श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-26
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-षड्विंशो5ध्यायः
छब्बीसवाँ अध्याय
भगवती अम्बिका से चण्ड-मुण्ड का संवाद और युद्ध, देवी कालिका द्वारा चण्ड-मुण्ड का वध
चण्डमुण्डवधेन देव्याश्चामुण्डेतिनामवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे महाराज !] तदनन्तर शुम्भ से ऐसा आदेश पाकर महाबली चण्ड-मुण्ड विशाल सेना के साथ बड़े वेग से रणभूमि की ओर चल पड़े ॥ १ ॥ तब देवताओं का हित करने वाली देवी को वहाँ युद्धभूमि में विद्यमान देखकर वे दोनों महापराक्रमी दानव उनसे सामनीतियुक्त वचन बोले — ॥ २ ॥

हे बाले! क्‍या तुम देवताओं की सेना का नाश करने वाले शुम्भ तथा इन्द्र पर विजय प्राप्त करने के कारण उद्धत स्वभाव वाले महापराक्रमी निशुम्भ को नहीं जानती हो ?॥ ३ ॥ हे सुन्दरि! तुम यहाँ अकेली हो। हे दुर्बुद्धे ! तुम मात्र कालिका और सिंह को साथ लेकर सभी प्रकार की सेनाओं से सम्पन्न शुम्भ कों जीतना चाहती हो ॥ ४ ॥ क्या कोई स्त्री या पुरुष तुम्हें सत्परामर्श देने वाला नहीं है ? देवता लोग तो तुम्हारे विनाश के लिये ही तुम्हें प्रेरित कर रहे हैं ॥ ५ ॥ हे सुकुमार अंगोंवाली! तुम अपने तथा शत्रु के बल के विषय में सम्यक्‌ विचार करके ही कार्य करो। अठारह भुजाओं के कारण तुम अपने पर व्यर्थ ही अभिमान करती हो ॥ ६ ॥ देवताओं को जीतने वाले तथा समरभूमि में पराक्रम दिखाने वाले शुम्भ के समक्ष तुम्हारी इन बहुत-सी व्यर्थ भुजाओं तथा श्रम प्रदान करने वाले आयुधों से कया लाभ? अतः तुम ऐरावत की सूँड़ काट डालने वाले, हाथियों को विदीर्ण करने वाले और देवताओं को जीत लेने वाले शुम्भ का मनोवांछित कार्य करो ॥ ७-८ ॥ हे कान्ते! तुम वृथा गर्व करती हो। हे विशालाक्षि ! तुम मेरी प्रिय बात मान लो, जो तुम्हारे लिये हितकर, सुखद तथा दुःखों का नाश करने वाली है ॥ ९ ॥

शास्त्रों का तत्त्व जानने वाले विद्वान्‌ तथा बुद्धिमान्‌ पुरुषों को चाहिये कि दुःख देने वाले कार्यों का दूर से ही त्याग कर दें और सुख प्रदान करने वाले कार्यों का सेवन करें ॥ १० ॥ हे कोयल के समान मधुर बोलने वाली ! तुम तो बड़ी चतुर हो । तुम देवताओं के मर्दन से अभ्युदय को प्राप्त तथा महान्‌ शुम्भ बल को प्रत्यक्ष देख लो। प्रत्यक्ष प्रमाण का त्याग करके अनुमान का आश्रय लेना बिलकुल व्यर्थ है। किसी सन्देहात्मक कार्य में विद्वान्‌ पुरुष प्रवृत्त नहीं होते ॥ ११-१२ ॥ शुम्भ देवताओं के महान शत्रु हैं। वे संग्राम में अजेय हैं। इसीलिये दैत्येन्द्र शुम्भ के द्वारा प्रताड़ित किये गये देवता तुम्हें युद्ध के लिये प्रेरित कर रहे हैं ॥ १३ ॥ हे सुन्दर मुसकान वाली! तुम देवताओं के मधुर वचनों से ठग ली गयी हो। तुम्हारे प्रति देवताओं की यह शिक्षा उनका कार्य सिद्ध करने वाली तथा तुम्हें दुःख प्रदान करनेवाली है ॥ १४ ॥ अपना ही कार्य साधने में तत्पर रहने वाले मित्र का त्यागकर धर्ममार्ग पर चलने वाले मित्र का ही अवलम्बन करना चाहिये। देवता बड़े ही स्वार्थी हैं, मैंने तुमसे यह सत्य कहा है, अतः तुम देवताओं के शासक, विजेता, तीनों लोकों के स्वामी, चतुर, सुन्द, वीर और कामशास्त्र में प्रवीण शुम्भ को स्वीकार कर लो। शुम्भ के अधीन रहने से तुम समस्त लोकों का वैभव प्राप्त करोगी। अतएव दृढ़ निश्चय करके तुम सौन्दर्यसम्पन्न शुम्भ को अपना पति बना लो ॥ १५-१७ ॥

व्यासजी बोले — चण्ड की यह बात सुनकर जगदम्बा ने मेघ के समान गम्भीर ध्वनि में गर्जना की और वे बोलीं — धूर्त! भाग जाओ; तुम यह छलयुक्त बात व्यर्थ क्‍यों बोल रहे हो ? विष्णु, शिव आदि को छोड़कर मैं शुम्भ को अपना पति किसलिये बनाऊँ ?॥ १८-१९ ॥ न तो मुझे किसी को पति बनाना है और न तो पति से मेरा कोई काम ही है; क्योंकि जगत्‌ के सभी प्राणियों की स्वामिनी मैं ही हूँ; इसे तुम सुन लो ॥ २० ॥ मैंने हजारों-हजार शुम्भ तथा निशुम्भ देखे हैं और पूर्वकाल में मैंने सैकड़ों दैत्यों तथा दानवों का वध किया है ॥ २१ ॥ प्रत्येक युग में अनेक देवसमुदाय मेरे सामने ही नष्ट हो चुके हैं। दैत्यों के समूह अब फिर विनाश को प्राप्त होंगे। दैत्यों का विनाशकारी समय अब आ ही गया है। अतएवं तुम अपनी सन्तति की रक्षा के लिये व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हो ॥ २२-२३ ॥ हे महामते! तुम वीरधर्म की रक्षा के लियेः मेरे साथ युद्ध करो। मृत्यु तो अवश्यम्भावी है, इसे टाला नहीं जा सकता। अतः महात्मा लोगों को यश की रक्षा करनी चाहिये ॥ २४ ॥ दुराचारी शुम्भ तथा निशुम्भ से तुम्हारा क्‍या प्रयोजन सिद्ध हो संकता है? अतः अब तुम श्रेष्ठ वीरधर्म का आश्रय लेकर देवलोक स्वर्ग चले जाओ ॥ २५ ॥ अब शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे जो अन्य बन्धु-बान्धव हैं, वे सब भी बाद में तुम्हारा अनुसरण करते हुए वहाँ पहुँचेंगे ॥ २६ ॥ हे मन्दात्मन्‌! मैं अब क्रमशः सभी दैत्यों का संहार कर डालूँगी। हे विशांपते! अब विषाद त्यागो और मेरे साथ युद्ध करो ॥ २७ ॥ मैं इसी समय तुम्हारा तथा तुम्हारे भाई का वध कर दूँगी। तत्पश्चात्‌ शुम्भ, निशुम्भ, मदोन्मत्त रक्तबीज तथा अन्य दानवों को रणभूमि में मारकर मैं अपने धाम को चली जाऊँगी। अब तुम यहाँ ठहरो अथवा शीघ्र भाग जाओ ॥ २८-२९ ॥ व्यर्थ ही स्थूल शरीर धारण करने वाले हे दैत्य! तुरंत शस्त्र उठा लो और मेरे साथ अभी युद्ध करो। कायरों को सदा प्रिय लगने वाली व्यर्थ बातें क्यों बोल रहे हो ?॥ ३० ॥

व्यासजी बोले — देवी के इस प्रकार उत्तेजित करने पर दैत्य चण्ड-मुण्ड क्रोध से भर उठे और अपने बल के अभिमान में चूर उन दोनों ने वेगपूर्वक अपने धनुष की प्रत्यंचा की भीषण टंकार की ॥ ३१ ॥ उसी समय दसों दिशाओं को गुंजित करती हुई भगवती ने भी शंखनाद किया और बलवान सिंह ने भी कुपित होकर गर्जन किया। उस गर्जन से इन्द्र आदि देवता, मुनि, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, साध्य और किन्नर बहुत हर्षित हुए ॥ ३२-३३ ॥ तदनन्तर चण्डिका और चण्ड में परस्पर बाण, तलवार, गदा आदि के द्वारा भीषण संग्राम होने लगा; जो कायरों के लिये भयदायक था ॥ ३४ ॥ चण्डिका ने दैत्य चण्ड के द्वारा छोड़े गये बाणों को अपने तीक्ष्ण बाणों से काट दिया और फिर वे चण्ड पर अपने सर्पसदृश भयंकर बाण छोड़ने लगीं ॥ ३५ ॥ उस समय संग्राम में आकाशमण्डल बाणों से उसी प्रकार आच्छादित हो गया, जैसे वर्षाऋतु के अन्त में किसानों को भय प्रदान करने वाली टिड्रियों से आकाश छा जाता है ॥ ३६ ॥ उसी समय अतीव भयंकर मुण्ड भी सैनिकों के साथ बड़ी तेजी से रणभूमि में आ पहुँचा और क्रोधित होकर बाणों की वर्षा करने लगा ॥ ३७ ॥ तब [मुण्ड के द्वारा प्रक्षिप्त ] महान्‌ बाण- समूह को देखकर अम्बिका बहुत कुपित हुईं। क्रोध के कारण उनका मुख मेघ के समान काला, आँखें केले के पुष्प के समान लाल और भौंहें टेढ़ी हो गयीं ॥ ३८१/२

उसी समय देवी के ललाटपटल से सहसा भगवती काली प्रकट हुईं। अत्यन्त क्रूर वे काली व्याघ्रचर्म पहने थीं और गजचर्म के उत्तरीय वस्त्रों से सुशोभित थीं। उन भयानक काली ने गले में मुण्डमाला धारण कर रखी थी और उनका उदर सूखी बावली के समान प्रतीत हो रहा था। अत्यन्त भीषण तथा भय प्रदान करने वाली वे भगवती काली हाथ में खड़्ग, पाश तथा खट्वांग धारण किये हुई थीं। रौद्र रूपवाली वे काली साक्षात्‌ दूसरी कालरात्रि के समान प्रतीत हो रही थीं ॥ ३९-४१ ॥ विशाल मुख तथा विस्तृत जघनप्रदेश वाली वे भगवती काली बार-बार जिह्ला लपलपाती हुई बड़े वेग से असुर-सैनिकों का संहार करने लगीं ॥ ४२ ॥ वे कुपित होकर बड़े-बड़े दैत्यवीरों को हाथ में पकड़कर अपने मुख में डाल लेती थीं और धीरे-धीरे उन्हें दाँतों से पीस डालती थीं ॥ ४३ ॥ घंटा तथा आरोहियों समेत हाथियों को अपने हाथ में पकड़कर वे देवी उन्हें मुख में डाल लेती थीं और उन्हें चबा-चबाकर अट्टहास करने लगती थीं। उसी प्रकार वे घोड़ों, ऊँटों और सारथियोंसहित रथों को अपने मुख में डालकर दाँतों से अत्यन्त भयानक रूप से चबाने लगती थीं ॥ ४४-४५ ॥

अपनी सेना को मारे जाते देखकर महान्‌ असुर चण्ड-मुण्ड ने निरन्तर बाण-वृष्टि के द्वारा भगवती को आच्छादित कर दिया ॥ ४६ ॥ चण्ड ने सूर्य के समान तेजस्वी तथा भगवान्‌ विष्णु के सुदर्शनचक्र के तुल्य प्रभाव वाला चक्र बड़े वेग से देवी पर चला दिया और वह बार-बार गरजने लगा ॥ ४७ ॥ उसे गर्जन करते देखकर काली ने अपने एक ही बाण से उसके सूर्य-तुल्य तेजस्वी तथा सुदर्शनचक्र- सदृश प्रभा वाले चक्र को काट डाला ॥ ४८ ॥ तत्पश्चातू भगवती चण्डिका ने पत्थर की सान पर चढ़ाये हुए अपने तीक्ष्ण बाणों से उस चण्ड पर प्रहार किया। देवी के बाणों से अत्यधिक घायल होकर वह मूर्च्छित हो गया और पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ ४९ ॥

उस समय अपने भाई को पृथ्वी पर गिरा हुआ देखकर मुण्ड दुःख से व्याकुल हो उठा और कुपित होकर कालिका के ऊपर बाणों की वर्षा करने लगा ॥ ५० ॥ भगवती चण्डिका ने मुण्ड के द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण बाणवर्षा को अपने द्वारा छोड़े गये ईषिकास्त्रों से बलपूर्वक तिल-तिल करके क्षणभर में ही नष्ट कर डाला ॥ ५१ ॥ तत्पश्चात्‌ चण्डिका ने एक अर्धचन्द्राकार बाण से मुण्ड पर पुनः प्रहार किया, जिससे वह महाशक्तिशाली दैत्य मदहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥ ५२ ॥ [यह देखकर ] उस समय दानवों की सेना में महान्‌ हाहाकार मच गया। आकाश में विद्यमान सभी देवताओं की व्यथा दूर हो गयी और वे हर्ष से भर उठे ॥ ५३ ॥ इसके बाद कुछ देर में मूर्च्छा दूर होने पर चण्ड ने एक विशाल गदा लेकर बड़े वेग से कालिका की दाहिनी भुजा पर प्रहार किया ॥ ५४ ॥ भगवती कालिका ने उसके गदाप्रहार को रोककर अभिमन्त्रित करके छोड़े गये बाण-पाश से उस महान्‌ असुर को शीघ्र ही बाँध लिया ॥ ५५ ॥ उधर जब मुण्ड चेतना में आया तब अपने अनुज को पाशास्त्र में बलपूर्वक बँधा देखकर कवच पहने हुए वह अपने हाथ में एक सुदृढ़ शक्ति लेकर आ गया ॥ ५६ ॥ तब भगवती काली ने उस दूसरे भाई दानव मुण्ड कों बड़े वेग से अपनी ओर आता हुआ देखकर उसे भी बड़ी मजबूती से बाँध लिया ॥ ५७ ॥ इस प्रकार महाबली चण्ड-मुण्ड को खरगोश की तरह पकड़कर जोर-जोर से हँसती हुई वे कालिका अम्बिका के पास जा पहुँची।

उनके पास आकर कालिका कहने लगीं — हे प्रिये | मैं रणयज्ञ में पशुबलि के लिये इन रणदुर्जय दानवों को यहाँ ले आयी हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें ॥ ५८-५९ ॥ तब उन लाये गये दोनों दानवों कों भेड़िये की तरह दीन-हीन देखकर भगवती अम्बिका ने कालिका से मधुरताभरी वाणी में कहा — हे रणप्रिये! न इनका वध करो और न छोड़ो ही। तुम चतुर हो अतः किसी उपाय से अब तुम्हें शीघ्र ही देवताओं का कार्य सिद्ध करना चाहिये ॥ ६०-६१ ॥

व्यासजी बोले — अम्बिका की यह बात सुनकर कालिका ने उनसे पुनः कहा — जिस प्रकार यज्ञभूमि में यूप स्थापित किये जाते हैं, उसी प्रकार विख्यात युद्धयज्ञ में बलिदान-स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित खड्ग के द्वारा मैं आलम्भनपूर्वक इस तरह इनका वध करूँगी, जिससे हिंसा नहीं होगी ॥ ६२१/२

ऐसा कहकर देवी कालिका ने तुरंत तलवार से उन दोनों का सिर काट लिया और वे आनन्दपूर्वक रुधिरपान करने लगीं ॥ ६३१/२

इस प्रकार उन दोनों दैत्यों को मारा गया देखकर अम्बिका ने प्रसन्‍न होकर कहा — तुमने आज देवताओं का महान्‌ कार्य किया है इसीलिये मैं तुम्हें एक शुभ वरदान दे रही हूँ। हे कालिके! चूँकि तुमने चण्ड-मुण्ड का वध किया है, इसलिये अब तुम इस पृथ्वीलोक में “चामुण्डा’ — इस नाम से अत्यधिक विख्यात होओगी ॥ ६४-६५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध के देवीमाहात्म्य में ‘चण्ड और मुण्ड का वध करने के कारण देवी का चामुण्डा नाम वर्णन’ नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥

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