April 23, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-17 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-सप्तदशोऽध्यायः सत्रहवाँ अध्याय महिषासुर का देवी को मन्दोदरी नामक राजकुमारी का आख्यान सुनाना राजपुत्रीमन्दोदरीवृत्तवर्णनम् व्यासजी बोले — [ हे महाराज!] उसका यह वचन सुनकर भगवती ने उस दानव से पूछा — वह स्त्री मन्दोदरी कौन थी और वह राजा कौन था, जिसे उसने त्याग दिया था ? ॥ १ ॥ बाद में उसने जिसे पति बनाया, वह धूर्त राजा कौन था? उस स्त्री को पुनः जिस प्रकार दुःख मिला हो, वह कथानक विस्तारपूर्वक बताओ ॥ २ ॥ महिषासुर बोला — पृथ्वी तल पर विख्यात सिंहल नामक एक देश है। उसमें बहुत ही घने घने वृक्ष हैं और वह धन-धान्य से समृद्ध है ॥ ३ ॥ वहाँ चन्द्रसेन नाम का राजा राज्य करता था, जो बड़ा धर्मात्मा, शान्तस्वभाव, प्रजापालन में तत्पर, न्यायपूर्वक शासन-कार्य करने वाला, सत्यवादी, मृदु स्वभाव वाला, वीर, सहिष्णु, नीतिशास्त्र का सागर, शास्त्रवेत्ता, सब धर्मों का ज्ञाता और धनुर्वेद में अत्यन्त प्रवीण था ॥ ४-५ ॥ उसकी भार्या भी रूपवती, सुन्दरी, सौभाग्यशालिनी, सद्गुणी, सदाचारिणी, अत्यन्त सुन्दर मुखवाली, पतिभक्ति में लीन रहने वाली, मनोहर और सभी उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थी। उसका नाम गुणवती था। उसने प्रथम गर्भ से एक अति सुन्दर कन्या को जन्म दिया ॥ ६-७ ॥ उस मनोरम कन्या को पाकर पिता बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े हर्ष के साथ उसका नाम मन्दोदरी रखा ॥ ८ ॥ वह कन्या चन्द्रमा की कला के समान दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। अत्यन्त मनोहारिणी वह कन्या जब दस वर्ष की हुई, तब उसके वर के लिये राजा चन्द्रसेन प्रतिदिन चिन्तित रहने लगे ॥ ९९१/२ ॥ उस समय मद्रदेश के अधिपति सुधन्वा नाम वाले एक पराक्रमी नरेश थे । कम्बुग्रीव नाम से अति विख्यात उनका एक पुत्र था, जो बहुत मेधावी था। ब्राह्मणों ने राजा चन्द्रसेन से कहा कि कम्बुग्रीव उस कन्या के योग्य वर है । वह सुन्दर, सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा समस्त विद्याओं में पारंगत है ॥ १०-१११/२ ॥ तब राजा ने गुणवती नामवाली अपनी प्रिय रानी से पूछा — [मेरा विचार है कि] मैं अपनी सुन्दर पुत्री मन्दोदरी को कम्बुग्रीव को सौंप दूँ ॥ १२१/२ ॥ पति की यह बात सुनकर उस रानी ने अपनी पुत्री से आदरपूर्वक पूछा — तुम्हारे पिता कम्बुग्रीव के साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं ॥ १३१/२ ॥ तब यह सुनकर मन्दोदरी ने माता से यह वचन कहा — मैं पति नहीं बनाऊँगी, विवाह करने में मेरी अभिरुचि नहीं है। मैं सदा कौमार्यव्रत का आश्रय लेकर अपना जीवन व्यतीत करूँगी। मैं स्वतन्त्रतापूर्वक सदा कठोर तप करूँगी। हे माता! संसारसागर में परतन्त्रता परम दुःख है । स्वतन्त्रता से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है — ऐसा शास्त्रों के ज्ञाता पण्डितजनों ने कहा है, अतएव मैं बन्धन से मुक्त रहूँगी, मुझे पति से कोई भी प्रयोजन नहीं है ॥ १४-१७ ॥ विवाह होते समय अग्नि के साक्ष्य में [प्रतिज्ञा रूप में ] यह वचन कहना पड़ता है —‘ [ हे पतिदेव ! ] अब मैं सदा के लिये पूर्णरूप से आपके अधीन हो चुकी हूँ।’ इसके अतिरिक्त ससुराल में सास तथा देवर आदि लोगों की दासी बनकर रहना तथा सदा पति के अनुकूल रहना अत्यन्त दुःखदायक बताया गया है ॥ १८-१९ ॥ कहीं यदि पति ने अन्य स्त्री के साथ विवाह कर लिया तब तो सौत से मिलने वाला महान् दुःख उपस्थित हो जाता है । उस समय पति के प्रति ईर्ष्याभाव उत्पन्न हो जाता है, कलह भी होने लगता है। हे माता! संसार में सुख कहाँ है ? और विशेष करके स्वभाव से ही परतन्त्र नारियों के लिये इस स्वप्नधर्मा संसार में सुख है ही नहीं ॥ २०-२११/२ ॥ हे माता! मैंने सुना है कि प्राचीनकाल में राजा उत्तानपाद के एक ‘उत्तम’ ‘नामक पुत्र थे, जो समस्त धर्मो के ज्ञाता एवं ध्रुव के कनिष्ठ भ्राता थे। उन्होंने अपनी धर्मनिष्ठ, पतिव्रता, पति के प्रति भक्तिभाव रखनेवाली, प्रिय तथा सुन्दर पत्नी को बिना किसी अपराध के ही वन में छोड़ दिया था ॥ २२-२३१/२ ॥ पति के रहते हुए भी इस प्रकार के अनेक दुःख स्त्री को सहने पड़ते हैं। दैवयोग से उसकी मृत्यु हो जाने पर स्त्री को [विधवा बनकर ] दुःख उठाना पड़ता है; क्योंकि वैधव्य परम दुःखमय होता है तथा नानाविध शोक एवं संताप उत्पन्न करता रहता है। पति के परदेश चले जाने पर कामदेव की अग्नि में जलती हुई स्त्री को घर में अत्यधिक दुःख सहना पड़ता है, तो फिर उसे पतिसंगजनित क्या सुख प्राप्त हुआ ? अतएव मेरा तो यही मत है कि स्त्रियों को विवाह कभी नहीं करना चाहिये ॥ २४-२६१/२ ॥ [पुत्री के] ऐसा कहने पर उसकी माता ने अपने पति से कहा — कौमारव्रत धारण करने की इच्छावाली आपकी पुत्री पति की कामना नहीं करती है । संसार से विरक्त रहकर वह सदा व्रत और जप में तत्पर रहना चाहती है। [ पतिसंगजनित ] अनेक दोषों को जानने वाली वह कन्या विवाह नहीं करना चाहती ॥ २७-२८१/२ ॥ अपनी भार्या की बात सुनकर राजा चन्द्रसेन भी चुप रह गये। अपनी पुत्री को विवाह की इच्छा से रहित भाववाली जानकर राजा ने भी उसका विवाह नहीं किया। वह मन्दोदरी भी माता-पिता के द्वारा भलीभाँति रक्षित होती हुई घर पर ही रहने लगी। कुछ समय पश्चात् नारियों में कामोत्तेजना उत्पन्न करने वाले यौवन सम्बन्धी लक्षण उसमें विकसित होने लगे। उस समय उसकी सखियों ने विवाह के लिये उसे बार-बार प्रेरित किया, फिर भी ज्ञान – तत्त्व की बातें कहकर वह मन्दोदरी पति बनाने के लिये तैयार न हुई ॥ २९- -३११/२ ॥ एक दिन सुन्दर मुखवाली वह कन्या अपनी दासियों के साथ बहुत-से वृक्षों से सुशोभित उद्यान में आनन्दपूर्वक विहार करने के लिये गयी। उस कृशोदरी ने वहाँ पुष्पित लताओं को देखा और अपनी सखियों के साथ पुष्प चुनती हुई वह वहींपर क्रीडाविहार करने लगी ॥ ३२-३३१/२ ॥ उसी समय उस मार्ग से संयोगवश कोसलनरेश वीरसेन आ गये। वे महान् शूरवीर तथा बहुत विख्यात थे। वे रथपर अकेले ही आरूढ़ थे तथा उनके साथ कुछ सेवक भी थे और सेना उनके पीछे धीरे-धीरे चली आ रही थी ॥ ३४-३५१/२ ॥ तभी उसकी सखियों ने दूर से ही राजा को देख लिया और [ उनमें से किसी युवती ने] मन्दोदरी से कहा — विशाल भुजाओं वाला, रूपवान् तथा दूसरे कामदेव के समान एक पुरुष रथ पर सवार होकर इस मार्ग से चला आ रहा है। मैं तो यह मानती हूँ कि यहाँ भाग्यवश कोई राजा ही आ गया है ॥ ३६-३७१/२ ॥ वह युवती ऐसा कह रही थी कि इतने में कोसल- नरेश वीरसेन वहाँ आ गये। उस श्याम कटाक्षोंवाली मन्दोदरी को देखकर राजा विस्मय में पड़ गये। रथ से तुरंत उतरकर उन्होंने दासी से पूछा — विशाल नेत्रोंवाली यह युवती कौन है और किसकी पुत्री है ? मुझे शीघ्र बताओ ॥ ३८-३९१/२ ॥ इस प्रकार पूछे जाने पर मधुर मुसकान वाली दासी ने उनसे कहा — सुन्दर नेत्रोंवाले हे वीर! पहले आप मुझे बतायें, मैं आपसे पूछ रही हूँ कि आप कौन हैं ? यहाँ किसलिये आये हैं और यहाँ आपका कौन-सा कार्य है ? [ यह सब] अभी बताने की कृपा करें ॥ ४०-४१ ॥ दासी के यह पूछने पर राजा ने उससे कहा — पृथ्वी पर अत्यन्त अद्भुत कोसल नामक एक देश है। हे प्रिये ! वीरसेन नामवाला मैं उसी देश का शासक हूँ। मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना पीछे-पीछे आ रही है। मार्ग भूल जाने के कारण यहाँ आये हुए मुझको तुम कोसलदेश का राजा समझो ॥ ४२-४३ ॥ सैरन्ध्री बोली — हे राजन् ! यह महाराज चन्द्रसेन की पुत्री है और इसका नाम मन्दोदरी है। कमलसदृश नेत्रों वाली यह राजकुमारी विहार करने की इच्छा से इस उपवन में आयी है ॥ ४४१/२ ॥ उसकी बात सुनकर राजा ने उस सैरन्ध्री से कहा — हे सैरन्ध्रि ! तुम चतुर हो, अतः राजकुमारी को समझा दो । ‘हे सुनयने ! मैं ककुत्स्थवंश में उत्पन्न एक राजा हूँ । अतः हे कामिनि ! तुम गान्धर्व – विवाह के द्वारा मुझे पति बना लो । हे सुश्रोणि ! मेरी कोई भार्या नहीं है। मैं भी अद्भुत यौवनावस्था से सम्पन्न, रूपवती और कुलीन युवती की आकांक्षा रखता हूँ। अथवा [ यदि गान्धर्व विवाह पसन्द न हो तो ] तुम्हारे पिता विधि-विधान से तुमको मुझे सौंप दें। मैं सर्वथा तुम्हारे अनुकूल पति होऊँगा; इसमें सन्देह नहीं है’ ॥ ४५–४८१/२ ॥ महिष बोला — तब वीरसेन का वचन सुनकर कामशास्त्र में प्रवीण सैरन्ध्री ने हँसकर उस मन्दोदरी से मधुर वाणी में कहा — हे मन्दोदरि ! सूर्यवंश में उत्पन्न ये राजा यहाँ आये हैं। ये रूपवान्, बलवान् तथा आयु में तुम्हारे ही तुल्य हैं। हे सुन्दरि ! ये राजा सम्यक् प्रकार से तुझमें प्रेमासक्त हो गये हैं ॥ ४९-५१ ॥ हे विशाल नयनोंवाली ! तुम्हारी विवाह योग्य अवस्था हो गयी है और तुम वैराग्यभाव से युक्त रहती हो — यह जानकर तुम्हारे पिता भी सदा चिन्तित रहते हैं। उन महाराज ने बार-बार लंबी साँस लेकर हम लोगों से यह कहा था — ‘ हे दासियो ! तुम लोग सदा उसकी सेवामें संलग्न रहती हो, अतः तुम्ही लोग मेरी इस पुत्री को समझाओ।’ किंतु हमलोग तुझ हठधर्मपरायणा से कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हैं। [ फिर भी हम तुम्हें बता देना चाहती हैं कि] पति की सेवा ही स्त्रियों के लिये परम धर्म है — ऐसा मनु ने कहा है । पति की सेवा करने वाली स्त्री स्वर्ग प्राप्त कर लेती है। अतएव हे विशाल नेत्रोंवाली! तुम विधिपूर्वक विवाह कर लो ॥ ५२-५५ ॥ मन्दोदरी बोली — मैं पति नहीं बनाऊँगी; मैं अद्भुत तप करूँगी। हे बाले ! तुम इस राजा को मना कर दो; यह निर्लज्ज मेरी ओर क्यों देख रहा है ? ॥ ५६ ॥ सैरन्ध्री बोली — हे देवि ! यह कामदेव अजेय है तथा काल का अतिक्रमण भी अत्यन्त कठिन है । अतएव हे सुन्दरि ! तुम मेरे इस कल्याणकारी वचन को मान लेने की कृपा करो । अन्यथा [तुम्हारे ऊपर कभी-न-कभी ] संकट अवश्य पड़ेगा; यह मेरा दृढ़ विश्वास है ॥ ५७१/२ ॥ उसकी यह बात सुनकर राजकुमारी ने उस सखी से कहा — हे परिचारिके! दैवयोग से जो भी होनेवाला है वह हो, किंतु मैं विवाह बिलकुल नहीं करूँगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८-५९ ॥ महिष बोला — उस राजकुमारी का निश्चित विचार जानकर सैरन्ध्री ने राजा से पुनः कहा — हे राजन्! आप इच्छानुसार यहाँ से जा सकते हैं। यह राजकुमारी उत्तम पति बनाना नहीं चाहती ॥ ६० ॥ उसकी बात सुनकर राजा वीरसेन उदास हो गये और उस राजकुमारी के प्रति आसक्तिरहित होकर अपनी सेना के साथ कोसलदेश के लिये प्रस्थित हो गये ॥ ६१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘देवी और महिषासुर के संवाद में राजपुत्री मन्दोदरी का वृत्तान्तवर्णन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ Content is available only for registered users. 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