May 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-24 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-चतुर्विंशोऽध्यायः चौबीसवाँ अध्याय धृतराष्ट्र के जन्म की कथा अम्बिकायाः नियोगात्पुत्रोत्पादनाय गर्भधारणवर्णनम् राजा बोले — हे भगवन्! आपके मुखारविन्द से निर्गत इस अमृततुल्य दिव्य कथारस का निरन्तर पान करते रहने पर भी मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ १ ॥ आपके द्वारा मुझसे यह विचित्र आख्यान विस्तारपूर्वक कहा गया हैहयवंशी राजाओं की उत्पत्ति तो अत्यन्त आश्चर्यजनक है ॥ २ ॥ मुझे इस विषय में महान् कौतूहल हो रहा है कि देवाधिदेव जगत्पति लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णु स्वयं जगत् के उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहर्ता हैं; उन्हें भी अश्वरूप धारण करना पड़ गया ? सर्वथा स्वतन्त्र रहने वाले वे अच्युत पुरुषोत्तम भगवान् हरि परतन्त्र कैसे हो गये ? हे ब्रह्मन् ! इस समय मेरे इस सन्देह का निवारण करने में आप पूर्ण समर्थ हैं। हे मुनिवर ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव इस अद्भुत वृत्तान्त का वर्णन कीजिये ॥ ३-५ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, इस सन्देह का निर्णय पूर्व समय में मैंने मुनिश्रेष्ठ नारदजी से जैसा सुना है, वैसा ही आपको बता रहा हूँ ॥ ६ ॥ नारदजी ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। वे तपस्वी, सर्वज्ञानी, सर्वत्र गमन करने वाले, शान्त, समस्त लोकों के प्रिय एवं मनीषी हैं ॥ ७ ॥ एक बार वे मुनिवर नारद स्वर तथा तान से युक्त अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए तथा सामगान के बृहद्रथन्तर आदि अनेक भेदों और अमृतमय गायत्र – साम का गान करते हुए इस पृथ्वी पर विचरण करते हुए मेरे आश्रम पर पहुँचे। वह शम्याप्रास महातीर्थ सरस्वती के पावन तट पर विराजमान है। कल्याण और ज्ञान प्रदान करने वाला वह तीर्थ प्रधान ऋषियों का निवासस्थान है ॥ ८-१० ॥ ब्रह्माजी के पुत्र महान् तेजस्वी नारदजी को अपने आश्रम में आया देखकर मैं उठकर खड़ा हो गया और मैंने भलीभाँति उनकी पूजा आदि की ॥ ११ ॥ अर्घ्य तथा पाद्य आदि से उनका विधिपूर्वक पूजन करके आदरपूर्वक आसन पर विराजमान उन अमित तेजस्वी नारद के समीप मैं बैठ गया ॥ १२ ॥ हे राजन् ! तत्पश्चात् ज्ञान के पार पहुँचाने में समर्थ मुनि नारद को मार्गश्रम से रहित तथा शान्तचित्त देखकर मैंने उनसे वही प्रश्न पूछा था, जो आपने इस समय मुझसे पूछा है ॥ १३ ॥ [मैंने उनसे पूछा — ] हे मुने! इस सारहीन जगत् में प्राणियों को क्या सुख प्राप्त होता है ? विचार करने पर मुझे तो कभी भी, कहीं भी तथा कुछ भी सुख नहीं दिखायी देता है ॥ १४ ॥ मुझे ही देखिये, एक द्वीप में जन्म लेते ही मेरी माता ने मेरा त्याग कर दिया। तभी से आश्रयहीन रहता हुआ मैं वन में अपने कर्म के अनुसार बढ़ने लगा ॥ १५ ॥ हे देवर्षे ! तत्पश्चात् मैंने पुत्रप्राप्ति की कामना से एक पर्वत पर बहुत वर्षों तक शंकरजी की उपासना करते हुए कठोर तपस्या की ॥ १६ ॥ तब ज्ञानियों में श्रेष्ठ शुकदेव मुझे पुत्ररूप में प्राप्त हुए । मैंने उन्हें आरम्भ से लेकर सम्यक् प्रकार से वेदों का सारभूत तत्त्व पढ़ा दिया ॥ १७ ॥ हे साधो ! आपके वचनों से ज्ञान प्राप्त करके मेरा वह पुत्र मुझ विरहातुर को रोता हुआ छोड़कर लोकलोकान्तर में कहीं चला गया ? ॥ १८ ॥ तब पुत्रविरह से सन्तप्त मैं महापर्वत सुमेरु को छोड़कर अपनी माता को मन में याद करते हुए कुरुजांगल प्रदेश में पहुँचा ॥ १९ ॥ संसार मिथ्या है – ऐसा जानते हुए भी मायापाश में बँधा हुआ मैं पुत्र- स्नेह के कारण शोकाकुल रहने से अत्यन्त दुर्बल शरीरवाला हो गया ॥ २० ॥ तत्पश्चात् जब मैंने यह जाना कि वासवराजसुता मेरी कल्याणमयी माता का राजा शन्तनु ने वरण कर लिया है, तब मैं सरस्वती के पवित्र तट पर आश्रम बनाकर रहने लगा ॥ २१ ॥ इसके बाद महाराज शन्तनु के स्वर्ग प्राप्त कर लेने पर मेरी माँ विधवा हो गयीं। तब भीष्म ने दो पुत्रों वाली मेरी माता का पालन किया ॥ २२ ॥ बुद्धिमान् गंगापुत्र भीष्म ने चित्रांगद को राजा बनाया। किंतु कुछ ही समय में कामदेव के सदृश कान्तिमान् मेरे भाई चित्रांगद भी मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥ २३ ॥ पुत्र चित्रांगद के मर जाने पर मेरी माता सत्यवती अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगीं और नित्य शोक के समुद्र में निमग्न रहने लगीं ॥ २४ ॥ हे महाभाग ! उन पतिव्रता को दुःखित जानकर मैं उनके पास गया। वहाँ मैंने तथा महात्मा भीष्म ने उन्हें बहुत सान्त्वना दी ॥ २५ ॥ तब स्त्री तथा राज्य से विमुख भीष्म ने अपने दूसरे भाई पराक्रमी विचित्रवीर्य को राजा बना दिया ॥ २६ ॥ तत्पश्चात् भीष्म ने अपने बल से राजाओं को जीतकर काशिराज की दो सुन्दर पुत्रियों को लाकर माता सत्यवती को समर्पित कर दिया। पुनः शुभ मुहूर्त में जब भाई विचित्रवीर्य का विवाह सम्पन्न हो गया तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ ॥ २७-२८ ॥ कुछ ही समय में मेरे धनुर्धर भाई विचित्रवीर्य भी यक्ष्मा रोग से ग्रस्त होकर युवावस्था में ही निःसन्तान मर गये, जिससे मेरी माता दुःखित हुईं ॥ २९ ॥ इधर जब काशिराज की दोनों पुत्रियों ने अपने पति को मृत देखा तब वे दोनों बहनें पातिव्रत्य धर्म के पालन के लिये तत्पर हुई ॥ ३० ॥ वे दारुण दुःख के कारण रोती हुई अपनी साध्वी सास से कहने लगीं — हे श्वश्रु ! हम दोनों चिताग्नि में अपने पति के साथ ही जायँगी। आपके पुत्र के साथ स्वर्ग में जाकर हम दोनों अपने पति से युक्त होकर नन्दनवन में सुखपूर्वक विहार करेंगी ॥ ३१-३२ ॥ तब स्नेहभाव का आश्रय लेकर मेरी माता ने भीष्म के परामर्श से उन दोनों वधुओं को महान् चेष्टा करने से रोक दिया ॥ ३३ ॥ विचित्रवीर्य की सभी और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पन्न करके गंगातनय भीष्म तथा मेरी माता ने आपस में मन्त्रणा करके मुझे हस्तिनापुर आने के लिये मेरा स्मरण किया ॥ ३४ ॥ इस प्रकार माता के स्मरण करते ही उनके मनोगत भाव को जानकर शीघ्र ही मैं हस्तिनापुर में आ गया। सिर झुकाकर माता को प्रणाम करके मैं हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ा हो गया और पुत्रशोक के कारण अत्यन्त दुर्बल तथा तप्त अंगों वाली उन माता से मैंने कहा — ॥ ३५-३६ ॥ हे माता! आपने अपने मन में स्मरण करके यहाँ मुझे किसलिये बुलाया है ? हे तपस्विनि ! बड़े-से-बड़े कार्य के लिये मुझे आदेश दीजिये; मैं आपका दास हूँ, मैं क्या करूँ ? ॥ ३७ ॥ हे माता! मेरा परम तीर्थ तथा महान् परम देव आप ही हैं। आपके स्मरण करते ही मैं यहाँ उपस्थित हो गया हूँ। अब आप अपना प्रिय कार्य बताइये ॥ ३८ ॥ व्यासजी बोले — हे मुने! ऐसा कहकर जब मैं माता के आगे खड़ा हो गया तब पास ही बैठे हुए भीष्म को देखती हुई वे मुझसे यह कहने लगीं — ॥ ३९ ॥ हे पुत्र ! राजयक्ष्मा रोग से ग्रस्त होकर तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। अतएव वंश के नष्ट होने के भय से मैं दुःखी हूँ ॥ ४० ॥ हे प्रतिभाशाली पराशरनन्दन ! इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये मैंने भीष्म के परामर्श से समाधि द्वारा तुम्हें यहाँ बुलाया है ॥ ४१ ॥ इस नष्ट होते हुए वंश को तुम स्थापित करो, जिससे महाराज शन्तनु का नाम बना रहे। हे द्वैपायन कृष्ण ! वंशच्छेदजन्य दुःख से मेरी शीघ्र रक्षा करो ॥ ४२ ॥ तुम्हारे सदाचारी लघुभ्राता विचित्रवीर्य की रूप- यौवनसम्पन्न दो भार्याएँ हैं, जो काशिराज की पुत्रियाँ हैं ॥ ४३ ॥ हे मेधाविन् ! उन दोनों के साथ संसर्ग करके तुम पुत्र उत्पन्न करो, भरतवंश की रक्षा करो; इसमें कोई दोष नहीं है ॥ ४४ ॥ व्यासजी बोले — [ हे नारद!] माता का यह वचन सुनकर मैं चिन्ता में पड़ गया और लज्जा से व्याकुल होकर मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा — हे माता ! परनारी संगम महान् पापकर्म है। धर्म मार्ग का सम्यक् ज्ञान रखते हुए भी मैं आसक्तिपूर्वक ऐसा कर्म कैसे कर सकता हूँ? और फिर छोटे भाई की पत्नी कन्या के समान कही गयी है। ऐसी स्थिति में सभी वेदों का अध्ययन करके भी मैं ऐसा व्यभिचार कैसे करूँ ? अन्याय से कुल की रक्षा कदापि नहीं करनी चाहिये; क्योंकि पाप करने वाले के पितृगण संसार-सागर से कभी नहीं पार हो सकते। जो समग्र पुराणों का प्रवर्तक तथा लोगों को उपदेश करने वाला हो, वह जान-बूझकर ऐसा अद्भुत तथा निन्दनीय कार्य कैसे कर सकता है ? ॥ ४५-४९ ॥ तत्पश्चात् वंश-रक्षा की कामना से युक्त तथा पुत्र शोक से सन्तप्त होकर विलाप करती हुई मेरी माता ने समीप में आकर मुझसे पुनः कहा — ॥ ५० ॥ हे पराशरनन्दन! हे पुत्र ! मेरे कहने पर ऐसा करने से तुम दोषभागी नहीं होओगे। शिष्टजनों का आचार ही प्रमाण है — ऐसा मानकर मनुष्यों को गुरुजनों के दोषपूर्ण वचनों को भी उचित समझकर बिना कुछ सोच-विचार किये कर डालना चाहिये । हे पुत्र ! मेरी बात मान लो ! हे मानद ! इससे तुम्हें दोष नहीं लगेगा। हे सुत! पुत्र उत्पन्न करके अत्यधिक सन्तप्त तथा शोकसागर में निमग्न अपनी माता को सुखी करो ॥ ५१-५३ ॥ माता की यह बात सुनकर सूक्ष्मधर्म के निर्णय में विशेष ज्ञान रखने वाले गंगातनय भीष्म ने मुझसे कहा — हे कृष्ण द्वैपायन! तुम्हें इस विषय में विचार नहीं करना चाहिये। हे पुण्यात्मन् ! माता का वचन मानकर तुम सुखपूर्वक विहार करो ॥ ५४-५५ ॥ व्यासजी बोले —[ हे नारद!] भीष्म का यह वचन सुनकर तथा माता की प्रार्थना पर मैं निःशंक भाव से उस निन्द्य कर्म में प्रवृत्त हो गया ॥ ५६ ॥ रात्रि में मैं प्रसन्नतापूर्वक ऋतुमती अम्बिका के साथ प्रवृत्त हुआ, किंतु मुझ कुरूप तपस्वी के प्रति उसके अनुरागहीन होने के कारण मैंने उस सुश्रोणी को शाप दे दिया कि प्रथम संसर्ग के समय ही तुमने अपनी दोनों आँखें बन्द कर ली थीं, अतः तुम्हारा पुत्र अन्धा होगा ॥ ५७-५८ ॥ हे मुनिवर ! दूसरे दिन माता ने एकान्त में मुझसे फिर पूछा — हे पुत्र ! क्या काशिराज की पुत्री अम्बिका के गर्भ से पुत्र उत्पन्न होगा ? तब लज्जा के कारण मुख नीचे किये हुए मैंने माता से कहा — हे माता! मेरे शाप के प्रभाव से नेत्रहीन पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ५९-६० ॥ हे मुने! इस पर माता ने कठोर वाणी में मेरी भर्त्सना की — ‘हे पुत्र ! तुमने शाप क्यों दिया कि तुम्हारा पुत्र अन्धा होगा’ ॥ ६१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘अम्बिका का नियोग से पुत्र- उत्पादन के लिये गर्भधारण का वर्णन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥ Content is available only for registered users. 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