन से एकाग्रचित्त होकर तपस्या द्वारा उनकी आराधना नहीं करोगी, तबतक वे प्रभु कैसे तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन देंगे ? ॥ ३६ ॥ देवी बोलीं — हे विभो ! हे देवेश ! हे अनघ ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो यह मुझे सत्य – सत्य बतलाइये कि किस प्रकारसे मुझे तपस्या करनी होगी और किस उपायके द्वारा उनका दर्शन होगा ? ॥ ३७ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार से भगवान् विनायक प्रति देवी का आदर-भाव देखकर भगवान् शिव ने देवी गिरिजा को वह उपाय बतलाया, जिससे कि उनपर गुणवल्लभ गुणेश प्रसन्न हो सकें ॥ ३८ ॥ तदनन्तर भगवान् शिव ने देवी गिरिजा को भगवान् विनायक का एक अक्षरवाला मन्त्र भलीभाँति प्रदान किया और कहा — ‘तुम बारह वर्ष तक तपस्या करो । तदनन्तर तुम्हारे ऊपर विभु विनायक प्रसन्न होंगे । तब भगवान् गुणेश तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन देंगे, इसमें कोई संशय नहीं है ।’ ॥ ३९१/२ ॥ तब देवी पार्वती ने प्रसन्न होकर गिरीश भगवान् शंकर को प्रणाम किया और वे उसी समय तपस्या के लिये जीर्णापुर के उत्तर में स्थित अत्यन्त मनोहर लेखनाद्रि पर्वत पर चली गयीं और वहाँ मन्त्र- जप तथा ध्यान में संलग्न हो गयीं ॥ ४०-४१ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘[भगवान् शिव के द्वारा ] गौरीजी को मन्त्रोपदेश’ नामक उन्यासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७९ ॥ Content is available only for registered users. 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