May 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-19 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः उन्नीसवाँ अध्याय भगवती लक्ष्मी को अश्वरूपधारी भगवान् विष्णु के दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन पुत्रजन्मानन्तरं स्वस्वरूपेण वैकुण्ठगमनवर्णनम् व्यासजी बोले — उन लक्ष्मीजी को वरदान देकर भगवान् शंकर देवगणों से सेवित तथा अप्सराओं से सुशोभित रमणीक कैलास पर शीघ्र चले गये ॥ १ ॥ वहाँ पहुँचते ही शंकरजी ने लक्ष्मी का कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से अपने परम बुद्धिमान् गण चित्ररूप को वैकुण्ठ भेजा ॥ २ ॥ शिवजी बोले — हे चित्ररूप ! तुम विष्णु के पास जाकर मेरे शब्दों में यह बात कहो और इस प्रकार यत्न करना, जिससे वे अपनी दुःखी पत्नी को शोकमुक्त कर दें ॥ ३ ॥ भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर वह चित्ररूप वैष्णवगणों से घिरे अनेक प्रकार के वृक्षसमूहों से युक्त, सैकड़ों बावलियों से सुशोभित, हंस- सारस, मोर, शुक तथा कोकिलों से सुसेवित, पताकाओं से सुशोभित ऊँचे-ऊँचे भवनों वाले, नृत्य तथा गायनकला में प्रवीण जनों से युक्त, मन्दारवृक्षों से परिपूर्ण, बकुल- अशोक-तिलक – चम्पक आदि वृक्षों की पंक्तियों से मण्डित तथा पक्षियों के कर्णप्रिय कलरवों से गुंजित परम धाम वैकुण्ठ के लिये शीघ्र ही निकल पड़ा। वहाँ भगवान् विष्णु का भवन देखकर हाथ में दण्ड (छड़ी) धारण किये हुए द्वार पर स्थित जय-विजय नामक दो द्वारपालों को प्रणाम करके चित्ररूपने उनसे कहा — ॥ ४-८१/२ ॥ चित्ररूप बोला — [ हे द्वारपालो !] तुम लोग शीघ्र ही भगवान् विष्णु को सूचित कर दो कि शूलपाणि शिव द्वारा भेजा गया उनका दूत यहाँ आया है ॥ ९ ॥ उसकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् जय श्रीहरि के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर बोला — हे देवदेव ! हे रमाकान्त ! हे करुणाकर! हे केशव ! भगवान् शंकर का दूत आया हुआ है; वह द्वार पर खड़ा है। हे गरुडध्वज ! आप आदेश दीजिये कि उसे प्रवेश कराया जाय अथवा नहीं। उसका नाम चित्ररूप है। मैं उसके आने का प्रयोजन नहीं जानता ॥ १०-१२ ॥ ऐसा सुनकर दूत के आने का कारण पहले से ही जानने वाले भगवान् विष्णु ने जय से कहा — द्वार पर स्थित शंकर के भृत्य को यहाँ ले आओ ॥ १३ ॥ यह सुनकर शीघ्रतापूर्वक जाकर ‘अंदर आइये’ — ऐसा उस शंकर सेवक परम अद्भुत चित्ररूप से जय ने कहा ॥ १४ ॥ अपने चित्ररूप नाम के समान ही आकृति वाले उसको जय ने प्रवेश कराया। तब विष्णु को साष्टांग प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वहाँ उनके समक्ष वह खड़ा हो गया ॥ १५ ॥ विनय से युक्त तथा विचित्र रूप धारण करने वाले उस शम्भु-सेवक को देखकर गरुडध्वज भगवान् विष्णु विस्मय में पड़ गये ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् रमापति विष्णु ने मुसकराकर उस चित्ररूप से पूछा — हे पुण्यात्मन्! सपरिवार देवाधिदेव शंकरजी का कुशल तो है ॥ १७ ॥ तुम यहाँ किसलिये भेजे गये हो, शंकरजी का कौन-सा कार्य है अथवा देवताओं का कोई काम तो नहीं आ पड़ा, मुझे बताओ ॥ १८ ॥ दूत बोला — हे गरुडध्वज ! हे त्रिकालज्ञ ! इस संसार की कौन-सी बात आपको विदित नहीं है; तथापि इस समय जो बात है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ १९ ॥ हे जनार्दन ! उस बात को बताने के लिये मैं शंकरजी के द्वारा यहाँ भेजा गया हूँ। हे प्रभो! शिवजी के कहे गये शब्दों में मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ २० ॥ हे देवेश ! उन्होंने कहा है कि ‘हे विभो ! आपकी भार्या लक्ष्मीजी यमुना और तमसा नदी के संगम पर तपस्या कर रही हैं ॥ २१ ॥ देवगण, मानव, यक्ष तथा किन्नरों के द्वारा आराधना के योग्य एवं समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाली वे देवी घोड़ी का रूप धारण किये हैं ॥ २२ ॥ उन देवी के बिना इस जगत् का कोई भी प्राणी सुखी नहीं रह सकता । हे पुण्डरीकाक्ष ! हे हरे ! उनका परित्याग करके आप कौन-सा सुख प्राप्त कर रहे हैं ? ॥ २३ ॥ हे जगत्पते ! दुर्बल तथा निर्धन व्यक्ति भी अपनी भार्या की रक्षा करता है। तब हे विभो ! आपने बिना अपराध के ही उन जगदीश्वरी का त्याग क्यों कर दिया है ? ॥ २४ ॥ हे जगद्गुरो ! जिसकी भार्या संसार में दुःख प्राप्त करती है, उसके जीवन को धिक्कार है। ऐसा व्यक्ति शत्रुसमुदाय में निन्दित होता है ॥ २५ ॥ आपके स्वार्थी शत्रु इस समय लक्ष्मीजी को अत्यन्त दुःखित तथा आपको उनसे विलग देखकर दिन-रात हँसते होंगे ॥ २६ ॥ हे देवेश ! आप सभी लक्षणों से सम्पन्न, सुशीला तथा सुन्दर रूपवाली लक्ष्मीजी को अपने अंक में विराजमान कीजिये और उनके साथ आनन्द प्राप्त कीजिये । सुन्दर मुसकान वाली प्रिया लक्ष्मी को प्राप्तकर आप सुखी हो जाइये ॥ २७१/२ ॥ उदास रहता हुआ मैं ही स्त्रीवियोग से उत्पन्न दुःख को समझता हूँ । हे विष्णो! हे कमलनयन ! जब मेरी भार्या सती दक्ष के यज्ञ में मृत हो गयी थी तब मुझे असहनीय दुःख भोगना पड़ा था। उसके विरह से पीडित होकर मैं मन में यह शोक करता था कि इस संसार में मेरे जैसा कोई अन्य व्यक्ति न हो। जो सती क्रोधवश दक्ष के यज्ञ में जलकर भस्म हो गयी थी, उसे मैंने बहुत समय तक कठोर तपस्या करके गिरिजा के रूप में पुनः प्राप्त किया था ॥ २८-३१ ॥ हे हरे ! आपने अपनी भार्या को छोड़कर एक हजार वर्ष की अवधि तक अकेले रहते हुए कौन- -सा सुख प्राप्त कर लिया ? ॥ ३२ ॥ अतः आप महाभागा लक्ष्मी के पास जायँ और उन्हें आश्वासन देकर अपने घर ले आयें। इस संसार में कोई भी प्राणी उन रमा (लक्ष्मी) से विमुक्त न होने पाये ॥ ३३ ॥ हे आयुष्मन् ! आप अभी अश्वरूप धारण करके पवित्र मुसकान वाली लक्ष्मी के पास जाइये और पुत्र उत्पन्न करके उन्हें [वैकुण्ठ ] ले आइये ॥ ३४ ॥ व्यासजी बोले — हे भारत ! चित्ररूप की वह बात सुनकर भगवान् विष्णु ने ‘ठीक है’ — ऐसा कहकर उस दूत को शंकरजी के पास भेज दिया ॥ ३५ ॥ तत्पश्चात् दूत के चले जाने पर भगवान् विष्णु मनोहर अश्वरूप धारण कर कामयुक्त होकर शीघ्र ही वैकुण्ठ से वहीं पर पहुँचे जहाँ घोड़ी का रूप धारणकर सिन्धुतनया लक्ष्मीजी तपस्या कर रही थीं। विष्णुजी ने उस स्थान पर पहुँचकर हयरूपधारिणी लक्ष्मीजी को विराजमान देखा । अश्व का रूप धारण किये हुए अपने पति गोविन्द को देखते ही लक्ष्मीजी ने भी उन्हें पहचान लिया और वे साध्वी विस्मय में पड़कर अश्रुपूरित नेत्रों से देखती हुई वहीं खड़ी रहीं ॥ ३६-३८ ॥ यमुना और तमसा के लोकप्रसिद्ध पवित्र संगम पर कामार्त उन दोनों का समागम हुआ ॥ ३९ ॥ इस प्रकार वडवारूपधारिणी वे विष्णुप्रिया गर्भवती हो गयीं और वहीं पर उन्होंने सद्गुणों से सम्पन्न तथा सुन्दर पुत्र को जन्म दिया ॥ ४० ॥ भगवान् विष्णुने हँस कर उनसे यह समयोचित बात कही — तुम अब अपना यह अश्वीरूप छोड़ दो और पहले जैसा शरीर धारण कर लो ॥ ४१ ॥ हे सुलोचने ! हम दोनों अपनी दिव्य देह धारण करक अपने वैकुण्ठधाम चलेंगे और तुमसे उत्पन्न यह कुमार अब यहीं रहे ॥ ४२ ॥ लक्ष्मीजी बोलीं — हे देवश्रेष्ठ ! अपने शरीर से उत्पन्न पुत्र को छोड़कर मैं कैसे जाऊँ ? अपने पुत्र के प्रति स्नेह का त्याग अत्यन्त ही कठिन है ॥ ४३ ॥ हे अमेयात्मन्! इस निर्जन नदी तट पर इस लघुकाय, अनाथ तथा असमर्थ बालक की क्या गति होगी ? ॥ ४४ ॥ हे कमलनयन ! हे स्वामिन्! इस आश्रयहीन पुत्र को छोड़कर मेरा दयालु मन यहाँ से जाने के लिये भला कैसे तैयार हो सकता है ? ॥ ४५ ॥ तत्पश्चात् लक्ष्मीजी तथा भगवान् विष्णु दोनों दिव्य शरीर धारणकर उत्तम विमान पर विराजमान हुए; देवगण अन्तरिक्ष में उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४६ ॥ वैकुण्ठ के लिये प्रस्थान करने के इच्छुक भगवान् विष्णु से लक्ष्मीजी ने कहा — हे नाथ! मैं इस पुत्र का त्याग नहीं कर सकती, अतएव इसे भी साथ ले लीजिये। हे प्रभो ! मेरा यह प्राण के समान प्रिय पुत्र कान्ति में आप ही के सदृश है । हे मधुसूदन ! इसे लेकर हम दोनों वैकुण्ठ चलेंगे ॥ ४७-४८ ॥ हरि बोले — हे प्रिये ! हे वरानने! इस पुत्र के विषय में शोक करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। यह सुखपूर्वक यहीं रहे; मैंने इसकी रक्षा का उपाय कर दिया है ॥ ४९ ॥ हे वामोरु! इस पुत्र के यहाँ छोड़ने के पीछे कोई महान् तथा आश्चर्यजनक कारण छिपा है। मैं उसे बता रहा हूँ; तुम जान लो ॥ ५० ॥ इस पृथ्वी पर ययाति के पुत्र तुर्वसु नामक एक प्रसिद्ध राजा हैं। उनके पिता ने उनका लोकप्रसिद्ध हरिवर्मा – यह नाम रखा था। इस समय पुत्र की कामनावाले वे नरेश एक पवित्र तीर्थ में तपस्या कर रहे हैं। उन्हें तप करते हुए पूरे एक सौ वर्ष बीत चुके हैं। हे कमलालये! उन्हीं के लिये मैंने यह पुत्र उत्पन्न किया है। हे सुभ्रु ! वहाँ राजा के पास जाकर मैं उन्हें इसी समय भेज दूँगा । हे प्रिये ! पुत्र के अभिलाषी उन्हीं राजा को मैं यह पुत्र दे दूँगा और वे इस बालक को लेकर अपने घर चले जायँगे ॥ ५१–५४ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार अपनी प्रिय भार्या को आश्वासन देकर तथा बालक की रक्षा का प्रबन्ध करके भगवान् विष्णु उत्तम विमान पर आरूढ़ होकर अपनी प्रिया के साथ चले गये ॥ ५५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘पुत्रजन्म के अनन्तर अपने-अपने स्वरूप से वैकुण्ठगमन वर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Content is available only for registered users. 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