April 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-09 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-नवमोऽध्यायः नौवाँ अध्याय शची का इन्द्र से अपना दुःख कहना, इन्द्र का शची को सलाह देना कि वह नहुष से ऋषियों द्वारा वहन की जा रही पालकी में आने को कहे, नहुष का ऋषियों द्वारा वहन की जा रही पालकी में सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्र का पुनः स्वर्गाधिपति बनना नहुषस्वर्गच्युतिवर्णनम् व्यासजी बोले — विशाल नेत्रोंवाली अपनी शोकाकुल प्रिय पत्नी को वहाँ एकान्त में देखकर इन्द्र आश्चर्यचकित हो गये और बोले — ॥ १ ॥ हे प्रिये! तुम यहाँ कैसे आयी ? तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि मैं यहाँ हूँ? हे शुभानने! मैं सभी प्राणियों से अज्ञात रहते हुए यहाँ निवास कर रहा हूँ ॥ २ ॥ शची बोली — हे देव! देवी भगवती की कृपा से आप आज मुझे यहाँ ज्ञात हुए हैं। हे देवेन्द्र ! उन्हीं की कृपा से मैं आपको पुनः प्राप्त कर सकी हूँ ॥ ३ ॥ देवताओं और मुनियों ने नहुष नामक राजर्षि को आपके आसन पर बैठा दिया है; वह मुझे नित्य कष्ट देता है। वह पापी मुझसे इस प्रकार कहता है — हे सुन्दरि ! मुझ देवराज इन्द्र को अपना पति बना लो। हे बलार्दन ! अब मैं क्या करूँ? ॥ ४-५ ॥ इन्द्र बोले — हे वरारोहे! हे कल्याणि ! जिस प्रकार मैं [अनुकूल ] समय की प्रतीक्षा करते हुए यहाँ रह रहा हूँ, वैसे ही तुम भी अपने मन को पूर्णरूप से स्थिर करो ॥ ६ ॥ व्यासजी बोले — अपने परम आदरणीय पति के ऐसा कहने पर लम्बी साँसें खींचती तथा काँपती हुई वे शची अत्यन्त दुःखित होकर इन्द्र से कहने लगीं — ॥ ७ ॥ हे महाभाग ! मैं कैसे रहूँ? वरदान के द्वारा मदोन्मत्त और अहंकारी बना हुआ वह पापात्मा मुझे अपने वश में कर लेगा। उससे भयभीत सभी देवताओं और मुनियों ने मुझसे कहा — हे वरारोहे ! तुम उस कामातुर देवराज को अंगीकार कर लो ॥ ८-९ ॥ हे शत्रुसूदन ! बृहस्पति भी निर्बल ब्राह्मण हैं; वे मेरी रक्षा करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं; क्योंकि वे भी तो सदा देवताओं के ही अनुगामी हैं ॥ १० ॥ अतः हे विभो ! मैं वशवर्तिनी नारी हूँ, मुझे यह महान् चिन्ता है कि भाग्य की इस विपरीत अवस्था में मैं अनाथ क्या करूँगी ? ॥ ११ ॥ मैं कुलटा नहीं हूँ अपितु आपका ही ध्यान करने वाली पतिव्रता स्त्री हूँ। वहाँ मेरे लिये ऐसा कोई शरण नहीं है, जो मुझ दुःखित की रक्षा करे ॥ १२ ॥ इन्द्र बोले — हे वरानने! मैं एक उपाय बताता हूँ, तुम उसे इस समय करो। इससे दुःख के समय में तुम्हारे शील की रक्षा हो जायगी ॥ १३ ॥ करोड़ों उपाय करने पर भी दूसरे के द्वारा रक्षित स्त्री पतिव्रता नहीं रह सकती; क्योंकि वह काम से विचलित मनवाली तथा अत्यन्त चंचल होती है ॥ १४ ॥ स्त्रियों का शील ही पाप से इनकी रक्षा करता है। इसलिये हे पवित्र मुसकान वाली! तुम शील का आश्रय लेकर धैर्य धारण करो ॥ १५ ॥ जब दुष्ट राजा नहुष तुम्हें बलपूर्वक प्राप्त करने की चेष्टा करे तब तुम गुप्त प्रतिज्ञा करके राजा को धोखे में डाल देना । हे मदालसे! तुम एकान्त में उसके समीप जाकर कहो — हे जगत्पते ! आप ऋषियों के द्वारा वहन किये जाने वाले दिव्य वाहन से मेरे पास आयें, ऐसा होने पर मैं प्रेमपूर्वक आपके वश में हो जाऊँगी — यह मेरी प्रतिज्ञा है । हे सुश्रोणि! तुम उससे ऐसा बोलना, तब मोहित और कामान्ध वह राजा मुनियों को अपने वाहन में लगायेगा; इससे तपस्वी अवश्य ही नहुष को शाप से दग्ध कर देंगे । १६–१९ ॥ भगवती जगदम्बा तुम्हारी सहायता करेंगी; इसमें सन्देह नहीं है। भगवती जगदम्बा के चरणों का स्मरण करने वाले को कभी संकट नहीं होता। यदि संकट उत्पन्न भी हो जाय तो उसे भी अपने कल्याण के लिये ही समझना चाहिये। अतः तुम गुरु बृहस्पति के कथनानुसार पूर्ण प्रयत्न से मणिद्वीपवासिनी भगवती भुवनेश्वरी का भजन करो ॥ २०-२११/२ ॥ व्यासजी बोले — उनके ऐसा कहने पर ‘वैसा ही होगा ‘ यह कहकर अत्यन्त विश्वस्त तथा भावी कार्य के प्रति प्रयत्नशील शची नहुष के पास गयीं। नहुष उन्हें देखकर प्रसन्न होता हुआ यह वचन बोला — हे कामिनि ! तुम्हारा स्वागत है, मैं तुम्हारे सत्य वचनों के कारण तुम्हारे अधीन हूँ। तुमने अपने वचन का सत्यतापूर्वक पालन किया, इसलिये मैं तुम्हारा दास हो गया हूँ। हे मितभाषिणि! तुम जब मेरे समीप आ गयी हो तो मैं सन्तुष्ट हो गया हूँ। तुम्हें अब लज्जा नहीं करनी चाहिये । हे सुन्दर मुसकानवाली ! मुझ अनुरक्त को अंगीकार करो। हे विशाल नेत्रोंवाली! अपना कार्य बताओ; मैं तुम्हारा प्रिय करूँगा ॥ २२-२५१/२ ॥ शची बोलीं — हे कृत्रिम वासव! आपने मेरा सम्पूर्ण कार्य कर दिया है। हे देव ! हे विभो ! इस समय मेरे मन में एक अभिलाषा है, उसे आप सुनें । हे कल्याण ! मेरा मनोरथ पूर्ण कर दीजिये; इसके बाद मैं आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी, मैं बड़े उत्साह से अपना मनोरथ कह रही हूँ, आप उसे पूरा करने में समर्थ हैं ॥ २६-२७१/२ ॥ नहुष बोला — हे चन्द्रमुखि ! तुम अपना कार्य बताओ, मैं तुम्हारा अभिलषित कार्य करता हूँ। हे सुभ्रु ! यदि अलभ्य वस्तु होगी तो भी मैं तुम्हें दूँगा; मुझे बताओ ॥ २८१/२ ॥ शची बोलीं — हे राजेन्द्र ! मैं कैसे बताऊँ, मुझे आपका विश्वास नहीं है। हे राजेन्द्र ! आप शपथ लें कि मैं तुम्हारा प्रिय करूँगा; क्योंकि पृथ्वीतल पर सत्यवादी राजा दुर्लभ हैं। हे राजन्! आपको सत्य से बँधा जानने के बाद ही मैं अपना अभिलषित बताऊँगी। हे राजन् ! मेरी उस अभिलाषा को पूर्ण कर देने पर मैं सदा के लिये आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी। हे इन्द्र! यह मेरा सत्यवचन है ॥ २९ – ३११/२ ॥ नहुष बोला — हे सुन्दरि ! मैं यज्ञ, दान आदि कृत्यों से संचित पुण्य की शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं तुम्हारे वचन का अवश्य पालन करूँगा ॥ ३२१/२ ॥ शची बोलीं — इन्द्र के वाहन अश्व, गज और रथ हैं। भगवान् विष्णु का वाहन गरुड़, यमराज का वाहन महिष, शिव का वाहन वृषभ, ब्रह्मा का वाहन हंस, कार्तिकेय का वाहन मयूर और गजानन का वाहन मूषक है। हे सुराधिप ! मैं चाहती हूँ कि आपका वाहन ऐसा विलक्षण हो जो विष्णु, रुद्र, असुरों तथा राक्षसों के भी पास न हो ॥ ३३-३५१/२ ॥ हे देवराज! अपने व्रत में अटल रहने वाले समस्त मुनिगण शिबिका (पालकी) – में आपको ढोयें — हे राजन् ! यही मेरी इच्छा है। हे पृथ्वीपते ! मैं आपको सभी देवताओं से महान् समझती हूँ; इसीलिये मैं सावधान रहती हुई आपके तेज की वृद्धि चाहती हूँ ॥ ३६-३७१/२ ॥ व्यासजी बोले — उनकी यह बात सुनकर महादेवी द्वारा उस समय मोहित कर दिया गया बुद्धिहीन राजा नहुष हँसकर इन्द्रप्रिया शची को सन्तुष्ट करते हुए यह वचन कहने लगा — ॥ ३८-३९ ॥ नहुष बोला — हे तन्वंगि! तुमने सत्य ही कहा है, यह वाहन मुझे भी रुचिकर है। हे सुन्दर केशपाशवाली ! मैं तुम्हारे वचनों का सम्यक् रूप से पालन करूँगा ॥ ४० ॥ हे पवित्र मुसकानवाली! जो अल्प पराक्रम वाला होता है, वही ऋषियों को पालकी ढोने में नहीं लगा सकता; मैं [ तुम्हारी इच्छा के अनुसार ] वाहन पर आरूढ़ होकर तुम्हारे पास आऊँगा ॥ ४१ ॥ मुझे तीनों लोकों में सबसे बड़ा तपस्वी और समर्थ जानकर सप्तर्षि तथा सभी देवर्षि मेरा वहन करेंगे ॥ ४२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर परम सन्तुष्ट उस नहुष ने उन इन्द्रप्रिया शची को विदा किया, इसके बाद सभी मुनियों को बुलाकर वह कामातुर उनसे इस प्रकार कहने लगा — ॥ ४३ ॥ नहुष बोला — हे विप्रगण ! मैं आज सर्वशक्तिसम्पन्न इन्द्र हूँ । आपलोग गर्वरहित होकर मेरा कार्य करें ॥ ४४ ॥ इन्द्रपद मुझे प्राप्त हो गया है, परंतु इन्द्राणी अभी मुझे नहीं प्राप्त हो सकी हैं। उन्होंने मेरे पास आकर प्रेमपूर्वक यह बात कही है — ‘ हे सुरेन्द्र ! हे सुराधिप ! मुनियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी से आप मेरे पास आयें । हे देवाधिदेव ! हे महाराज ! हे मानद ! आप मेरा यह प्रिय कार्य करें’ ॥ ४५-४६ ॥ हे श्रेष्ठ मुनिगण ! मेरा यह कार्य अत्यन्त दुष्कर है, परंतु आप सब दयालुओं को मेरा यह कार्य अवश्य करना चाहिये। इन्द्रपत्नी शची में अत्यन्त आसक्त मेरे मन को काम जला रहा है, मैं आप सबकी शरण में हूँ । अतः मेरे इस महान् कार्य को सम्पन्न करें ॥ ४७-४८ ॥ अगस्त्य आदि प्रमुख ऋषियों ने उसकी यह अनादरपूर्ण बात सुनकर भावीवश उसे कृपापूर्वक स्वीकार कर लिया ॥ ४९ ॥ उन तत्त्वदर्शी मुनियों के द्वारा उस वचन के स्वीकार कर लिये जाने पर शची के प्रति आसक्तचित्त वाला राजा नहुष प्रसन्न हो गया ॥ ५० ॥ वह तुरंत एक सुन्दर पालकी पर चढ़कर उसमें बैठ गया और दिव्य मुनियों को उसे ढोने के लिये नियुक्त कर उन्हें ‘सर्प – सर्प’ (शीघ्र चलो शीघ्र चलो) ऐसा कहने लगा ॥ ५१ ॥ उस कामातुर मूर्ख ने मुनि अगस्ति के मस्तक का पैर से स्पर्श कर दिया। कामबाण से आहत तथा इन्द्राणी के द्वारा आकृष्टचित्त वाले उस राजा नहुष ने शीघ्र चलो-ऐसा कहते हुए वातापि नामक राक्षस का भक्षण करने वाले तथा समुद्र को भी पी जानेवाले उन तपस्विश्रेष्ठ लोपामुद्रापति मुनि अगस्ति पर कोड़े से प्रहार भी किया ॥ ५२-५३१/२ ॥ तब उस कोड़े के आघात का स्मरण करते हुए मुनि ने उसे यह शाप दे दिया। हे दुराचारी ! तुम वन में भयंकर शरीर वाले विशाल सर्प हो जाओ, जहाँ तुम्हें हजारों वर्षों तक बहुत कष्ट भोगते हुए विचरण करना पड़ेगा और अपने प्रभाव से तुम पुनः स्वर्ग प्राप्त करोगे । युधिष्ठिर नामवाले धर्मपुत्र का दर्शनकर और उनके मुख से अपने प्रश्नों के उत्तर सुनकर तुम्हारी मुक्ति हो जायगी ॥ ५४-५६१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार शाप प्राप्त कर राजर्षि नहुष उन मुनिश्रेष्ठ की स्तुति करके अचानक स्वर्ग से गिर पड़ा और सर्परूपधारी हो गया ॥ ५७१/२ ॥ तब बृहस्पति ने शीघ्रतापूर्वक मानसरोवर जाकर इन्द्र से सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहा। हे महाराज ( जनमेजय ) ! राजा नहुष के स्वर्ग से पतन आदि की बात सुनकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए। वे इन्द्र अब भी वहीं पर स्थित रहे। सभी देवता और मुनि नहुष को पृथ्वी पर गिरा देखकर उसी सरोवर के पास गये, जहाँ इन्द्र रहते थे ॥ ५८- ६०१/२ ॥ तत्पश्चात् उन शचीपति इन्द्र को आश्वासन देकर मुनियोंसहित सभी देवता उन्हें सम्मानपूर्वक स्वर्ग ले आये । तदनन्तर वापस आये हुए उन इन्द्र को सभी मुनियों और देवताओं ने आसन पर स्थापित करके उनका पवित्र अभिषेक किया। इन्द्र भी अपने पद को प्राप्तकर प्रेमयुक्त शची के साथ देवप्रासाद और मनोहर नन्दनवन में क्रीड़ा करने लगे ॥ ६१-६३१/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! इस प्रकार इच्छानुसार रूप धारण करने वाले महामुनि विश्वरूप और वृत्रासुर को मारने के कारण इन्द्र को अत्यन्त भीषण दुःख प्राप्त हुआ और देवी की कृपा से उन्होंने पुनः अपना स्थान प्राप्त कर लिया ॥ ६४-६५ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार आपने मुझसे जो पूछा था, वृत्रासुर वध पर आधारित वह सम्पूर्ण उत्तम आख्यान मैंने आपको कह दिया ॥ ६६ ॥ जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल प्राप्त होता है । किये गये शुभ-अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है ॥ ६७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘नहुषस्वर्गच्युति वर्णन’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ Content is available only for registered users. 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