May 11, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-27 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-सप्तविंशोऽध्यायः सताईसवाँ अध्याय चिता बनाकर राजा का रोहित को उसपर लिटाना और राजा-रानी का भगवती का ध्यानकर स्वयं भी पुत्र की चिता में जल जाने को उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओं का राजा के पास आना, इन्द्र का अमृत वर्षा करके रोहित को जीवित करना और राजा-रानी से स्वर्ग चलने के लिये आग्रह करना, राजा का सम्पूर्ण अयोध्यावासियों के साथ स्वर्ग जाने का निश्चय हरिश्चन्द्राख्यानश्रवणफलवर्णनम् सूतजी बोले — तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र ने चिता तैयार करके उस पर अपने पुत्र को लिटा दिया और भार्यासहित दोनों हाथ जोड़कर वे शताक्षी (सौ नेत्रोंवाली) परमेश्वरी, जगत् की अधिष्ठात्री, पंचकोश के भीतर सदा विराजमान रहने वाली, पुच्छब्रह्मस्वरूपिणी, रक्तवर्ण का वस्त्र धारण करने वाली, करुणारस की सागरस्वरूपा, अनेक प्रकार के आयुध धारण करने वाली और जगत् की रक्षा करने में निरन्तर तत्पर जगदम्बा का ध्यान करने लगे ॥ १-३ ॥ इस प्रकार ध्यानमग्न उन राजा हरिश्चन्द्र के समक्ष इन्द्रसहित सभी देवता धर्म को आगे करके तुरन्त उपस्थित हुए ॥ ४ ॥ वहाँ आकर उन सबने कहा — हे राजन् ! हे महाप्रभो! सुनिये, [ब्रह्मा ने कहा – ] मैं साक्षात् पितामह ब्रह्मा हूँ और ये स्वयं भगवान् धर्मदेव हैं; इसी प्रकार साध्यगण, विश्वेदेव, मरुद्गण, चारणोंसहित लोकपाल, नाग, सिद्ध, गन्धर्वोंके साथ रुद्रगण, दोनों अश्विनीकुमार, महर्षि विश्वामित्र तथा अन्य ये बहुत से देवता भी यहाँ उपस्थित हैं । जो धर्मपूर्वक तीनों लोकों के साथ मित्रता करने की इच्छा रखते हैं, वे विश्वामित्र सम्यक् प्रकार से आपका अभीष्ट सिद्ध करने की अभिलाषा प्रकट कर रहे हैं ॥ ५–७१/२ ॥ धर्म बोले — हे राजन् ! आप ऐसा साहस मत कीजिये । आपमें जो सहनशीलता, इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने की शक्ति तथा सत्त्व आदि गुण विद्यमान हैं; उनसे परम सन्तुष्ट होकर मैं साक्षात् धर्म आपके पास आया हूँ ॥ ८ ॥ इन्द्र बोले — हे महाभाग हरिश्चन्द्र ! मैं इन्द्र आपके समक्ष उपस्थित हूँ । हे राजन् ! आज स्त्री- पुत्र सहित आपने सनातन लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है। अतः अब आप अपनी भार्या तथा पुत्र को साथ में लेकर अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा प्राप्त करने योग्य तथा अन्य लोगों के लिये अत्यन्त दुर्लभ स्वर्ग के लिये प्रस्थान कीजिये ॥ ९-१० ॥ सूतजी बोले — तत्पश्चात् इन्द्र ने आकाश से चिता के मध्यभाग में सोये हुए शिशु रोहित पर अपमृत्यु का नाश करनेवाली अमृतमयी वृष्टि आरम्भ कर दी। उस समय पुष्पों की विपुल वर्षा तथा दुन्दुभियों की तेज ध्वनि होने लगी ॥ ११-१२ ॥ महान् आत्मावाले उन राजा हरिश्चन्द्र के सुकुमार अंगों वाले मृत पुत्र रोहित स्वस्थ, प्रसन्न तथा आनन्दचित्त हो गये। तब राजा ने अपने पुत्र को हृदय से लगा लिया। तत्पश्चात् पत्नीसहित वे राजा हरिश्चन्द्र दिव्य मालाओं तथा वस्त्रों से सहसा अलंकृत हो गये । उनके मन में शान्ति छा गयी, उनके हृदय हर्ष से भर गये और वे परम आनन्द से समन्वित हो गये । उस समय इन्द्र ने राजा से कहा — हे महाभाग ! अब आप स्त्री- पुत्रसहित स्वर्गलोकके लिये प्रस्थान कीजिये । आपने परम सद्गति प्राप्त की है, यह आपके अपने ही कर्मों का फल है ॥ १३–१६ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — हे देवराज ! अपने स्वामी चाण्डाल से बिना आज्ञा प्राप्त किये और बिना उनका प्रत्युपकार किये, मैं स्वर्गलोक नहीं जाऊँगा ॥ १७ ॥ धर्म बोल — आपके भावी क्लेश के सम्बन्ध में विचार करके मैं ही अपनी माया के प्रभाव से चाण्डाल बन गया था। आपको जो चाण्डाल का घर दिखायी पड़ा था, वह भी मेरी माया ही थी ॥ १८ ॥ इन्द्र बोले — हे हरिश्चन्द्र! पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य जिस श्रेष्ठ स्थान की प्राप्ति हेतु कामना करते हैं, पुण्यात्मा पुरुषों के उस पवित्र स्थान के लिये अब आप प्रस्थान कीजिये ॥ १९ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — हे देवराज ! आपको नमस्कार है । अब मेरी एक बात सुन लीजिये । अयोध्या नगर में रहने वाले सभी मानव मेरे शोक सन्तप्त मनवाले हैं, उन्हें यहाँ छोड़कर मैं स्वर्ग कैसे जाऊँगा ? ब्रह्महत्या, सुरापान, गोवध और स्त्रीहत्या – जैसे महापातकों के ही समान अपने भक्तों का त्याग भी महान् पाप बताया गया है। श्रद्धालु भक्त त्याज्य नहीं होता है, उसे त्यागने वाले को सुख भला कैसे मिल सकता है ? अतएव हे इन्द्र! उन्हें छोड़कर मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगा, अब आप स्वर्ग प्रस्थान करें । हे सुरेन्द्र ! यदि मेरे साथ वे भी स्वर्ग चलें तो मैं स्वर्ग चल सकता हूँ । उनके साथ यदि नरक में जाना हो तो मैं वहाँ भी चला जाऊँगा ॥ २०–२३१/२ ॥ इन्द्र बोले — हे राजन् ! उन अयोध्या के नागरिकों के भिन्न-भिन्न प्रकार के पुण्य और पाप हैं। हे भूप ! समस्त जन-समूह के लिये स्वर्ग उपभोग का साधन हो जाय – ऐसी इच्छा आप क्यों प्रकट कर रहे हैं? ॥ २४१/२ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — हे इन्द्र ! प्रजा के प्रभाव से ही राजा राज्य का भोग करता है, यह सुनिश्चित है और उन्हीं की सहायता से ही राजा बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा देवताओं की उपासना करता है और पूर्तकर्म (कुएँ-तालाब आदिका निर्माण) करता है । मैंने भी उन्हीं के बल पर यह सब कृत्य किया है। उनके द्वारा की गयी सहायता के कारण मैं स्वर्ग के लोभ से उनका त्याग नहीं करूँगा । अतः हे देवेश ! मैंने जो कुछ भी उत्तम कार्य किया हो; दान, यज्ञ और जप आदि किया हो, उसका फल हमें उन सभी के साथ प्राप्त हो; और मेरे उत्तम कर्म के फलस्वरूप बहुत समय तक भोग करने का जो फल मिल रहा हो, वह भले ही एक दिन के लिये हो, उन नागरिकों के साथ भोगने के लिये मुझे आपकी कृपा से मिल जाय ॥ २५–२८१/२ ॥ सूतजी बोले — त्रिलोकी स्वामी इन्द्र ने ‘ऐसा ही होगा’ – इस प्रकार कहा। इससे धर्म और गाधिपुत्र विश्वामित्र के मन में प्रसन्नता छा गयी। तदनन्तर वे सभी लोग चारों वर्णों के लोगों से भरी हुई अयोध्या नगरी में पहुँचे । वहाँ पर सुरपति इन्द्र ने राजा हरिश्चन्द्र के सन्निकट आकर कहा — हे नागरिको ! अब आप सभी लोग परम दुर्लभ स्वर्गलोक चलिये । धर्म के फलस्वरूप ही आप सभी को यह स्वर्ग सुलभ हुआ है ॥ २९–३११/२ ॥ तत्पश्चात् धर्मपरायण राजा हरिश्चन्द्र ने उन सभी नगरवासियों से कहा कि आप सभी लोग मेरे साथ स्वर्गलोक प्रस्थान कीजिये ॥ ३२१/२ ॥ सूतजी बोले — देवराज इन्द्र तथा राजा हरिश्चन्द्र का वचन सुनकर सभी नागरिक प्रफुल्लित हो उठे। जो नागरिक सांसारिकता से विरक्त हो चुके थे, वे गृहस्थी का भार अपने पुत्रों को सौंपकर प्रसन्न मन से स्वर्ग जाने के लिये तैयार हो गये । वे सभी लोग उत्तम विमानों पर चढ़ गये । उनके शरीर से सूर्य के समान तेज निकलने लगा। उस समय वे परम आनन्दित हो गये । उदार चित्तवाले राजा हरिश्चन्द्र भी हृष्ट-पुष्ट नागरिकों से युक्त अयोध्या नामक रमणीक पुरी में अपने रोहित नाम से प्रसिद्ध पुत्र का राज्याभिषेक करके अपने पुत्र तथा सुहृदों का सम्मान- पूजन करके पुण्य प्राप्त होनेवाली तथा देवता आदि के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ महान् कीर्ति को प्राप्त करके छोटी-छोटी घण्टियों से सुशोभित तथा इच्छा के अनुसार चलने वाले विमान पर बैठ गये ॥ ३३-३८ ॥ यह सब देखकर दैत्योंके आचार्य एवं सभी शास्त्रोंके अर्थों तथा तत्त्वोंको जाननेवाले महाभाग शुक्राचार्यने यह श्लोकरूपी मन्त्र उच्चारित किया – ॥ ३९ ॥ शुक्राचार्य बोले — अहो, सहिष्णुता की ऐसी महिमा और दान का इतना महान् फल कि राजा हरिश्चन्द्र ने इन्द्र का लोक प्राप्त कर लिया ॥ ४० ॥ सूतजी बोले — इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन मैंने आप लोगों से कर दिया । जो दुःखी प्राणी इस आख्यान का श्रवण करता है, वह सदा सुखी रहता है। इसका श्रवण करने से स्वर्ग की इच्छा रखने वाला स्वर्ग प्राप्त कर लेता है, पुत्र की अभिलाषा रखने वाला पुत्र प्राप्त कर लेता है, पत्नी की कामना करने वाला पत्नी प्राप्त कर लेता है और राज्य की वांछा रखने वाला राज्य प्राप्त कर लेता है ॥ ४१-४२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्राख्यानश्रवणफलवर्णन’ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥ Content is available only for registered users. 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