April 24, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-22 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-द्वाविंशोऽध्यायः बाईसवाँ अध्याय देवताओं द्वारा भगवती की स्तुति और उनका प्राकट्य देवकृतदेव्याराधनवर्णनम् व्यासजी बोले — हे नृपश्रेष्ठ ! सभी देवता पराजित हो गये। इसके बाद शुम्भ राज्य पर शासन करने लगा । इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये ॥ १ ॥ तत्पश्चात् राज्यच्युत होने के कारण देवता महान् दुस्सह चिन्ता में पड़ गये । दुःख से व्याकुल हुए वे देवता गुरु बृहस्पति से आदरपूर्वक यह पूछने लगे ॥ २ ॥ हे गुरो ! अब हम क्या करें, आप हमें बतायें। आप सर्वज्ञ महामुनि हैं। हे महाभाग ! दुःख की निवृत्ति का उपाय भी तो होता है। हजारों ऐसे वैदिक मन्त्र हैं, जो उपचारों से परिपूर्ण हैं और सभी मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं। सूत्रों ने उनका भलीभाँति निदर्शन भी किया है। सभी वांछित फल प्रदान करने वाले अनेक प्रकार के यज्ञ भी बताये गये हैं । हे मुने! आप उनका अनुष्ठान कीजिये; क्योंकि आप उनकी क्रिया – विधि को भलीभाँति जानते हैं ॥ ३-५॥ शत्रुओं के विनाश के लिये वेद में जैसा उपाय बताया गया है, अब आप विधिपूर्वक उसका अनुष्ठान कीजिये, जिससे हमारे दुःखका पूर्णरूप से नाश हो जाय । हे आंगिरस ! दानवों के विनाश के लिये आप अपनी बुद्धि के अनुसार आज ही अभिचारकर्म आरम्भ करने की कृपा कीजिये ॥ ६-७ ॥ बृहस्पति बोले — हे देवराज! वेदों में बताये गये सभी मन्त्र प्रारब्ध के अनुसार ही फल प्रदान करनेवाले हैं। वे स्वतन्त्र नहीं हैं और अकेले फल प्रदान नहीं कर सकते ॥ ८ ॥ उन मन्त्रों के देवता तो आप ही लोग हैं। जब आपलोग स्वयं समय के फेर से कष्ट में पड़े हुए हैं तो मैं कौन-सा उपाय करूँ ? ॥ ९ ॥ यज्ञ – कर्मों में इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि की पूजा की जाती है और वे आप सब देवता ही स्वयं विपत्ति भोग रहे हैं, तब यज्ञ क्या कर सकेंगे ? ॥ १० ॥ अवश्यम्भावी घटना का कोई प्रतीकार नहीं है; फिर भी [ संकट से बचने के लिये] उपाय तो करना ही चाहिये, यह शिष्ट पुरुषों का उपदेश है ॥ ११ ॥ कुछ विद्वान् कहते हैं कि दैव सबसे बलवान् होता है और उपायवादी लोग दैव को निरर्थक बताते हैं, किंतु मनुष्यों के लिये दैव और उपाय दोनों ही आवश्यक माने गये हैं। मात्र दैव का आश्रय लेकर कभी भी बैठे नहीं रहना चाहिये। अपनी बुद्धि से विचार करके सम्यक् रूप से प्रयत्न करने में तत्पर हो जाना चाहिये। इसलिये भलीभाँति बार-बार सोच-विचारकर मैं आप सभी को उपाय बता रहा हूँ ॥ १२-१४ ॥ पूर्वकाल में जब भगवती जगदम्बा ने आप लोगों पर प्रसन्न होकर महिषासुर का वध किया था, उस समय आप लोगों के स्तुति करने पर उन्होंने यह वरदान दिया था — ‘आप लोगों के स्मरण करने पर मैं सदा आप लोगों की विपत्ति दूर करूँगी। हे देवेश्वरो ! जब-जब आप लोगों पर दैव-जन्य आपदाएँ आयें, तब-तब आप देवतागण मेरा ध्यान कीजियेगा, स्मरण करते ही मैं आप लोगों की बड़ी से बड़ी विपत्तियों का नाश कर दूँगी ‘ ॥ १५-१७ ॥ अतः अब आप लोग परम रमणीक हिमालयपर्वत पर जाकर प्रेमपूर्वक भगवती चण्डिका की आराधना कीजिये । आप लोग मायाबीज के विधान के ज्ञाता हैं, उसीके पुरश्चरण में तत्पर हो जाइये। मैं जानता हूँ कि इस अनुष्ठान के प्रभाव से वे भगवती प्रसन्न हो जायँगी ॥ १८-१९ ॥ अब आपलोगों के दुःख का अन्त दिखायी पड़ रहा है; इसमें सन्देह नहीं है। मैंने सुना है कि वे भगवती उस हिमालयपर्वत पर सदा विराजमान रहती हैं। उनकी स्तुति तथा विधिवत् पूजा करने पर वे शीघ्र ही आप लोगों को वांछित फल प्रदान करेंगी। अतः हे देवताओ! आप लोग दृढ़ निश्चय करके हिमालयपर्वत पर जाइये; वे भगवती आपलोगों का कार्य अवश्य सिद्ध कर देंगी ॥ २०-२११/२ ॥ व्यासजी बोले — हे महाराज! उनका वचन सुनकर देवता हिमालयपर्वत पर चले गये। वहाँ देवी के ध्यान में लीन होकर एकाग्र मन से निरन्तर मायाबीज – मन्त्र का जप करते हुए उन सब देवताओं ने भक्तों के लिये अभय- दायिनी महामाया भगवती को प्रणाम किया और पूर्ण भक्ति से युक्त होकर स्तोत्र – मन्त्रों से वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे — ॥ २२-२४ ॥ हे विश्वेश्वरि ! हे प्राणों की स्वामिनि ! सदा आनन्द- रूप में रहने वाली तथा देवताओं को आनन्द प्रदान करने वाली हे देवि ! आपको नमस्कार है। दानवों का अन्त करने वाली, मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाली तथा भक्ति के द्वारा अपने रूप का दर्शन देने वाली हे देवि ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥ हे आदिदेवस्वरूपिणि! आपके नामों की निश्चित संख्या तथा आपके इस रूप को कोई भी नहीं जान सकता। सबमें आप ही विराजमान हैं। जीवों के सृजन और संहारकाल में शक्तिस्वरूप से सदा आप ही कार्य करती हैं ॥ २६ ॥ आप ही स्मृति, धृति, बुद्धि, जरा, पुष्टि, तुष्टि, धृति, कान्ति, शान्ति, सुविद्या, सुलक्ष्मी, गति, कीर्ति, मेधा और विश्व की पुरातन मूल प्रकृति हैं ॥ २७ ॥ आप जिस समय जिन स्वरूपों से देवताओं का कार्य सम्पन्न करती हैं, हम शान्ति के लिये आपके उन स्वरूपों को नमस्कार करते हैं। आप ही क्षमा, योगनिद्रा, दया तथा विवक्षा — इन कल्याणकारी रूपों से सभी जीवों में निवास करती हैं ॥ २८ ॥ पूर्वकाल में आपने हम देवताओं का कार्य किया था जो कि महान् शत्रु मदान्ध महिषासुर का वध कर डाला था। हे देवि ! सभी देवताओं पर आपकी दया सदैव रहती है, आपकी दया पूर्ण प्रसिद्ध है और पुराणों तथा वेदों में भी उसका वर्णन किया गया है ॥ २९ ॥ इसमें आश्चर्य की क्या बात; क्योंकि माता प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् प्रकार से अपने पुत्र का पालन-पोषण करती ही है । क्योंकि आप देवताओं की जननी हैं, अतः उनका सहायक बनकर एकाग्रमन से हमलोगों का सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करें ॥ ३० ॥ हे देवि ! हे विश्ववन्द्ये! हमलोग न आपके गुणों की सीमा जानते हैं और न आपका स्वरूप ही जानते हैं। अतः रक्षा करने में समर्थ हे देवि ! हमें केवल अपना कृपापात्र मानकर आप भयों से निरन्तर हमारी रक्षा करती रहें ॥ ३१ ॥ यद्यपि बिना बाण चलाये; बिना मुष्टिप्रहार किये और बिना त्रिशूल, तलवार, बछ, दण्ड आदि का प्रयोग किये भी आप विनोदपूर्वक शत्रुओं का संहार करने में समर्थ हैं, फिर भी जगत् के उपकार के लिये ही आपकी यह लीला दृष्टिगोचर होती है ॥ ३२ ॥ आपका यह रूप सनातन है— इस रहस्य को अविवेकी लोग नहीं जानते हैं। [ हे माता!] बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। अतः अनुमान और प्रमाण के आधार पर हम यही जानते हैं कि इस विश्व की रचना करने वाली आप ही हैं ॥ ३३ ॥ ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता और शंकर संहारकर्ता के रूप में पुराण में प्रसिद्ध हैं, किंतु क्या वे तीनों देव आपसे उत्पन्न नहीं हुए हैं ? युग के प्रारम्भ में केवल आप ही रहती हैं, अतः आप ही सबकी माता हैं ॥ ३४ ॥ हे देवि ! पूर्वकाल में इन तीनों ने आपकी आराधना की थी, तब आपने उन्हें अपनी समस्त प्रबल शक्ति प्रदान की थी। वास्तव में उसी शक्ति से सम्पन्न होकर वे जगत् का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं ॥ ३५ ॥ जो संन्यासी लोग विश्व की जननी, परम विद्या-स्वरूपिणी, समस्त वांछित फल प्रदान करने वाली, मुक्ति- दायिनी तथा सभी देवताओं से वन्दित चरणों वाली आप भगवती की उपासना नहीं करते, क्या वे मन्दबुद्धि तथा अज्ञानी नहीं हैं ? ॥ ३६ ॥ विष्णु, शिव तथा सूर्य की आराधना करने वाले जो लोग कमला, लज्जा, कान्ति, स्थिति, कीर्ति और पुष्टि नामों से विख्यात आप भगवती का ध्यान नहीं करते हैं, वे निश्चितरूप से दम्भी प्रतीत होते हैं ॥ ३७ ॥ विष्णु और शंकर आदि श्रेष्ठ देवता तथा असुर भी आपकी पूजा करते हैं। अतः हे माता ! इस जगत् में जो मन्दबुद्धि मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते, निश्चय ही विधाता ने उन्हें ठग लिया है ॥ ३८ ॥ भगवान् विष्णु अपने पास लक्ष्मीरूप में विराजमान आप भगवती के चरणकमलों में स्वयं महावर लगाते हैं। इसी प्रकार त्रिनेत्र भगवान् शिव भी अपने पास पार्वती रूप में विराजमान आप भगवती के चरणकमल की रज के सेवन में निरन्तर तत्पर रहते हैं; तब अन्य मनुष्य की बात ही क्या ! आपके चरणकमलों की आराधना कौन नहीं करते ? घर-गृहस्थी से विरक्त बुद्धिमान् मुनिगण भी दया और क्षमारूप में प्रतिष्ठित आप भगवती की उपासना करते हैं ॥ ३९-४० ॥ हे देवि ! जो लोग आपके चरणों की उपासना में संलग्न नहीं रहते, उन्हें निश्चय ही इस संसाररूप अगाध कूप में गिरना पड़ता है। वे कुष्ठ, गुल्म और शिरोरोग से ग्रस्त रहते हैं, दरिद्रता तथा दीनता से युक्त रहते हैं और सुखों से सदा वंचित रहते हैं ॥ ४१ ॥ हे माता ! धन और स्त्री से रहित जो मनुष्य लकड़ी का बोझ ढोने और तृण आदि का वहन करने में लगे हैं, [ उनके विषय में] हम तो यही समझते हैं कि उन मन्दबुद्धि मनुष्यों ने पूर्वजन्म में आपके चरणों की उपासना कभी नहीं की ॥ ४२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार समस्त देवताओं के स्तुति करनेपर अम्बिका करुणा से ओत-प्रोत होकर तुरंत प्रकट हो गयीं । [ उस समय ] वे भगवती रूप तथा यौवन से सम्पन्न थीं, उन्होंने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था, वे अलौकिक आभूषणों से अलंकृत थीं, दिव्य मालाओं से सुशोभित हो रही थीं, दिव्य चन्दन से अनुलिप्त थीं, जगत् को मोहित कर देने वाले सौन्दर्य से सम्पन्न थीं और समस्त शुभ लक्षणों से समन्वित थीं। इस प्रकार अद्वितीय स्वरूपवाली वे भगवती देवताओं के समक्ष प्रकट हुईं ॥ ४३-४५ ॥ दिव्य रूप धारण करने वाली तथा विश्व को मोह लेने में समर्थ कामदेव को भी मोहित करने वाली वे भगवती गंगा में स्नान करने की अभिलाषा से पर्वत की कन्दरा से बाहर निकली थीं ॥ ४६ ॥ कोकिल के समान मधुर बोलनेवाली भगवती प्रेमपूर्ण भाव से मुसकराकर स्तुति करनेमें संलग्न देवताओं से मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहने लगीं — ॥ ४७ ॥ देवी बोलीं — हे श्रेष्ठ देवतागण ! आप लोग यहाँ पर इतनी बड़ी स्तुति किसलिये कर रहे हैं ? आप लोग इस प्रकार चिन्ता से व्याकुल क्यों हैं? मुझे अपना कार्य बताइये ॥ ४८ ॥ व्यासजी बोले — भगवती का यह वचन सुनकर उनके रूप-वैभव से मोहित श्रेष्ठ देवताओं का हृदय उत्साह से परिपूर्ण हो गया, जिससे वे प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे — ॥ ४९ ॥ देवता बोले — जगत् को नियन्त्रण में रखनेवाली हे देवि ! हम आपकी स्तुति कर रहे हैं, हम आपके शरणागत हैं। हे कृपासिन्धो ! दैत्यों से सताये गये हम देवताओं की सम्पूर्ण दुःखों से रक्षा कीजिये ॥ ५० ॥ हे महादेवि ! पूर्वकाल में देवताओं के लिये कंटक बने महिषासुर का वध करके आपने हमें वर प्रदान किया था — ‘आप लोग संकट में मुझे सदा याद कीजियेगा, स्मरण करते ही मैं दैत्यों के द्वारा आप लोगों को पहुँचायी गयी पीड़ा का निःसन्देह नाश कर दूँगी।’ हे देवि ! इसीलिये हम लोगों ने आपका स्मरण किया है ॥ ५१-५२ ॥ इस समय शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दानव उत्पन्न हुए हैं, जो देखने में महाभयंकर हैं। वे [हमारे कार्यों में] विघ्न डाला करते हैं। वे पुरुषों से सर्वथा अवध्य हैं। ऐसे ही बलशाली दानव रक्तबीज तथा चण्ड और मुण्ड भी हैं। इन सभी तथा अन्य महाबली दानवों ने हम देवताओं का राज्य छीन लिया है। हे महाबले ! हम लोगों का दूसरा कोई अवलम्ब नहीं, एकमात्र आप ही हमारी शरण हैं। हे सुमध्यमे ! आप दुःखित देवताओं का कार्य सिद्ध करें ॥ ५३-५५ ॥ देवता आपके चरणों की उपासना में सदैव संलग्न रहते हैं । [ इस समय ] वे सब महान् बलशाली दैत्यों के द्वारा विपत्ति में डाल दिये गये हैं। अतः हे देवि! आप उन भक्तिपरायण देवताओं को दुःखरहित कर दीजिये। हे माता ! आप दुःखित देवताओं का आश्रय बन जाइये ॥ ५६ ॥ हे देवि ! युग आरम्भ में इस विश्व की रचना आप भगवती ने स्वयं की थी — यह जानकर आप इस समय सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा करें। हे जननि ! हे माता ! अपने बल से मदान्वित तथा अभिमान में चूर दानव जगत् में लोगों को पीड़ित कर रहे हैं ॥ ५७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘देवों द्वारा देवी की की गयी आराधना का वर्णन ‘ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥ Content is available only for registered users. 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