श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-27
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-सप्तविंशोऽध्यायः
सत्ताईसवाँ अध्याय
शुम्भ का रक्तबीज को भगवती अम्बिका के पास भेजना और उसका देवी से वार्तालाप
रक्तबीज द्वारा देवी समीपे शुम्भनिशुम्भ संवाद वर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे राजन्‌!] उन दोनों दैत्यों को मारा गया देखकर मरने से बचे सभी सैनिक भागकर राजा शुम्भ के पास गये। कुछ सैनिकों के अंग बाणों से छिद गये थे, कुछ के हाथ कट गये थे, उनके पूरे शरीर से रक्त बह रहा था; वे सब रोते हुए नगर में पहुँचे ॥ १-२ ॥

दैत्यराज शुम्भ के पास जाकर वे सब बार-बार चीख-पुकार करने लगे — हे महाराज! हमें बचा लीजिये, बचा लीजिये; नहीं तो आज हमें कालिका खा जायगी। उसने देवताओं का मर्दन करने वाले महावीर चण्ड-मुण्ड को मार डाला और वह बहुत- से सैनिकों को खा गयी। अंग-भंग हुए हमलोग इस समय भय से व्याकुल हैं ॥ ३-४ ॥ हे प्रभो! मरे पड़े हाथियों, घोड़ों, ऊँटों तथा पैदल सैनिकों से उस कालिका ने युद्धभूमि को अत्यन्त डरावना बना दिया है ॥ ५ ॥ उसने समरभूमि में रक्त की नदी बना डाली है, जिसमें मांस कीचड॒ की भाँति, मस्तक के केश सेवार के सदृश और टूटे हुए रथों के पहिये भँवर के समान, सैनिकों के कटे हाथ आदि मछली के समान और सिर तुम्बी के फल के तुल्य प्रतीत हो रहे हैं। वह [रुधिर- नदी] कायरों को भयभीत करने वाली तथा देवताओं के हर्ष को बढ़ानेवाली है ॥ ६-७ ॥

हे महाराज! अब आप दैत्यकुल की रक्षा कीजिये और शीघ्र पाताललोक चले जाइये; अन्यथा क्रोध में भरी वह देवी आज ही [सभी दानवों का] विनाश कर डालेगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८ ॥ हे दानवेन्द्र ! अम्बिका का वाहन सिंह भी युद्धभूमि में दानवों को खाता जा रहा है और कालिकादेवी अपने बाणों से [दैत्य सैनिकों का] अनेक तरह से वध कर रही है। अतएव हे राजेन्द्र! आप भी कोप के वशीभूत होकर अपने भाई निशुम्भसहित मरने का व्यर्थ विचार कर रहे हैं ॥ ९-१० ॥ हे महाराज ! राक्षसकुल का नाश करने वाली यह क्रूर स्त्री, जिसके लिये आप अपने बन्धुओं को मरवा डालना चाहते हैं, यदि आपको प्राप्त हो ही गयी तो यह आपको क्‍या सुख प्रदान करेगी ?॥ ११ ॥ हे महाराज! जगत् में जय तथा पराजय दैव के | अधीन होती है। बुद्धिमान् ‌कों चाहिये कि अल्प प्रयोजन के लिये भारी कष्ट न उठाये ॥ १२ ॥ हे प्रभो! जिसके अधीन यह सारा जगत्‌ रहता है, उस विधाता का अद्भुत कर्म देखिये कि इस स्त्री ने अकेले ही सम्पूर्ण राक्षसों का संहार कर डाला ॥ १३ ॥ आप लोकपालों को जीत चुके हैं और इस समय आपके पास बहुत-से सैनिक भी हैं तथापि एक स्त्री युद्ध के लिये आपको ललकार रही है; यह महान्‌ आश्चर्य है !॥ १४ ॥

पूर्वकाल में आपने पुष्कर तीर्थ में एक देवालय में तप किया था। उस समय वर प्रदान करने के लिये लोकपितामह ब्रह्माजी आपके पास आये थे। हे महाराज! जब ब्रह्माजी ने आपसे कहा — ‘हे सुव्रत! वर माँगो’ तब आपने ब्रह्माजी से अमर होने की यह प्रार्थना की थी — ‘ देवता, दैत्य, मनुष्य, सर्प, किन्नर, यक्ष और पुरुषवाचक जो भी प्राणी हैं—इनमें किसी से भी मेरी मृत्यु न हो’ ॥ १५-१७ ॥ हे प्रभो! इसी कारण से यह श्रेष्ठ स्त्री आपका वध करनेकी इच्छा से आयी हुई है। अतएवं हे राजेन्द्र ! बुद्धि से ऐसा विचार करके अब आप युद्ध मत कीजिये ॥ १८ ॥ इन देवी अम्बिका को ही महामाया और परमा प्रकृति कहा गया है। हे राजेन्द्र! कल्प के अन्त में ये भगवती ही सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करती हैं ॥ १९ ॥ सब पर शासन करने वाली ये कल्याणमयी देवी सम्पूर्ण लोकों तथा देवताओं को भी उत्पन्न करने वाली हैं। ये देवी तीनों गुणों से युक्त हैं, फिर भी ये विशेषरूप से तमोगुण से युक्त और सभी प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न हैं। ये अजेय, विनाशरहित, नित्य, सर्वज्ञ तथा सदा विराजमान रहती हैं । वेदमाता गायत्री और सन्ध्या के रूप में प्रतिष्ठित ये देवी सम्पूर्ण देवताओं को आश्रय प्रदान करती हैं। ये देवी निर्गुण तथा सगुण- रूपवाली, स्वयं सिद्धिस्वरूपिणी, सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाली, अविनाशिनी, आनन्दस्वरूपा, सबको आनन्द देने वाली, गौरी नाम से विख्यात तथा देवताओं को अभय प्रदान करनेवाली हैं ॥ २०-२२ ॥ हे महाराज! ऐसा जानकर आप इनके साथ वैरभाव का परित्याग कर दीजिये। हे राजेद्र ! आप इनकी शरण में चले जाइये; ये भगवती आपकी रक्षा करेंगी। आप इनके सेवक बन जाइये [ और इस प्रकार] अपने कुल का जीवन बचा लीजिये; मरने से बचे हुए जो दैत्य हैं, वे भी दीर्घजीवी हो जायँ ॥ २३-२४ ॥

व्यासजी बोले — उनका यह वचन सुनकर देवसेना का मर्दन करने वाले शुम्भ ने महान्‌ वीरों के पराक्रम-गुण से सम्पन्न यथार्थ वचन कहना आरम्भ किया ॥ २५ ॥

शुम्भ बोला — रे मूर्खों! चुप रहो; तुमलोग युद्धभूमि से भाग आये हो। तुम्हें यदि जीवित रहने की प्रबल अभिलाषा है तो तुम सब अभी पाताललोक चले जाओ ॥ २६ ॥ जब यह सारा संसार ही दैव के अधीन है, तब विजय के सम्बन्ध में मुझे क्या चिन्ता हो सकती है? जैसे हमलोग दैव के अधीन हैं, वैसे ही ब्रह्मा आदि देवता भी सदा दैव के अधीन रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, अग्नि, वरुण, सूर्य, चन्द्र और इन्द्र ये सब देवता सदा दैव के अधीन हैं। हे मूर्खो ! तब मुझे किस बात की चिन्ता ? जो होना होगा, वह तो होकर रहेगा। जैसी भवितव्यता होती है, उसी प्रकार का उद्यम भी आरम्भ हो जाता है। सब प्रकार से ऐसा विचार करके विद्वान्‌ लोग कभी शोक नहीं करते। ज्ञानी लोग मृत्यु के भय से अपने धर्म का त्याग नहीं करते ॥ २७-३० ॥ समय आने पर दैव की प्रेरणा से मनुष्यों को सुख, दुःख, आयु, जीवन तथा मरण — ये सब निश्चितरूप से प्राप्त होते हैं। अपना-अपना समय पूरा हो जाने पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी नष्ट हो जाते हैं। इन्द्रसहित सभी देवता भी अपनी आयु के अन्त में विनाश को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार मैं भी सर्वथा काल का वशवर्ती हूँ। अतः अब मुझे विनाश अथवा विजय जो भी प्राप्त होगी, उसे मैं अपने धर्म का सम्यक्‌ पालन करते हुए स्वीकार करूँगा ॥ ३१-३३ ॥

जब इस स्त्री ने मुझे युद्ध के लिये ललकारा है, तब [उसके भय से] भागकर मैं सैकडों वर्ष जीवित रहने की आशा क्‍यों करूँ ? मैं आज ही उसके साथ युद्ध करूँगा, फिर जो होना है वह होवे। युद्ध में विजय अथवा मृत्यु जो भी प्राप्त होगी, उसे में स्वीकार करूँगा ॥ ३४-३५ ॥ ‘दैव मिथ्या है ‘—ऐसा उद्यमवादी विद्वान्‌ कहते हैं। इस प्रकार जो शास्त्र को जानते हैं, उन उद्यमवादी विद्वानों की बात युक्तियुक्त भी है ॥ ३६ ॥ बिना उद्यम किये मनोरथ कभी सिद्ध नहीं होते। | केवल कायरलोग ही कहते हैं कि जो होना होगा, वह तो होकर रहेगा। अदृष्ट — प्रारब्ध बलवान्‌ होता है — ऐसी बात मूर्ख कहते हैं न कि पण्डितजन। प्रारब्ध की सत्ता है — इसमें क्या प्रमाण हो सकता है ? क्योंकि जो स्वयं अदृष्ट है, वह भला कैसे दिखायी पड़ सकता है ?॥ ३७-३८ ॥ यह तो मूर्खों के लिये विभीषिका मात्र है। इसका कोई आधार नहीं है; केवल कष्ट की स्थिति में मन को ढाँढ़स देने के लिये वह सहारामात्र अवश्य बन जाता है ॥ ३९ ॥

आटा पीसनेवाली कोई स्त्री चक्‍की के पास चुपचाप बैठी रहे, तो बिना उद्यम किये किसी प्रकार भी आटा तैयार नहीं हो सकता ॥ ४० ॥ उद्यम करने पर ही हर प्रकार से कार्य सिद्ध होता है। जब कभी उद्यम करने में कमी रह जाती है, तब कार्य किसी तरह सिद्ध नहीं हो पाता है ॥ ४१ ॥ देश, काल, अपना बल तथा शत्रु का बल — इन सबकी पूरी जानकारी करके किया गया कार्य निश्चय ही सिद्ध होता है — यह आचार्य बृहस्पति का वचन है ॥ ४२ ॥

व्यासजी बोले — ऐसा निश्चय करके दैत्यराज शुम्भ ने महान्‌ असुर रक्तबीज को विशाल सेना के साथ समरभूमि में जाने की आज्ञा दी ॥ ४३ ॥

शुम्भ बोला — हे विशाल भुजाओं वाले रक्तबीज ! तुम युद्धभूमि में जाओ; और हे महाभाग। अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करो ॥ ४४ ॥

रक्तबीज बोला — हे महाराज! आपको तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं इस स्त्री को या तो मार डालूँगा और या तो इसे आपके अधीन कर दूँगा। आप मेरा बुद्धिचातुर्य देखें। [ मेरे आगे] देवताओं की प्रिय यह बाला है ही क्या? मैं इसे युद्ध में बलपूर्वक जीतकर आपकी दासी बना दूँगा ॥ ४०-४६ ॥

व्यासजी बोले — हे कुरुश्रेष्ठ। ऐसा कहकर महान्‌ असुर रक्तबीज रथ पर आरूढ होकर अपनी सेना के साथ चल पड़ा ॥ ४७ ॥ हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकों से चारों ओर से आवृत हुआ रक्तबीज रथ पर आरूढ़ होकर पर्वत पर विराजमान भगवती की ओर चल दिया ॥ ४८ ॥ उसे आया हुआ देखकर देवी ने शंख बजाया। वह शंखनाद सभी दैत्यों के लिये भयदायक तथा देवताओं के लिये हर्षवर्धक था ॥ ४९ ॥ उस भीषण शंखध्वनि को सुनकर वह रक्तबीज बड़े वेग से देवी चामुण्डा के पास पहुँचकर मधुर वाणी में उनसे कहने लगा ॥ ५० ॥

रक्तबीज बोला — हे बाले! क्‍या तुम कायर समझकर अपने शंखनाद से मुझको डरा रही हो?  हे कोमलांगि! क्‍या तुमने मुझे धूम्रलोचन समझ रखा है ? ॥ ५१ ॥ मेरा नाम रक्तबीज है। मैं यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ। हे पिकभाषिणि! यदि तुम्हारी युद्ध करने की इच्छा हो तो तैयार हो जाओ; मुझे तुमसे भय नहीं है ॥ ५२ ॥  हे कान्‍ते ! अब तुम मेरा पराक्रम देखो। अभी तक तुमने जिन-जिन कायर दैत्यों को देखा है, उनकी श्रेणी का मैं नहीं हूँ। तुम जिस तरह से चाहो, वैसे लड़ लो ॥ ५३ ॥ हे सुन्दरि ! यदि तुमने वृद्धजनों की सेवा की हो, नीतिशास्त्र का अध्ययन किया हो, अर्थशास्त्र पढ़ा हो, विद्वानों की गोष्ठी में भाग लिया हो और यदि तुम्हें साहित्य तथा तन्‍त्रविज्ञान का ज्ञान हो, तो मेरी हितकर, यथार्थ तथा प्रामाणिक बात सुन लो ॥ ५४-५५ ॥ विद्वानों की सभाओं में नौ रसों के अन्तर्गत शृंगाररस तथा शान्तिरस – ये दो रस ही मुख्य माने गये हैं। उन दोनों में भी श्रृंगार रसों के राजा के रूप में प्रतिष्ठित है। [इसी के प्रभाव से ] विष्णु लक्ष्मी के साथ, ब्रह्मा सावित्री के साथ, इन्द्र शची के साथ और भगवान्‌ शिव पार्वती के साथ निवास करते हैं; उसी प्रकार वृक्ष लता के साथ, मृग मृगी के साथ और कपोत कपोती के साथ आनन्दपूर्वक रहते हैं ॥ ५६-५८ ॥ इस प्रकार जगत्‌ के समस्त जीवधारी संयोगजनित सुख का अत्यधिक उपभोग करते हैं। जो लोग भोग तथा वैभव का सुख नहीं प्राप्त कर सके हैं और अन्य जो कातर मनुष्य हैं, वे निश्चय ही मूर्ख हैं और दैव से वंचित होकर यति हो जाते हैं। संसार के रस का ज्ञान न रखने वाले वे लोग मीठी-मीठी बात बोलने में निपुण धूर्तों तथा वंचकों द्वारा ठग लिये जाते हैं और सदा शान्तरस में निमग्न रहते हैं; किंतु काम, लोभ, भयंकर क्रोध और बुद्धिनाशक मोह के उत्पन्न होते ही कहाँ ज्ञान रह जाता है और कहाँ वैराग्य! अतएव है कल्याणि! तुम भी देवताओं पर विजय प्राप्त कर लेने वाले मनोहर तथा महाबली शुम्भ अथवा निशुम्भ को पति बना लो ॥ ५९-६२१/२

व्यासजी बोले — इतना कहकर वह रक्तबीज देवी के सामने चुपचाप खड़ा हो गया। उसकी बातें सुनकर चामुण्डा, कालिका और अम्बिका हँसने लगीं ॥ ६३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध के देवीमाहात्म्य में रक्तबीज के द्वारा देवी पास शुम्भ एवं निशुम्भ का संवाद वर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥

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