श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-088
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
अठासीवाँ अध्याय
आठवें मास में बालक गुणेश द्वारा किये गये तल्पासुर एवं दुन्दुभि नामक दैत्यों के वध का आख्यान
अथः अष्टाशीतितमोऽध्यायः
मञ्चकासुरवध

व्यासजी बोले — हे ब्रह्मन् ! आपके मुखारविन्द से मैंने बालक गुणेश के द्वारा किये गये अद्भुत चरित्रों को सुना, वे [श्रवण करने से] सब प्रकार के पापों को दूर करने वाले हैं ॥ १ ॥ तथापि हे सर्वज्ञों में श्रेष्ठ! मेरी सुनने की इच्छा अभी भी पूर्ण नहीं हुई है, अत: आप बालक गुणेश के चरित्र के विषय में मुझे पुनः आदरपूर्वक बतायें ॥ २ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् ! आप पुनः गुणेश की कथा को सावधान होकर सुनें। इस कथा का श्रवण सभी पापों का विनाश करने वाला और धर्म तथा मोक्ष को प्रदान करने वाला है। बालक गुणेश के आठवें मास की बात है। एक दिन ग्रीष्म ऋतु मध्याह्नकाल में देवी पार्वती जब अपने भवन में ग्रीष्म से अत्यन्त पीड़ित हो गयीं तो वे पुष्पवाटिका में चली गयीं ॥ ३-४ ॥ वह वाटिका अशोक, चन्दन, कटहल, आम्र, बहेड़ा, मालती, चम्पक, जाती, चिंचडी, नीम तथा पारिजात वृक्षों की सघन छाया से आच्छादित थी। वहाँ एक रमणीय सरोवर था, जिसमें कमल खिले हुए थे और उस सरोवर का जल अत्यन्त सुन्दर तथा शीतल था । वहाँ बने हुए एक श्रेष्ठ पलंग पर सखी के द्वारा लाये गये शुभ बिस्तर में वे गिरिजा अपने बालक गुणेश को लेकर निःशंक होकर सो गयीं ॥ ५-७ ॥

उस समय पार्वती की सखियाँ उन्हें अश्मा (रत्नादि) -से जटित मूठ वाले चँव रसे पंखा झल रही थीं। जब वे गहरी निद्रा में सो गयीं, तब उसी समय महान् बलशाली दैत्य, जो तल्पासुर नाम से विख्यात था, वह वायु का रूप धारणकर वहाँ आया और शय्या के भीतर प्रविष्ट होकर उस शय्या को लेकर आकाश में उड़ चला ॥ ८-९ ॥ उस तल्पासुर के शब्द से पार्वती की वे दोनों सखियाँ भयभीत हो भूमि पर गिर पड़ीं और इधर शय्या पर स्थित देवी पार्वती बहुत जोर-जोर से चिल्लाने लगीं ॥ १० ॥

आकाश में स्थित होकर ही वे पार्वती क्रन्दन करते हुए कहने लगीं — हे शंकर! दौड़ो ! दौड़ो। हे देव! मैंने कौन-सा [आपका ] अपकार किया है, क्यों आप मेरी उपेक्षा कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥ यह तल्पासुर नामक दैत्य बहुत बलवान् है, यह आकाश को चीरता हुआ तेजी से दौड़ रहा है । आप तो  सब प्रकार से समर्थ हैं, फिर पराये हाथ में गयी हुई अपनी भार्या की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? ॥ १२ ॥ इस पुत्र के साथ सम्बन्ध होने से मुझे नाना प्रकार के दुःख उठाने पड़े हैं। क्या इस दैत्य के हाथों अपने पुत्रसहित मेरी मृत्यु लिखी है ? यह अगर उत्पन्न ही नहीं होता, तो इस प्रकार का बन्धन मुझे कैसे प्राप्त होता? ॥ १३१/२

ब्रह्माजी बोले — माता पार्वती के इस प्रकार के विलाप को सुनकर उमापुत्र वे महामनस्वी बालक गुणेश उस समय बादलों की भाँति दिशाओं को गुँजाते हुए बार-बार उच्च स्वर में गर्जना करने लगे। उस गर्जना से समुद्र, वन तथा खानों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी कम्पित हो उठी ॥ १४-१५ ॥ उस समय जब प्रमथगणों आदि ने देवी पार्वती को वहाँ नहीं देखा, तो वे शोक करने लगे । तदनन्तर बालक गुणेश ने अपने चरणों के प्रहार से उस शय्या पर प्रहार किया। उस ध्वनि से सभी प्राणी एकाएक भयभीत से हो गये। आकाश मानो सैकड़ों भागों में विभक्त हो गया । उनके पादाघात से वह शय्या टुकड़े-टुकड़े होकर भूमि पर गिर पड़ी। तब वह तल्पासुर दीख पड़ा तो बालक गुणेश ने उसे पकड़ लिया और एक हाथ से उन्होंने लीलापूर्वक अपनी माता को इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे कि चातक पक्षी मेघ से छूटी हुई जल की बूँद को अपनी चोंच द्वारा सहसा पकड़ लेता है ॥ १६-१८१/२

बालक गुणेश ने माता को अपने कन्धे पर बैठा लिया और बायें हाथ से तल्पासुर की चोटी पकड़कर बड़े वेग से सहसा उसे भूमि पर पटक दिया। फिर वे एक योगी की भाँति पद्मासन लगाकर उस दैत्य तल्पासुर की देह के ऊपर बैठ गये ॥ १९-२० ॥ बड़े वेग से बलपूर्वक मसल दिया गया वह दैत्य दूर आकाश से भूमि पर गिर पड़ा, मुँह से बार-बार रक्त वमन करते हुए उस दैत्य तल्पासुर ने प्राण त्याग दिये। लोगों ने देखा कि वह दुष्ट दैत्य इक्कीस योजन विस्तार वाला है। वह वृक्षों, पत्थरों, आश्रमों तथा घरों को चूर-चूर करता हुआ गिरा ॥ २१-२२ ॥ तभी गणों तथा सखियों ने उस बालक को देखा तो वे कहने लगीं — हे गौरी! तुम्हारा यह बलवान् बालक कुशल से है और प्रसन्न होकर खेल कर रहा है ॥ २३ ॥

उस समय देवी पार्वती भ्रान्तिवश आकाश, पृथ्वी तथा अपने बालक के विषय में कुछ भी नहीं जान पा रही थीं। तब मुनिजनों ने उनसे कहा — हे सती! आप सावधान मनवाली हो जाइये। आपके बालक ने विशाल रूप धारणकर उस दैत्य तल्पासुर का वध कर डाला है। हे शुभे ! आप अपनी आँखें खोलकर अपने बालक को पहले-जैसी स्थिति में देखिये, जो कि कुशल से है और मंगलकारी है ॥ २४-२५ ॥

ब्रह्माजी बोले — उन मुनिजनों के कथन से वे पार्वती सचेत हो उठीं और तब उन्होंने उस दैत्य को तथा बालक गुणेश को देखा ॥ २५१/२

गौरी बोलीं — क्या मैं कुछ विपरीत देख रही थी कि बालक ने मुझे उठा रखा है। अथवा क्या सचमुच इस बालक ने इक्कीस योजन वाले इस महान् दैत्य का वध कर डाला है। मुझे जीवनदान प्रदान करने वाला यह बालक अपने मातृ-ऋण से उऋण हो गया है ॥ २६-२७ ॥

ऐसा कहकर उन्होंने बालक को ले लिया और शान्तिकर्म करवाया । [ ब्राह्मणों को] अनेक दान प्रदान किये और फिर अपने बालक को स्तनपान कराया ॥ २८ ॥ इस [दैत्यवधरूप] कौतुक को देखकर वहाँ उपस्थित सभी जनों ने बालक की प्रशंसा की और वे अत्यन्त प्रसन्नता से भर गये। इसी समय एक दूसरे महान् असुर ने बड़ा भयंकर शब्द किया ॥ २९ ॥ उसकी शब्दध्वनि दुन्दुभि वाद्य के समान थी, इसलिये वह दुन्दुभि नाम से ही विख्यात भी था । उसकी हथेली के आघात से पृथ्वी चूर-चूर हो जाती थी ॥ ३० ॥ उसके गगनचुम्बी विशाल शरीर से भगवान् सूर्य ढक जाते थे। उसने [ किसी] शिवगण के बालक का रूप धारणकर गौरी के बालक गुणेश को पुकारते हुए कहा — यहाँ आओ, आज हम दोनों मिलकर खेल करते हैं । तब वे बालक गुणेश भी उसके पास चले आये। तब उस बालकरूप दैत्य ने पार्वतीपुत्र गुणेश को अपनी गोद में बिठा लिया और उन्हें विषभरा एक फल दिया ॥ ३१-३२ ॥

फल देकर वह बालक गणेश से बोला — खाओ- खाओ, इस फल को शीघ्र ही खाओ। मैं इस फल को बहुत दूर से लाया हूँ, यह फल जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था का हरण करने वाला है ॥ ३३ ॥

बालक गुणेश ने उसके दुष्ट मनोभाव को जानते हुए वह फल ले लिया और उसे खा भी लिया, पुनः उन्होंने निडर होकर दूसरा फल भी उस दैत्य से माँगा ॥ ३४ ॥

ब्रह्माजी बोले — भगवान् शिव की इच्छा से अमृत भी विष हो जाता है और विष भी अमृत हो जाता है। तदनन्तर वे गुणेश उसके वक्षःस्थल को पकड़कर उसी क्षण उठ खड़े हुए। उन्होंने उसके दोनों घुटनों पर अपने पैर रख दिये और दोनों हाथों से उसकी चोटी को पकड़ लिया। फिर उन्होंने अपने हाथों से उसकी दाढ़ी पकड़कर लीलापूर्वक उसे झुला डाला ॥ ३५-३६ ॥ फिर वे पृथ्वी के समस्त भार को धारणकर उसके जानु-भाग में खड़े होकर नाचने लगे। पीड़ित होकर वह दैत्य कहने लगा — मेरे जानुदेश से नीचे उतरो ॥ ३७ ॥ तुम्हारे बोझ से तथा तुम्हारे द्वारा नाच करने से मेरे शरीर में अत्यन्त पीड़ा हो रही है, अरे गिरिजा के पुत्र ! मुझे छोड़ दो – छोड़ दो, मैं अपने घर को चला जाऊँगा ॥ ३८ ॥

ब्रह्माजी बोले — उस दैत्य के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर भी बालक गुणेश ने उसे नहीं छोड़ा। तब वह दैत्य जोर लगाकर उठा तो उसका शरीर पूरी तरह से टूट गया। इधर बालक गुणेश ने भी उसी क्षण बलपूर्वक उसके सिर को खींचा, जिसके कारण कण्ठनाल से पृथक् होकर उसका सिर बालक गुणेश के हाथ में आ गया। उसी क्षण सारी भूमि रक्त से सन गयी। उस दैत्य के सिर को कमल की भाँति हाथ में लेकर गिरिजापुत्र गुणेश उससे खेलने लगे ॥ ३९-४१ ॥

बालक गुणेश के सभी अंग भी रक्त से लथपथ हो गये, यह देखकर गणों ने माता पार्वती को यह समाचार सुनाया। वहाँ जाकर उन्होंने पुत्र को देखा और पुत्र की वैसी स्थिति देखकर उन्होंने बालक के हाथ से उस दैत्य के सिर को दूर फेंक दिया और वस्त्र से बालक को पोंछा । फिर उसे स्नान कराया, स्वयं भी स्नान किया और प्रसन्नतापूर्वक बालक गुणेश को स्तनपान कराया ॥ ४२-४३ ॥

तदनन्तर उनकी सखियाँ तथा गण वहाँ आये और उन्होंने बालक की कुशल पूछी। वे बोलीं — शिवभक्ति के कारण यह बालक अत्यन्त कुशल से है ॥ ४४ ॥ महर्षि मरीचि द्वारा किये गये रक्षाविधान के कारण भी मेरा बालक कुशल से है । तदनन्तर उन गणों ने उस दुष्ट दानव को ले जाकर दूर फेंक दिया ॥ ४५ ॥ तब अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर सभी गण तथा सखियाँ अपने-अपने घरों को गये। पार्वती भी अत्यन्त हर्षयुक्त होकर बालक गुणेश को लेकर अपने भवन में प्रविष्ट हुईं ॥ ४६ ॥

॥ इस प्रकार गणेशपुराण के अन्तर्गत क्रीडाखण्ड में ‘मंचकासुर का वध’ नामक अठासीवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८८ ॥

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