May 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-षष्ठ स्कन्धः-अध्याय-25 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-षष्ठ स्कन्धः-पञ्चविंशोऽध्यायः पचीसवाँ अध्याय पाण्डु और विदुर के जन्म की कथा, पाण्डवों का जन्म, पाण्डु की मृत्यु, द्रौपदी स्वयंवर, राजसूय यज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजी के मोह का वर्णन व्यासस्वकीयमोहवर्णनम् व्यासजी बोले — मेरी वह बात सुनकर वासवराजकुमारी सत्यवती चकित हो गयीं और पुत्र के लिये अत्यन्त व्यग्र होकर मुझसे कहने लगीं — हे पुत्र ! काशिराज की श्रेष्ठ पुत्री वधू अम्बालिका विचित्रवीर्य की भार्या है, जो विधवा तथा पतिशोक से सन्तप्त है। वह सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न और रूप तथा यौवन से युक्त है। तुम उसके साथ संसर्ग करके प्रिय पुत्र उत्पन्न करो ॥ १-३ ॥ नेत्रहीन को राजा बनने का अधिकार नहीं हो सकता। इसलिये हे मानद ! मेरी बात मानकर तुम उस राजपुत्री से एक मनोहर पुत्र उत्पन्न करो ॥ ४ ॥ हे मुने! तब मैं माताजी के ऐसा कहने पर वहीं हस्तिनापुर में ठहर गया और जब सुन्दर केशपाशवाली काशिराज की पुत्री अम्बालिका ऋतुमती हुई तो अपनी सास के कहने पर वह एकान्त शयनकक्ष में लज्जित होती मेरे पास आयी ॥ ५-६ ॥ वहाँ मुझ जटाधारी, इन्द्रियनिग्रही तथा शृङ्गाररस से अनभिज्ञ तपस्वी को देखकर उसके मुख पर पसीना आ गया, शरीर पीला पड़ गया और उसका मन बहुत खिन्न हो गया ॥ ७ ॥ तत्पश्चात् रात्रि में सम्पर्क के लिये आयी हुई उस सुन्दरी को अपने पास में बैठी देखकर मैं कुपित हो गया और रोषपूर्वक बोला — सुमध्यमे ! मुझे देखकर यदि तुम अभिमान से पीली पड़ गयी हो तो तुम्हारा पुत्र भी पीतवर्ण का होगा ॥ ८-९ ॥ ऐसा कहकर मैं उस अम्बालिका के साथ रातभर वहीं रहा और फिर माता से आज्ञा लेकर अपने आश्रम के लिये प्रस्थित हो गया ॥ १० ॥ तदनन्तर समय आने पर उन दोनों ने अन्धे तथा पाण्डुवर्ण के दो पुत्र उत्पन्न किये। वे दोनों धृतराष्ट्र तथा पाण्डु नाम से प्रसिद्ध हुए ॥ ११ ॥ उन दोनों राजकुमारों को इस प्रकार का देखकर मेरी माता खिन्नमनस्क हो गयीं। तत्पश्चात् एक वर्ष के अनन्तर मुझे बुलाकर उन्होंने कहा — हे द्वैपायन! इस प्रकार के दोनों पुत्र राज्य करने के योग्य नहीं हैं, अतएव तुम एक अन्य मनोहर पुत्र उत्पन्न करो, जो मुझे अत्यन्त प्रिय हो ॥ १२-१३ ॥ ‘वैसा ही होगा’ – मेरे इस प्रकार कहनेपर माता अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं। इसके बाद ऋतुकाल आने पर माता ने पुत्र हेतु अम्बिका से प्रार्थना की — हे पुत्र ! हे सुमुखि ! व्यास के साथ समागम करके तुम कुरुवंश चलाने वाला तथा राज्य करने योग्य एक अद्वितीय पुत्र उत्पन्न करो ॥ १४-१५ ॥ उस समय लज्जा से युक्त वधू अम्बिका ने कुछ भी नहीं कहा और मैं माता की वह बात मानकर रात में शयनागार में चला गया ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् अम्बिका ने विचित्रवीर्य की रूप-यौवनसम्पन्न दासी को सुन्दर आभूषण तथा वस्त्र पहनाकर मेरे पास भेज दिया ॥ १७ ॥ शरीर पर चन्दन लगाये, फूल की मालाओं से विभूषित तथा सुन्दर केशोंवाली वह सुन्दरी हंसकी भाँति मन्द मन्द चलती हुई बड़े हाव-भाव से मेरे पास आयी ॥ १८ ॥ मुझे पलंग पर बैठाकर वह भी प्रेमपूर्वक मेरे पास बैठ गयी। हे मुने! उसके इस प्रेमपूर्ण हाव-भाव से मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ ॥ १९ ॥ हे नारद! रात्रि में मैंने उसके साथ प्रेमपूर्वक विहार किया और पुनः प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया — हे सुभगे ! तुम्हें सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न, रूपवान्, सभी धर्मों का ज्ञाता, सत्यवादी तथा शान्त स्वभाव वाला पुत्र उत्पन्न होगा ॥ २०-२१ ॥ समय आने पर विदुर के रूप में वही पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार मुझसे तीन पुत्रों की उत्पत्ति हुई । हे साधो ! परक्षेत्र में मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये इन पुत्रों के प्रति मेरी ममता बढ़ने लगी ॥ २२ ॥ उन तीनों पुत्रों को अत्यन्त बलवान् तथा वीर्यवान् देखकर मैं अपने शोक के एकमात्र कारण शुक सम्बन्धी वियोग को भूल गया ॥ २३ ॥ हे ब्रह्मन् ! माया बलवती होती है, आत्मज्ञान से रहित पुरुषों के लिये यह अत्यन्त दुस्त्यज है । रूपहीन तथा आलम्बरहित यह माया ज्ञानियों को भी मोहित कर देती है ॥ २४ ॥ हे मुनिवर ! माता में तथा उन पुत्रों में स्नेहासक्ति से आबद्ध मेरे मन को वन में भी शान्ति नहीं मिल पाती थी ॥ २५ ॥ मेरा मन दोलायमान हो गया। वह कभी हस्तिनापुर में रहता था तो कभी सरस्वतीनदी के तट पर चला आता था; इस प्रकार मेरा मन किसी जगह स्थिर नहीं रहता था ॥ २६ ॥ कभी-कभी मन में ज्ञान का उदय हो जाने पर मैं सोचने लगता था कि ये पुत्र कौन हैं, यह मोह कैसा ? मेरे मर जाने पर ये मेरा श्राद्ध भी तो नहीं कर सकेंगे ॥ २७ ॥ दुराचार से उत्पन्न ये पुत्र मुझे कौन-सा सुख देंगे। माया बड़ी प्रबल होती है; यह मन में मोह पैदा कर देती है ॥ २८ ॥ हे मुने! कभी- कभी शान्तचित्त होकर एकान्त में मैं यह सन्ताप करने लगता था कि मैं जान-बूझकर इस मोहरूपी अन्धकूप में व्यर्थ ही गिर गया हूँ ॥ २९ ॥ भीष्म की सम्मति से जब बलवान् पाण्डु को राज्य प्राप्त हुआ, उस समय मेरा मन इस बात से बहुत प्रसन्न हुआ कि मेरा पुत्र राजसिंहासन पर बैठा है ॥ ३० ॥ तत्पश्चात् सुन्दर रूपवाली कुन्ती तथा माद्री उनकी दो भार्याएँ हुईं। उनमें कुन्ती महाराज शूरसेन की पुत्री थी तथा दूसरी रानी माद्री मद्रदेश के राजा की कन्या थी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मण से शाप प्राप्त करके राजा पाण्डु अत्यन्त दुःखित हुए और वे राज्य का परित्याग करके अपनी दोनों रानियों के साथ वन चले गये ॥ ३२ ॥ अपने पुत्र को वन में स्थित सुनकर मुझे महान् शोक हुआ । मैं वहाँ पहुँच गया, जहाँ वे अपनी दोनों पत्नियों के साथ रह रहे थे ॥ ३३ ॥ वन में उन पाण्डु को सान्त्वना देकर मैं पुनः हस्तिनापुर आ गया और वहाँ धृतराष्ट्र के साथ बातचीत करके सरस्वतीनदी के तट पर पुनः चला गया ॥ ३४ ॥ वन में अपने आश्रम में उन्होंने धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमारों से पाँच क्षेत्रज पुत्रों को पाँच पाण्डवों के रूप में उत्पन्न कराया। धर्म, वायु तथा इन्द्र से उत्पन्न हुए युधिष्ठिर, भीमसेन तथा अर्जुन — ये कुन्तीपुत्र कहे गये हैं । इसी तरह नकुल तथा सहदेव — ये दोनों माद्री के पुत्र हुए ॥ ३५-३६१/२ ॥ एक दिन महाराज पाण्डु एकान्त में माद्री का आलिंगन करके पूर्वशाप के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गये । तत्पश्चात् मुनियों ने उनका दाह-संस्कार किया और माद्री सती होकर पति के साथ प्रज्वलित अग्नि में प्रविष्ट हो गयी और पुत्रों से युक्त कुन्ती वहीं स्थित रह गयी। तत्पश्चात् मुनिलोग पतिविहीन उस दुःखित शूरसेन पुत्री कुन्ती को उसके पुत्रों सहित हस्तिनापुर ले आये और उसे भीष्म तथा महात्मा विदुर को सौंप दिया। यह सुनकर मैं उन पाण्डुपुत्रों के कारण सुख-दुःख से पीड़ित हो गया । पाण्डु के ये पुत्र हैं – ऐसा सोचकर भीष्म, मतिमान् विदुर तथा धृतराष्ट्र प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे ॥ ३७-४११/२ ॥ धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि जो क्रूर हृदय वाले पुत्र थे, वे एक समूह बनाकर उनका घोर विरोध करने लगे । तत्पश्चात् द्रोणाचार्य वहाँ आये और भीष्म ने उनका सम्मान किया। उन्होंने पुत्रों को धनुर्विद्या की शिक्षा देने के लिये उन्हें उसी पुर में रख लिया ॥ ४२-४३१/२ ॥ कुन्ती ने उत्पन्न होते ही जब बालक कर्ण का परित्याग कर दिया तब अधिरथ नामक सूत ने नदी में बहते हुए उस कर्ण को पाया और उसका पालन-पोषण किया। सर्वश्रेष्ठ वीर होने के कारण कर्ण दुर्योधन का प्रिय हो गया । बाद में भीम तथा दुर्योधन आदि में परस्पर विरोध भाव उत्पन्न हो गया ॥ ४४-४५१/२ ॥ तब धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों तथा उन पाण्डवों के परस्पर संकट का विचार करके तथा उनके विरोध-भाव को समाप्त करने के उद्देश्य से वारणावत नगर में महात्मा पाण्डवों को बसाने का निश्चय किया ॥ ४६-४७ ॥ द्रोह के कारण दुर्योधन ने अपने मित्र पुरोचन को वहाँ भेजकर दिव्य लाक्षागृह का निर्माण करा दिया ॥ ४८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् कुन्तीसहित उन पाण्डवों के उस लाक्षागृह में दग्ध हो जाने का समाचार सुनकर उनके प्रति पौत्र – भाव होने के कारण मैं दुःख के सागर में डूब गया और उस निर्जन वन में उन्हें दिन-रात खोजता हुआ अति शोकसन्तप्त रहता था। तभी मैंने दुःख के कारण अत्यन्त दुर्बल उन पाण्डवों को एकचक्रा नगरी में देखा। उन पाण्डवों को देखकर मेरे मन में अत्यधिक प्रसन्नता हुई और मैंने उन्हें तुरंत महाराज द्रुपद के नगर में भेज दिया ॥ ४९–५१ ॥ कृश शरीरवाले वे दुःखित पाण्डव मृगचर्म पहनकर ब्राह्मण का वेश धारण करके वहाँ गये और द्रुपद की स्वयंवर सभा में जा पहुँचे । वहाँ पर अर्जुन अपने पराक्रम का प्रदर्शन करके द्रुपद – पुत्री द्रौपदी को जीतकर ले आये । पुनः माता कुन्ती के आदेश से पाँचों भाइयों ने मानिनी द्रौपदी के साथ विवाह किया ॥ ५२-५३ ॥ उनका विवाह देखकर मैं परम प्रसन्न हुआ। हे मुने ! तत्पश्चात् वे सभी द्रौपदीसहित हस्तिनापुर चले आये ॥ ५४ ॥ धृतराष्ट्र ने उन पाण्डवों के रहने के लिये खाण्डवप्रस्थ देने का निश्चय किया । हे द्विजश्रेष्ठ नारद! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ अग्निदेव को सन्तुष्ट किया। पाण्डवों ने जब राजसूय यज्ञ किया तब मैं बहुत प्रसन्न हुआ ॥ ५५-५६ ॥ उन पाण्डवों का वैभव तथा मय दानव द्वारा निर्मित की गयी सभा को देखकर दुर्योधन अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने द्यूतक्रीडा की योजना बनायी। शकुनि कपटपूर्ण द्यूत में अति निपुण था तथा धर्मराज युधिष्ठिर पासे के खेल से अनभिज्ञ थे। अतएव दुर्योधन ने [द्यूतक्रीडा के माध्यम से ] पाण्डवों का सम्पूर्ण राज्य तथा धन छीन लिया तथा द्रौपदी को भी अपमानित किया। दुर्योधन ने द्रौपदीसहित पाँचों पाण्डवों को बारह वर्ष की अवधि तक वन में निवास करने के लिये निर्वासित कर दिया; इससे मुझे बहुत दुःख हुआ ॥ ५७–५९ ॥ हे नारद! इस प्रकार सनातन धर्म को जानते हुए भी मैं सुख तथा दुःख से पूर्ण इस संसार में भ्रम से ही बन्धन में पड़ा हूँ। मैं कौन हूँ, ये किसके पुत्र हैं, यह किसकी माता है और सुख क्या है ? जिससे मेरा मन मोहित होकर दिन-रात इन्हीं में भ्रमण करता रहता है ॥ ६०-६१ ॥ मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? किसी प्रकार से भी मुझे सन्तोष नहीं मिलता। दोलायमान मेरा चंचल मन स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ ६२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सर्वज्ञ हैं, अतएव मेरे सन्देह का निवारण कीजिये । आप कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं सन्तापरहित होकर सुखी हो जाऊँ ॥ ६३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत षष्ठ स्कन्ध का ‘व्यास का स्वकीय मोहवर्णन’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ Content is available only for registered users. 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