April 21, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-10 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-दशमोऽध्यायः दसवाँ अध्याय देवी द्वारा महिषासुर के अमात्य को अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्य का वापस लौटकर देवी द्वारा कही गयी बातें महिषासुर को बताना मन्त्री द्वारा महिषासुरेण देव्या सह विवाहप्रस्तावः व्यासजी बोले — हे महाराज ! उसकी यह बात सुनकर नारी श्रेष्ठ भगवती जोर से हँसकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में उससे कहने लगीं ॥ १ ॥ देवी बोलीं — हे मन्त्रिवर! मुझे देवमाता के रूप में जानो। मैं सभी दैत्यों का नाश करने वाली तथा महालक्ष्मी नाम से विख्यात हूँ ॥ २ ॥ दानवेन्द्र महिषासुर से पीड़ित और यज्ञभाग से बहिष्कृत सभी देवताओं ने उसके संहार के लिये मुझसे प्रार्थना की है। हे मन्त्रि श्रेष्ठ ! इसलिये उसके वध के लिये पूर्णरूप से तत्पर होकर मैं बिना किसी सेना के अकेली ही आज यहाँ आयी हूँ ॥ ३-४ ॥ हे अनघ ! तुमने जो शान्तिपूर्वक आदर के साथ मेरा स्वागत करके मधुर वाणी में मुझसे बात की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; अन्यथा अपनी कालाग्नि के समान दृष्टि से तुम्हें भस्म कर देती । मधुरता से युक्त वचन भला किसके लिये प्रीतिकारक नहीं होता ! ॥ ५-६ ॥ अब तुम जाओ और मेरे शब्दों में उस पापी महिषासुर से कह दो — यदि तुम्हें जीवित रहने की अभिलाषा हो तो अभी पाताललोक में चले जाओ, नहीं तो मैं तुझ पापी तथा दुष्ट को रणभूमि में मार डालूंगी। मेरे बाणों से छिन्न-भिन्न शरीरवाले होकर तुम यमपुरी चले जाओगे ॥ ७-८ ॥ हे मूर्ख ! इसे मेरी दयालुता समझकर तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ, नहीं तो तुम्हारे मार दिये जाने पर देवतागण निश्चय ही तत्काल स्वर्ग का राज्य पा जायँगे। इसलिये जबतक मेरे बाण तुझपर नहीं गिरते, उसके पूर्व ही तुम शीघ्रतापूर्वक समुद्रसहित पृथ्वी का त्याग करके पाताललोक चले जाओ ॥ ९-१० ॥ हे असुर ! यदि तुम्हारे मन में युद्ध की इच्छा हो तो अपने सभी महाबली वीरों को साथ लेकर शीघ्र आ जाओ । मैं सबको यमपुरी पहुँचा दूँगी ॥ ११ ॥ हे महामूढ ! मैंने युग-युग में तुम्हारे जैसे असंख्य दैत्यों का संहार किया है, उसी प्रकार मैं तुम्हें भी रणमें मार डालूंगी। [मेरा सामना करके ] तुम मेरे शस्त्र धारण करने के परिश्रम को सफल करो, नहीं तो यह श्रम व्यर्थ हो जायगा । कामपीड़ित तुम रणभूमि में मेरे साथ युद्ध करो ॥ १२-१३ ॥ हे दुरात्मन् ! तुम इस बात पर अभिमान मत करो कि मुझे ब्रह्मा का वर प्राप्त हो गया है। हे मूढ़ ! केवल स्त्री के द्वारा वध्य होने के कारण तुमने श्रेष्ठ देवताओं को बहुत पीड़ित किया है ॥ १४ ॥ अतः ब्रह्माजी का वचन सत्य करना है, इसीलिये स्त्री का अनुपम रूप धारण करके मैं तुझ पापी का संहार करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। हे मूढ ! यदि जीवित रहने की तुम्हारी इच्छा हो तो तत्काल पृथ्वीलोक छोड़कर तुम सर्पों से भरे पाताललोक को चले जाओ ॥ १५-१६ ॥ व्यासजी बोले — देवी ने उससे ऐसा कहा, तब उनकी बात सुनकर वह पराक्रमशाली मन्त्रि श्रेष्ठ उनसे सारगर्भित वचन कहने लगा — ॥ १७ ॥ हे देवि ! आप अभिमान में चूर होकर एक साधारण स्त्री के समान बात कर रही हैं। कहाँ वे महिषासुर और कहाँ आप, यह युद्ध तो असम्भव ही दीखता है ॥ १८ ॥ आप यहाँ अकेली हैं और उसपर भी सद्यः युवावस्था को प्राप्त सुकुमार बाला हैं। [ इसके विपरीत ] वे महिषासुर विशाल शरीर वाले हैं; ऐसी स्थिति में उनकी और आपकी तुलना कल्पनातीत है ॥ १९ ॥ उनके पास हाथी घोड़े और रथ से परिपूर्ण, पैदल सैनिकों से सम्पन्न तथा अनेक प्रकार के आयुधों से सज्जित अनेक प्रकार की सेना है ॥ २० ॥ मालती के पुष्पों को कुचल डालने में गजराज को भला कौन-सा परिश्रम करना पड़ता है। हे सुजघने ! उसी प्रकार युद्ध में आपको मारने में महिषासुर को कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा ॥ २१ ॥ यदि मैं आपको थोड़ा भी कठोर वचन कह दूँ तो वह श्रृंगाररस के विरुद्ध होगा; और मैं रसभंग से डरता हूँ ॥ २२ ॥ हमारे राजा महिषासुर देवताओं के शत्रु हैं, किंतु वे आपके प्रति अनुरागयुक्त हैं। [मेरे राजा ने कहा है कि ] मैं आपसे साम तथा दाननीतियों से पूर्ण वचन ही बोलूँ, अन्यथा मैं झूठ बोलने वाली, मिथ्या अभिमान में भरकर चतुरता दिखाने वाली और रूप तथा यौवन के अभिमान में चूर रहनेवाली आपको इसी समय अपने बाणसे मार डालता ॥ २३-२४ ॥ आपके अलौकिक रूप के विषय में सुनकर मेरे स्वामी मोहित हो गये हैं। उनकी प्रसन्नता के लिये ही मुझे प्रिय वचन बोलना पड़ रहा है ॥ २५ ॥ उनका सम्पूर्ण राज्य तथा धन आपका है; क्योंकि वे महाराज महिषासुर निश्चय ही आपके दास हो चुके हैं। अतः हे विशालनयने ! इस मृत्युदायक रोष का त्याग करके उनके प्रति प्रेमभाव प्रदर्शित कीजिये ॥ २६ ॥ हे भामिनि ! मैं भक्तिभाव से आपके चरणों पर गिर रहा हूँ । हे पवित्र मुसकानवाली! आप शीघ्र ही महाराज महिष की पटरानी बन जाइये ॥ २७ ॥ महिषासुर को स्वीकार कर लेने से आपको तीनों लोकों का सम्पूर्ण उत्तम वैभव तथा समस्त सांसारिक सुख प्राप्त हो जायगा ॥ २८ ॥ देवी बोलीं — हे सचिव ! सुनो, मैं बुद्धिचातुर्य से सम्यक् विचार करके तथा शास्त्रप्रतिपादित मार्ग से निर्णय करके सारभूत बातें बताऊँगी ॥ २९ ॥ तुम्हारी बातों से मैंने अपनी बुद्धि द्वारा जान लिया कि तुम महिषासुर के प्रधानमन्त्री हो और तुम भी [उसी की तरह ] पशुबुद्धि स्वभाव वाले हो ॥ ३० ॥ जिस राजा के तुम्हारे जैसे मन्त्री हों, वह बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ब्रह्मा ने निश्चय ही तुम दोनों का यह समान योग रचा है ॥ ३१ ॥ हे मूर्ख ! तुमने जो यह कहा कि ‘तुम स्त्रीस्वभाव वाली हो’, तो अब तुम इस बात पर जरा विचार करो कि क्या मैं पुरुष नहीं हूँ ? वस्तुतः उसी के स्वभाव वाली मैं इस समय स्त्रीवेषधारिणी हो गयी हूँ ॥ ३२ ॥ तुम्हारे स्वामी महिषासुर ने पूर्वकाल में जो स्त्री से मारे जाने का वरदान माँगा था, उसीसे मैं समझती हूँ कि वह महामूर्ख है। वह वीररसका थोड़ा भी जानकार नहीं है ॥ ३३ ॥ स्त्री के द्वारा मारा जाना पराक्रमहीन के लिये भले ही सुखकर हो, किंतु वीर के लिये यह कष्टप्रद होता है 1 महिष की अपनी जो बुद्धि हो सकती है, उसीके अनुसार तुम्हारे स्वामी ने ऐसा वरदान माँगा । इसीलिये मैं स्त्री-रूप धारण करके अपना कार्य सिद्ध करने के लिये यहाँ आयी हूँ। मैं तुम्हारे धर्मशास्त्र – विरोधी वचनों से क्यों डरूँ? ॥ ३४-३५ ॥ जब दैव प्रतिकूल होता है, तब एक तिनका भी वज्र-तुल्य हो जाता है और जब वह दैव अनुकूल होता है, तब वज्र भी तूल ( रूई) – के समान कोमल हो जाता है ॥ ३६ ॥ जिसकी मृत्यु सन्निकट हो उसके लिये सेना, अस्त्र-शस्त्र तथा किले की सुरक्षा, सैन्यबल आदि प्रपंचों से क्या लाभ ! ॥ ३७ ॥ जब कालयोग से देह के साथ जीव का सम्बन्ध स्थापित होता है, उसी समय विधाता के द्वारा सुख, दुःख तथा मृत्यु – सब कुछ निर्धारित कर दिया जाता है। दैव ने जिस प्राणी की मृत्यु जिस प्रकार से निश्चित कर दी है, उसकी मृत्यु उसी प्रकार से होगी, इसके विपरीत नहीं; यह पूर्ण सत्य है ॥ ३८-३९ ॥ जिस प्रकार से ब्रह्मा आदि देवताओं के भी जन्म और मृत्यु सुनिश्चित किये गये रहते हैं, समय आने पर उसी प्रकार से उनका भी जन्म-मरण होता है तब अन्य लोगों के विषय में विचार ही क्या ! उन ब्रह्मा आदि मरणधर्मा के वरदान से गर्वित होकर जो लोग यह समझते हैं कि ‘हम नहीं मरेंगे’ वे मूर्ख तथा अल्पबुद्धि वाले हैं ॥ ४०-४१ ॥ अतएव अब तुम शीघ्र जाओ और अपने राजा से मेरी बात कह दो। इसके बाद तुम्हारे राजा जैसी आज्ञा दें, तुम वैसा करो। इन्द्र को स्वर्ग प्राप्त हो जाय और देवताओं को यज्ञ का भाग मिलने लगे। तुम लोग यदि जीवित रहना चाहते हो, तो पाताललोक चले जाओ और हे मूर्ख ! यदि दुष्टात्मा महिषासुर का विचार विपरीत हो, तो वह मरने के लिये तैयार यदि तुम यह मानते हो कि विष्णु आदि प्रधान देवता होकर मेरे साथ युद्ध करे ॥ ४२-४४ ॥ तो युद्ध में पहले ही परास्त किये जा चुके हैं, तो उस समय उसका कारण था – विपरीत भाग्य तथा ब्रह्माजी का वरदान ॥ ४५ ॥ व्यासजी बोले — देवीका यह वचन सुनकर वह दानव सोचने लगा — अब मुझे क्या करना चाहिये ? मैं इसके साथ युद्ध करूँ या राजा महिष के पास लौट चलूँ ॥ ४६ ॥ विवाह के लिये [ उसे राजी करने की] मुझे आज्ञा दी है तो [ किंतु यह भी है कि ] कामातुर महाराज महिष ने फिर रसभंग करके मैं राजा के पास लौटकर कैसे जाऊँ ? ॥ ४७ ॥ अन्त में अब मुझे यही विचार उचित प्रतीत होता है कि बिना युद्ध किये ही राजा के पास शीघ्र चला जाऊँ और जैसा सामने उपस्थित है, वैसा उनको बता दूँ । उसके बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा महिष अपने चतुर मन्त्रियों से विचार-विमर्श करके जो उचित समझेंगे, उसे करेंगे ॥ ४८-४९ ॥ मुझे अचानक इस स्त्री के साथ युद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि जय अथवा पराजय- इन दोनों में राजा का अप्रिय हो सकता है ॥ ५० ॥ यदि यह सुन्दरी मुझे मार डाले अथवा मैं ही जिस किसी उपाय से इसको मार डालूँ, तब भी राजा महिष निश्चितरूप से कुपित होंगे। अतः अब मैं वहीं पर चलकर इस सुन्दरी के द्वारा आज जो कुछ कहा गया है, वह सब राजा महिष को बता दूँगा। तत्पश्चात् उनकी जैसी रुचि होगी, वैसा वे करेंगे ॥ ५१-५२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा विचार करके वह बुद्धिमान् मन्त्री राजा (महिष) के पास गया और उसे प्रणाम कर दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा — ॥ ५३ ॥ मन्त्री बोला — हे राजन् ! सुन्दर रूप वाली वह देवी सिंह पर आरूढ है, उस मनोहर देवी की अठारह भुजाएँ हैं और उस श्रेष्ठ देवी ने उत्तम कोटि के आयुध धारण कर रखे हैं ॥ ५४ ॥ हे महाराज ! मैंने उससे कहा — हे भामिनि ! तुम राजा महिष से प्रेम कर लो और तीनों लोकों के स्वामी उन महाराज की प्रिय पटरानी बन जाओ। केवल तुम्हीं उनकी पटरानी बनने योग्य हो; इसमें कोई संशय नहीं है। वे तुम्हारे आज्ञाकारी बनकर सदा तुम्हारे अधीन रहेंगे। हे सुमुखि ! महाराज महिष को पतिरूप में प्राप्त करके तुम चिरकालत क तीनों लोकों के ऐश्वर्य का उपभोग कर समस्त स्त्रियों में सौभाग्यवती बन जाओ ॥ ५५-५७ ॥ मेरा यह वचन सुनकर विशाल नयनों वाली वह सुन्दरी गर्व के आवेग से विमोहित होकर मुसकराती हुई मुझसे यह बात बोली — मैं देवताओं का हित करने के विचार से महिषी के गर्भ से उत्पन्न उस अधम पशु (महिष) -को देवी के लिये बलि चढ़ा दूँगी ॥ ५८-५९ ॥ हे मन्दबुद्धे ! इस संसार में भला कौन मूर्ख स्त्री महिष को पतिरूप में स्वीकार कर सकती है ? क्या मुझ-जैसी स्त्री पशुस्वभाव वाले उस महिषासुर से प्रेम कर सकती है ? ॥ ६० ॥ हे मूर्ख ! सींगवाली तथा जोर-जोर से चिल्लाने वाली कोई महिषी ही उस श्रृंगधारी महिष को अपना पति बना सकती है; किंतु मैं वैसी मूर्ख नहीं हूँ। मैं तो देवताओं के शत्रु महिषासुर के साथ रणक्षेत्र में युद्ध करूँगी और उसे मार डालूँगी । हे दुष्ट ! यदि जीवित रहने की तुम्हारी इच्छा है, तो अभी पाताललोक चले जाओ ॥ ६१-६२ ॥ हे राजन् ! उस मदमत्त स्त्री ने ऐसी बहुत कठोर बात मुझसे कही। उसे सुनकर बार-बार विचार करने के बाद मैं यहाँ लौट आया हूँ ॥ ६३ ॥ आपका रसभंग न हो-यह सोचकर मैंने उसके साथ युद्ध नहीं किया और फिर आपकी आज्ञा के बिना मैं व्यर्थ ही युद्ध कैसे कर सकता था ? ॥ ६४ ॥ हे राजन् ! वह स्त्री सदा अपने बल से अत्यन्त उन्मत्त रहती है । होनी के विषय में मैं नहीं जानता; आगे न जाने क्या होगा! इस विषय में आप ही प्रमाण हैं। इसमें परामर्श देना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है। इस समय हमारे लिये युद्ध करना अथवा पलायन कर जाना – इन दोनों में कौन श्रेयस्कर होगा, इसका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ ॥ ६५-६६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘मन्त्री द्वारा महिषासुर के साथ देवी के लिये विवाहप्रस्ताव’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ Content is available only for registered users. 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