March 26, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्यम् अध्याय 01 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः सूतजी के द्वारा ऋषियों के प्रति श्रीमद्देवीभागवत के श्रवण की महिमा का कथन सृष्टौ या सर्गरूपा जगदवनविधौ पालनी या च रौद्री संहारे चापि यस्या जगदिदमखिलं क्रीडनं या पराख्या । पश्यन्ती मध्यमाथो तदनु भगवती वैखरी वर्णरूपा सास्मद्वाचं प्रसन्ना विधिहरिगिरिशा-राधितालङ्करोतु ॥ १ ॥ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ २ ॥ ॥ ऋषय ऊचुः ॥ सूत जीव समा बह्वीर्यस्त्वं श्रावयसीह नः । कथा मनोहराः पुण्या व्यासशिष्य महामते ॥ ३ ॥ सर्वपापहरं पुण्यं विष्णोश्चरितमद्भुतम् । अवतारकथोपेतमस्माभिर्भक्तितः श्रुतम् ॥ ४ ॥ शिवस्य चरितं दिव्यं भस्मरुद्राक्षयोस्तथा । सेतिहासञ्च माहात्म्यं श्रुतं तव मुखाम्बुजात् ॥ ५ ॥ अधुना श्रोतुमिच्छामः पावनात् पावनं परम् । भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणामनायासेन सर्वशः ॥ ६ ॥ तत् त्वं ब्रूहि महाभाग येन सिध्यन्ति मानवाः । कलावपि परं त्वत्तो न विद्मः संशयच्छिदम् ॥ ७ ॥ जगत् सृष्टिकार्य में जो उत्पत्तिरूपा, रक्षाकार्य में पालनशक्तिरूपा, संहारकार्य में रौद्ररूपा हैं, सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच जिनके लिये क्रीडास्वरूप है, जो परा-पश्यन्ती-मध्यमा तथा वैखरी वाणी में अभिव्यक्त होती हैं और जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश द्वारा निरन्तर आराधित हैं, वे प्रसन्न चित्तवाली देवी भगवती मेरी वाणी को अलंकृत (परिशुद्ध) करें ॥ १ ॥ [ बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि ] श्रीनारायण तथा नरों में श्रेष्ठ श्रीनर, भगवती सरस्वती और महर्षि वेदव्यास को प्रणाम करने के पश्चात् ही जय (इतिहासपुराणादि सद्ग्रन्थों ) – का पाठ-प्रवचन करना चाहिये ॥ २ ॥ ऋषिगण बोले — हे सूतजी ! हे महामते ! हे व्यासशिष्य ! आप दीर्घजीवी हों; आप हमलोगोंको नानाविध पुण्यप्रदायिनी एवं मनोहारिणी कथाएँ सुनाते रहते हैं ॥ ३ ॥ भगवान् विष्णु के सर्वपापविनाशक, परम पवित्र एवं उन अवतार-कथाओं से सम्बन्धित अद्भुत चरित्रों को हमने भक्तिपूर्वक सुना और इसी प्रकार हमने भगवान् शिव के अलौकिक चरित्र तथा भस्म और रुद्राक्ष के ऐतिहासिक माहात्म्य का श्रवण आपके मुखारविन्द से किया ॥ ४-५ ॥ हमलोग अब ऐसी परम पावन कथा सुनना चाहते हैं, जो बिना प्रयास के ही मनुष्यों को भोग एवं मोक्ष प्रदान करने में पूर्णरूप से सहायक हो ॥ ६ ॥ हे महाभाग ! अतः आप उस कथा का वर्णन करें, जिसके द्वारा मानव कलियुग में भी सिद्धियाँ प्राप्त कर लें; क्योंकि हम आपसे बढ़कर किसी अन्य को नहीं जानते हैं, जो हमारी शंकाओं का निवारण कर सके ॥ ७ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ साधु पृष्टं महाभागा लोकानां हितकाम्यया । सर्वशास्त्रस्य यत् सारं तद्बो वक्ष्याम्यशेषतः ॥ ८ ॥ तावद् गर्जन्ति तीर्थानि पुराणानि व्रतानि च । यावन्न श्रूयते सम्यग् देवीभागवतं नरैः ॥ ९ ॥ तावत् पापाटवी नॄणां क्लेशदादभ्रकण्टका । यावन्न परशुः प्राप्तो देवीभागवताभिधः ॥ १० ॥ तावत् क्लेशावहं नृणामुपसर्गमहातमः । यावन्नैवोदयं प्राप्तो देवीभागवतोष्णगुः ॥ ११ ॥ ॥ ऋषय ऊचुः ॥ सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर । कीदृशं तत्पुराणं हि विधिस्तच्छ्रवणे च कः ॥ १२ ॥ कतिभिर्वासरैरेतच्छ्रोतव्यं किञ्च पूजनम् । कैर्मानवैः श्रुतं पूर्वं कान्कान्कामानवाप्नुयुः ॥ १३ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ विष्णोरंशो मुनिर्जातः सत्यवत्यां पराशरात् । विभज्य वेदांश्चतुरः शिष्यानध्यापयत्पुरा ॥ १४ ॥ व्रात्यानां द्विजबन्धूनां वेदेष्वनधिकारिणाम् । स्त्रीणां दुर्मेधसां नॄणां धर्मज्ञानं कथं भवेत् ॥ १५ ॥ विचार्यैतत् तु मनसा भगवान् बादरायणः । पुराणसंहितां दध्यौ तेषां धर्मविधित्सया ॥ १६ ॥ अष्टादश पुराणानि स कृत्वा भगवान् मुनिः । मामेवाध्यापयामास भारताख्यानमेव च ॥ १७ ॥ देवीभागवतं तत्र पुराणं भोगमोक्षदम् । स्वयं तु श्रावयामास जनमेजयभूपतिम् ॥ १८ ॥ सूतजी बोले — हे महाभाग ऋषियो ! आप लोगों ने लोककल्याण की भावना से अत्यन्त उत्तम प्रश्न किया है, अतः मैं आप सभी के लिये समस्त शास्त्रों का जो सार है, उसे पूर्णरूप से बताऊँगा ॥ ८ ॥ समस्त तीर्थ, पुराण और व्रत [ अपनी श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए ] तभी तक गर्जना करते हैं, जब तक मनुष्य श्रीमद्देवीभागवत का सम्यक् रूप से श्रवण नहीं कर लेते ॥ ९ ॥ मनुष्यों के लिये पापरूपी अरण्य तभी तक दुःखप्रद एवं कंटकमय रहता है, जब तक श्रीमद्देवीभागवतरूपी परशु (कुठार) उपलब्ध नहीं हो जाता ॥ १० ॥ मनुष्यों को उपसर्ग (ग्रहण) – रूपी घोर अन्धकार तभी तक कष्ट पहुँचाता है, जब तक श्रीमद्देवीभागवतरूपी सूर्य उनके सम्मुख उदित नहीं हो जाते ॥ ११ ॥ ऋषिगण बोले — हे वक्ताओं में श्रेष्ठ महाभाग सूतजी ! आप हमें बतायें कि वह श्रीमद्देवीभागवत पुराण कैसा है और उसके श्रवण की विधि क्या है ? उस पुराण को कितने दिनों में सुनना चाहिये, [ उसके श्रवण की अवधि में] पूजन – विधान क्या है, प्राचीन काल में किन-किन मनुष्यों ने इसे सुना और उनकी कौन-कौनसी कामनाएँ पूर्ण हुईं ? ॥ १२-१३ ॥ सूतजी बोले — प्राचीन काल में पराशरऋषि द्वारा सत्यवती के गर्भ से विष्णु के अंशस्वरूप मुनि व्यास उत्पन्न हुए, जिन्होंने वेदों का चार विभाग करके उन्हें अपने शिष्यों को पढ़ाया ॥ १४ ॥ पतितों, ब्राह्मणाधमों, वेदाध्ययन के अनधिकारियों, स्त्रियों एवं दूषित बुद्धिवाले मनुष्यों को धर्म का ज्ञान कैसे हो — मन में ऐसा विचार करके भगवान् बादरायण व्यासजी ने उनके धर्मज्ञानार्थ पुराण – संहिता का प्रणयन किया ॥ १५-१६ ॥ उन भगवान् व्यासमुनि ने अठारह पुराणों एवं महाभारत का प्रणयन करके सर्वप्रथम मुझे ही पढ़ाया ॥ १७ ॥ उन पुराणों में श्रीमद्देवीभागवतपुराण भोग एवं मोक्ष को देने वाला है । व्यासजी ने राजा जनमेजय को यह पुराण स्वयं सुनाया था ॥ १८ ॥ पूर्वमस्य पिता राजा परीक्षित् तक्षकाहिना । सन्दष्टस्तस्य संशुध्यै राज्ञा भागवतं श्रुतम् ॥ १९ ॥ नवभिर्दिवसैः श्रीमद्वेदव्यासमुखाम्बुजात् । त्रैलोक्यमातरं देवीं पूजयित्वा विधानतः ॥ २० ॥ नवाहयज्ञे सम्पूर्णे परीक्षिदपि भूपतिः । दिव्यरूपधरो देव्याः सालोक्यं तत्क्षणादगात् ॥ २१ ॥ पितुर्दिव्यां गतिं राजा विलोक्य जनमेजयः । व्यासं मुनिं समभ्यर्च्य परां मुदमवाप ह ॥ २२ ॥ अष्टादशपुराणानां मध्ये सर्वोत्तमं परम् । देवीभागवतं नाम धर्मकामार्थमोक्षदम् ॥ २३ ॥ शृण्वन्ति सदा भक्त्या देव्या भागवतीं कथाम् । तेषां सिद्धिर्न दूरस्था तस्मात् सेव्या सदा नृभिः ॥ २४ ॥ दिनमर्धं तदर्धं वा मुहूर्तं क्षणमेव वा । ये शृण्वन्ति नरा भक्त्या न तेषां दुर्गतिः क्वचित् ॥ २५ ॥ सर्वयज्ञेषु तीर्थेषु सर्वदानेषु यत् फलम् । सकृत् पुराणश्रवणात् तत् फलं लभते नरः ॥ २६ ॥ कृतादौ बहवो धर्माः कलौ धर्मस्तु केवलम् । पुराणश्रवणादन्यो विद्यते नापरो नृणाम् ॥ २७ ॥ धर्माचारविहीनानां कलावल्पायुषां नृणाम् । व्यासो हिताय विदधे पुराणाख्यं सुधारसम् ॥ २८ ॥ सुधां पिबन्नेक एव नरः स्यादजरामरः । देव्याः कथामृतं कुर्यात् कुलमेवाजरामरम् ॥ २९ ॥ पूर्वकाल में इन जनमेजय के पिता राजा परीक्षित् तक्षक-नाग द्वारा काट लिये गये । अतः पिता की संशुद्धि ( शुभगति ) – के लिये राजा ने तीनों लोकों की जननी देवी भगवती का विधिवत् पूजन-अर्चन करके नौ दिनों तक व्यासजी के मुखारविन्द से इस श्रीमद्देवीभागवत- पुराण का श्रवण किया ॥ १९-२० ॥ इस नवाहयज्ञ के सम्पूर्ण हो जाने पर राजा परीक्षित् ने उसी समय दिव्यरूप धारण करके देवी का सालोक्य प्राप्त किया ॥ २१ ॥ राजा जनमेजय अपने पिता की दिव्य गति देखकर और महर्षि वेदव्यास की विधिवत् पूजा करके परम प्रसन्न हुए ॥ २२ ॥ सभी अठारह पुराणों में यह श्रीमद्देवीभागवतपुराण सर्वश्रेष्ठ है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को प्रदान करने वाला है ॥ २३ ॥ जो लोग सदा भक्ति-श्रद्धापूर्वक श्रीमद्देवीभागवत की कथा सुनते हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होने में रंचमात्र भी विलम्ब नहीं होता। इसलिये मनुष्यों को इस पुराण का सदा पठन-श्रवण करना चाहिये ॥ २४ ॥ पूरे दिन, दिनके आधे समयतक, चौथाई समयतक, मुहूर्तभर अथवा एक क्षण भी जो लोग भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, उनकी कभी भी दुर्गति नहीं होती ॥ २५ ॥ मनुष्य सभी यज्ञों, तीर्थों तथा दान आदि शुभ कर्मोंका जो फल प्राप्त करता है, वही फल उसे केवल एक बार श्रीमद्देवीभागवतपुराणके श्रवणसे प्राप्त हो जाता है ॥ २६ ॥ सत्ययुग आदि युगों में तो अनेक प्रकारके धर्मोंका विधान था, किंतु कलियुगमें पुराण – श्रवणके अतिरिक्त मनुष्योंके लिये अन्य कोई सरल धर्म विहित नहीं है ॥ २७ ॥ युगधर्म एवं सदाचारसे रहित तथा अल्प आयुवाले मनुष्योंके कल्याणार्थ महर्षि वेदव्यासने अमृतरसमय श्रीमद्देवीभागवतनामक पुराणकी रचना की ॥ २८ ॥ अमृतके पानसे तो केवल एक ही मनुष्य अजर- अमर होता है, किंतु भगवतीका कथारूप अमृत सम्पूर्ण कुलको ही अजर-अमर बना देता है ॥ २९ ॥ मासानां नियमो नात्र दिनानां नियमोऽपि न । सदा सेव्यं सदा सेव्यं देवीभागवतं नरः ॥ ३० ॥ आश्विने मधुमासे वा तपोमामे शुचौ तथा । चतुर्षु नवरात्रेषु विशेषात्फलदायकम् ॥ ३१ ॥ अतो नवाहयज्ञोऽयं सर्वस्मात्पुण्यकर्मणः । फलाधिकप्रदानेन प्रोक्तः पुण्यप्रदो नृणाम् ॥ ३२ ॥ ये दुर्हृदः पापरता विमूढा मित्रद्रुहो वेदविनिंदकाश्च । हिंसारता नास्तिकमार्गसक्ता नवाहयज्ञेन पुनन्ति ते कलौ ॥ ३३ ॥ परस्वदा राहणे तिऽलुब्धा ये वै नराः कल्पभारभाजः । गोदेवता ब्राह्मणभक्तिहीना नवाहज्ञेन भवन्ति शुद्धाः ॥ ३४ ॥ तपोभिरुग्रैर्व्रततीर्थ सेवनैर्दानैरनेकैर्नियमैर्मखैश्व । हुतर्ज पर्यच्च फलेन लभ्यते नवाहयज्ञेन तदाप्यते नृणाम् ॥ ३५ ॥ तथा न गङ्गा न गया न काशी न नैमिषं नो मथुरा न पुष्करम् । पुनाति सद्यो बदरीवनं नो यथा हि देवीमख एष विप्राः ॥ ३६ ॥ अतो भागवतं देव्याः पुराणं परतः परम् । धर्मार्थकाममोक्षाणामुत्तमं साधनं मतम् ॥ ३७ ॥ आश्विनस्य सिते पक्षेकन्याराशिगते रवौ । महाष्टम्यां समभ्यर्च्य हैमसिंहासन स्थितम् ॥ ३८ ॥ देवीप्रतिपदं भक्त्या श्रीभागवतपुस्तकम् । दद्याद् विप्राय योग्याय स देव्याः पदवीं लभेत् ॥ ३९ ॥ देवीभागवतस्यापि श्लोकं श्लोकार्द्धमेव वा । भक्त्या यश्च पठेन्नित्यं स देव्याः प्रीतिभाग्भवेत् ॥ ४० ॥ श्रीमद्देवीभागवत के कथा-श्रवण में महीनों तथा दिनों का कोई भी नियम नहीं है। अतएव मानवों द्वारा इसका सदा ही सेवन ( पठन – श्रवण ) किया जाना चाहिये ॥ ३० ॥ आश्विन, चैत्र, माघ तथा आषाढ़ – इन महीनों के चारों नवरात्रों में इस पुराण का श्रवण विशेष फल प्रदान करता है ॥ ३१ ॥ अतएव श्रीमद्देवीभागवत का यह नवाहयज्ञ समस्त पुण्यकर्मों से अधिक फलदायक होने के कारण मनुष्यों के लिये विशेष पुण्यप्रद कहा गया है ॥ ३२ ॥ जो कलुषित हृदय वाले, पापी, मूर्ख, मित्रद्रोही, वेदों की निन्दा करने वाले, हिंसा में रत और नास्तिक मार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्य हैं, वे भी कलियुग में इस नवाहयज्ञ के अनुष्ठान से पवित्र हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ जो मनुष्य दूसरों के धन तथा परायी स्त्रियों के लिये लालायित रहते हैं, पाप के बोझ से दबे हुए हैं और गो-ब्राह्मण-देवताओं की भक्ति से रहित हैं, वे भी इस नवाहयज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ जो फल कठिन तपस्याओं, व्रतों, तीर्थ सेवन, अनेकविध दान, नियमों, यज्ञों, हवन एवं जप आदि के करने से प्राप्त नहीं होता है, वह फल मनुष्यों को श्रीमद्देवी- भागवत के नवाहयज्ञ से प्राप्त हो जाता है ॥ ३५ ॥ हे विप्रो ! गंगा, गया, काशी, नैमिषारण्य, मथुरा, पुष्कर तथा बदरिकारण्य भी मनुष्यों को उतना शीघ्र पवित्र नहीं कर पाते हैं, जितना कि श्रीमद्देवीभागवत का यह नवाहयज्ञ लोगों को पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥ अतएव श्रीमद्देवीभागवतपुराण सभी पुराणों में श्रेष्ठतम है। इसे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति का उत्तम साधन माना गया है ॥ ३७ ॥ जो आश्विन महीने के शुक्लपक्ष में सूर्य के कन्या- राशि में पहुँचने पर महाष्टमी तिथि को स्वर्ण सिंहासन पर स्थित देवी के प्रीतिप्रद श्रीमद्देवीभागवत – ग्रन्थ का पूजन करके उसे किसी योग्य ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक देता है, वह देवी के परमपद को प्राप्त करता है ॥ ३८-३९ ॥ जो मनुष्य प्रतिदिन श्रीमद्देवीभागवतपुराण के एक अथवा आधे श्लोक का भी भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह जगदम्बा का कृपापात्र हो जाता है ॥ ४० ॥ उपसर्गभवं घोरं महामारीसमुद्भवम् । उत्पातानखिलांश्चापि हंति श्रवणमात्रतः ॥ ४१ ॥ बालग्रहकृतं यच्च भूतप्रेतकृतं भयम् । देवीभागवतस्यास्य श्रवणाद् याति दूरतः ॥ ४२ ॥ यस्तु भागवतं देव्याः पठेद् भक्त्या शृणोति वा । धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं च लभते नरः ॥ ४३ ॥ श्रवणाद्वसुदेवोऽस्य प्रसेनान्वेषणे गतम् । चिरायितं प्रियं पुत्रं कृष्णं लब्ध्वा मुमोद ह ॥ ४४ ॥ य एतां शृणुयाद् भक्त्या श्रीमद्भागवत कथाम् । भुक्तिं मुक्तिं स लभते भक्त्या यश्च पठेदिमाम् ॥ ४५ ॥ अपुत्रो लभते पुत्रं दरिद्रो धनवान् भवेत् । रोगी रोगात् प्रमुच्येत श्रुत्वा भागवतामृतम् ॥ ४६ ॥ वंध्या वा काकवंध्या वा मृतवत्सा च याङ्गना । देवीभागवतं श्रुत्वा लभेत् पुत्रं चिरायुषम् ॥ ४७ ॥ पूजितं यद् गृहे नित्यं श्रीभागवतपुस्तकम् । तद् गृहं तीर्थंभूतं हि वसतां पापनाशकम् ॥ ४८ ॥ अष्टम्यां वा चतुर्दश्यां नवम्यां भक्तिसंयुतः । यः पठेच्छृणुयाद् वापि स सिद्धिं लभते पराम् ॥ ४९ ॥ पठन् द्विजो वेदविदग्रणीर्भवेद् बाहुप्रजातो धरणीपतिः स्यात् । वैश्यः पठन् वित्तसमृद्धिमेति शूद्रोऽपि शृण्वन्स्वकृतोत्तमः स्यात् ॥ ५० ॥ ॥ इति श्रीस्कन्द पुराणे मानसखण्डे देवीभागवतमाहात्म्ये प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ महामारी से उत्पन्न उपद्रवों के भीषण भय तथा समस्त प्रकार के उत्पात (उल्कापात, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि) इस श्रीमद्देवीभागवत पुराण के श्रवण- मात्र से विनष्ट हो जाते हैं ॥ ४१ ॥ बालग्रहों 1 (स्कन्दग्रह, स्कन्दापस्मार, शकुनी, रेवती, पूतना, अन्धपूतना, शीतपूतना, मुखमण्डिका और नैगमेष) तथा भूत-प्रेत आदि से उत्पन्न भय इस श्रीमद्देवीभागवत पुराण के श्रवण से बहुत दूर से ही भाग जाते हैं ॥ ४२ ॥ जो व्यक्ति भक्ति-भाव से देवी के इस भागवत- पुराण का पाठ अथवा श्रवण करता है; वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥ इस श्रीमद्देवीभागवत पुराण के श्रवण से वसुदेवजी प्रसेन को खोजने के लिये गये हुए और बहुत समय तक न लौटे हुए अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण को प्राप्त करके प्रसन्न हुए ॥ ४४ ॥ जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस श्रीमद्देवीभागवत पुराण की कथा को पढ़ता है तथा इसका श्रवण करता है, वह भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥ अमृतस्वरूप इस श्रीमद्देवीभागवत के श्रवण से पुत्रहीन मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है, दरिद्र व्यक्ति धन से सम्पन्न हो जाता है तथा रोगग्रस्त मनुष्य रोग से मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥ वन्ध्या स्त्री, एक सन्तान वाली स्त्री अथवा वह स्त्री जिसकी सन्तान पैदा होकर मर जाती हो – वे भी श्रीमद्देवीभागवतपुराण सुनकर दीर्घ आयु वाला पुत्र प्राप्त करती हैं ॥ ४७ ॥ जिस घर में नित्य श्रीमद्देवीभागवत पुराण का पूजन किया जाता है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है तथा उसमें निवास करने वाले लोगों के पापों का नाश हो जाता है ॥ ४८ ॥ जो मनुष्य अष्टमी, नवमी अथवा चतुर्दशी तिथियों को श्रद्धापूर्वक इसे पढ़ता या सुनता है, वह परम सिद्धि को प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥ इस श्रीमद्देवीभागवत पुराण का पाठ करने वाला ब्राह्मण वेदवेत्ताओं में अग्रगण्य हो जाता है, क्षत्रिय राजा हो जाता है, वैश्य धन-सम्पदा से सम्पन्न हो जाता है और शूद्र भी इसके श्रवणमात्र से अपने कुल (बन्धु- बान्धवों) – के बीच श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है ॥ ५० ॥ 1. सुश्रुत संहित उत्तरतन्त्र २७।४-५ ॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये देवीभागवत- श्रवणमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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