श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-16
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-षोडशोऽध्यायः
सोलहवाँ अध्याय
बालरूपधारी भगवान् विष्णु से महालक्ष्मी का संवाद, व्यासजी का शुकदेवजी से देवीभागवत प्राप्ति की परम्परा बताना तथा शुकदेवजी का मिथिला जाने का निश्चय करना
व्यासोपदेशवर्णनम्

॥ व्यास उवाच ॥
दृष्ट्वा तं विस्मितं देवं शयानं वटपत्रके ।
उवाच सस्मितं वाक्यं विष्णो किं विस्मितो ह्यसि ॥ १ ॥
महाशक्त्याः प्रभावेण त्वं मां विस्मृतवान्पुरा ।
प्रभवे प्रलये जाते भूत्वा भूत्वा पुनः पुनः ॥ २ ॥
निर्गुणा सा परा शक्तिः सगुणस्त्वं तथाप्यहम् ।
सात्त्विकी किल या शक्तिस्तां शक्तिं विद्धि मामिकाम् ॥ ३ ॥
त्वन्नाभिकमलाद्‌ब्रह्मा भविष्यति प्रजापतिः ।
स कर्ता सर्वलोकस्य रजोगुणसमन्वितः ॥ ४ ॥
स तदा तप आस्थाय प्राप्य शक्तिमनुत्तमाम् ।
रजसा रक्तवर्णञ्च करिष्यति जगत्त्रयम् ॥ ५ ॥
सगुणान्पञ्चभूतांश्च समुत्पाद्य महामतिः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियेशांश्च मनःपूर्वान्समन्ततः ॥ ६ ॥
करिष्यति ततः सर्गं तेन कर्ता स उच्यते ।
विश्वस्यास्य महाभाग त्वं वै पालयिता तथा ॥ ७ ॥

व्यासजी बोले — इस प्रकार वटपत्र पर सोये हुए उन भगवान् विष्णु को आश्चर्यचकित देख कर मन्द मुसकान करती हुई देवी ने यह वचन कहा — ‘विष्णो! आप विस्मयमें क्यों पड़े हैं ? ॥ १ ॥ आप उस महाशक्ति की माया से पूर्वकाल में भी सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय होने पर इसी प्रकार बार-बार जन्म लेकर मुझे भूलते रहे हैं ॥ २ ॥ वे पराशक्ति निर्गुणा हैं, मैं और आप तो सगुण हैं। जो सात्त्विकी शक्ति है, उसे आप मेरी ही शक्ति समझिये ॥ ३ ॥ आपके नाभिकमल से प्रजापति ब्रह्मा उत्पन्न होंगे। वे ही रजोगुण से युक्त होकर समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि करेंगे ॥ ४ ॥ वे ब्रह्मा ही तपोबल का आश्रय लेकर श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा त्रिभुवन को लाल वर्ण का कर देंगे । गुणों सहित पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु — इन पाँचों महाभूतों की एवं मनके साथ इन्द्रियों तथा उनके अधिष्ठातृदेवताओं की रचना करके वे बुद्धिमान् ब्रह्माजी जगत् की सृष्टि करेंगे; इसी कारण वे कर्ता कहे जायँगे और आप इस विश्व के पालक होंगे ॥ ५-७ ॥

तद्‌भुवोर्मध्यदेशाच्च क्रोधाद्‌रुद्रो भविष्यति ।
तपः कृत्वा महाघोरं प्राप्य शक्तिं तु तामसीम् ॥ ८ ॥
कल्पान्ते सोऽपि संहर्ता भविष्यति महामते ।
तेनाहं त्वामुपायाता सात्त्विकीं त्वमवेहि माम् ॥ ९ ॥
स्थास्येऽहं त्वत्समीपस्था सदाहं मधुसूदन ।
हृदये ते कृतावासा भवामि सततं किल ॥ १० ॥

उनके क्रोध करने पर उनकी भौंहों के मध्यभाग से रुद्र उत्पन्न होंगे । हे महामते ! वे ही रुद्र घोर तप करके तामसी शक्ति प्राप्त कर कल्पान्त के समय सृष्टि संहारकर्ता होंगे। इसी कारण मैं आपके पास आयी हूँ; आप मुझे वही सात्त्विकी शक्ति समझिये । हे मधुसूदन ! मैं यहीं रहूँगी। मैं तो सर्वदा आपके ही पास रहती हूँ। आपके हृदय में मैं निरन्तर निवास करती हूँ ॥ ८–१० ॥

॥ विष्णुरुवाच ॥
श्लोकस्यार्धं मया पूर्वं श्रुतं देवि स्फुटाक्षरम् ।
तत्केनोक्तं वरारोहे रहस्यं परमं शिवम् ॥ ११ ॥
तन्मे ब्रूहि वरारोहे संशयोऽयं वरानने ।
निर्धनो हि यथा द्रव्यं तत्स्मरामि पुनः पुनः ॥ १२ ॥

विष्णु बोले — हे देवि ! हे वरारोहे! कुछ समय पूर्व मैंने स्पष्ट अक्षरोंवाला जो आधा श्लोक सुना, वह परम कल्याणप्रद तथा रहस्यमय वाक्य किसने कहा था ? हे वरारोहे ! यह मुझे शीघ्र बताइये; हे सुमुखि ! इस विषय में मुझे महती शंका है। जिस प्रकार निर्धन पुरुष धन की चिन्ता करता रहता है, उसी प्रकार मैं उसका बार-बार स्मरण किया करता हूँ ॥ ११-१२ ॥

॥ व्यास उवाच ॥
विष्णोस्तद्वचनं श्रुत्वा महालक्ष्मीः स्मितानना ।
उवाच परया प्रीत्या वचनं चारुहासिनी ॥ १३ ॥

व्यासजी बोले — विष्णु का वह वचन सुनकर मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली महालक्ष्मी मधुर हास्य के साथ अत्यन्त प्रेम से बोलीं ॥ १३ ॥

॥ महालक्ष्मीरुवाच ॥
शृणु शौरे वचो मह्यं सगुणाहं चतुर्भुजा ।
मां जानासि न जानासि निर्गुणां सगुणालयाम् ॥ १४ ॥
त्वं जानीहि महाभाग तया तत्प्रकटीकृतम् ।
पुण्यं भागवतं विद्धि वेदसारं शुभावहम् ॥ १५ ॥
कृपां च महतीं मन्ये देव्याः शत्रुनिषूदन ।
यया प्रोक्तं परं गुह्यं हिताय तव सुव्रत ॥ १६ ॥
रक्षणीयं सदा चित्ते न विस्मार्यं कदाचन ।
सारं हि सर्वशास्त्राणां महाविद्याप्रकाशितम् ॥ १७ ॥
नातः परं वेदितव्यं वर्तते भुवनत्रये ।
प्रियोऽसि खलु देव्यास्त्वं तेन ते व्याहृतं वचः ॥ १८ ॥

महालक्ष्मी बोलीं — हे शौरे ! मेरी बात सुनिये । मैं सगुणरूपा चतुर्भुजा भगवती हूँ । आप मुझे जानते हों या न जानते हों, किंतु मैं सब गुणों का आलय होती हुई निर्गुणा भी हूँ ॥ १४ ॥ हे महाभाग ! आप यह जान लें कि वह अर्धश्लोक उसी पराशक्ति ने कहा था । आप उसे सब वेदों का तत्त्वस्वरूप, कल्याणकारी और पुण्यप्रद श्रीमद्देवीभागवत समझिये । हे शत्रुमर्दन! हे सुव्रत ! मैं भगवती की परम कृपा मानती हूँ, जिसने ऐसा गुप्त एवं परम रहस्यमय मन्त्र आपके कल्याण के लिये कहा है ॥ १५-१६ ॥ आप इसे सर्वदा चित्त में रखिये और कभी भी इसे विस्मृत न कीजिये; यह सब शास्त्रों का सार है तथा महाविद्या द्वारा प्रकाशित किया गया है ॥ १७ ॥ इससे बढ़कर त्रिभुवन में कुछ भी ज्ञातव्य नहीं है। आप निश्चय ही देवी के परम प्रिय हैं, इसीलिये उन्होंने यह मन्त्र आपको बताया है ॥ १८ ॥

॥ व्यास उवाच ॥
इति श्रुत्वा वचो देव्या महालक्ष्याश्चतुर्भुजः ।
दधार हृदये नित्यं मत्वा मन्त्रमनुत्तमम् ॥ १९ ॥
कालेन कियता तत्र तन्नाभिकमलोद्‌भवः ।
ब्रह्मा दैत्यभयात्त्रस्तो जगाम शरणं हरेः ॥ २० ॥
ततः कृत्वा महायुद्धं हत्वा तौ मधुकैटभौ ।
जजाप भगवान्विष्णुः श्लोकार्धं विशदाक्षरम् ॥ २१ ॥
जपन्तं वासुदेवं च दृष्ट्वा देवः प्रजापतिः ।
पप्रच्छ परमप्रीतः कञ्जजः कमलापतिम् ॥ २२ ॥
किं त्वं जपसि देवेश त्वत्तः कोऽप्यधिकोऽस्ति वै ।
यत्कृत्वा पुण्डरीकाक्ष प्रीतोऽसि जगदीश्वर ॥ २३ ॥

व्यासजी बोले — महादेवी लक्ष्मी के इस वचन को सुनकर चतुर्भुज भगवान् विष्णु ने इसे सर्वश्रेष्ठ मन्त्र समझकर सदा के लिये हृदय में धारण कर लिया ॥ १९ ॥ कुछ दिनों के बाद उनके नाभिकमल से उत्पन्न ब्रह्माजी दैत्यों के भय से डरकर भगवान् विष्णु की शरण में गये। तब वे भगवान् विष्णु भयंकर युद्ध करके मधु-कैटभ का वधकर उस विशद अक्षरों वाले श्लोकार्धरूप मन्त्र का जप करने लगे ॥ २०-२१ ॥ भगवान् वासुदेव को जप करते हुए देखकर प्रजापति ब्रह्माजी ने प्रेमपूर्वक कमलापति से पूछा हे देवेश ! हे पुण्डरीकाक्ष ! हे जगदीश्वर ! आप किसका जप कर रहे हैं ? आपसे भी बढ़कर दूसरा कौन है, जिसका ध्यान करके आप इतने प्रसन्न हो रहे हैं ? ॥ २२-२३ ॥

॥ हरिरुवाच ॥
मयि त्वयि च या शक्तिः क्रियाकारणलक्षणा ।
विचारय महाभाग या सा भगवती शिवा ॥ २४ ॥
यस्याधारे जगत्सर्वं तिष्ठत्यत्र महार्णवे ।
साकारा या महाशक्तिरमेया च सनातनी ॥ २५ ॥
यया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम् ।
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये ॥ २६ ॥
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ।
संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ॥ २७ ॥
अहं त्वमखिलं विश्वं तस्याश्चिच्छक्तिसम्भवम् ।
विद्धि ब्रह्मन्न सन्देहः कर्तव्यः सर्वदानघ ॥ २८ ॥
श्लोकार्धेन तया प्रोक्तं तद्वै भागवतं किल ।
विस्तरो भविता तस्य द्वापरादौ युगे तथा ॥ २९ ॥

विष्णु बोले — हे महाभाग ! विचार कीजिये कि आपमें और मुझमें जो कार्यकारणस्वरूपा शक्ति विद्यमान है, वे ही भगवती शिवा हैं। जिनके आधार पर एकार्णव महासागर में यह समस्त जगत् ठहरा हुआ है। जो महाशक्ति साकार, असीम तथा सनातनी भगवती हैं और यह समस्त जड – चेतन संसार जिनके द्वारा रचा गया है, वे ही जब प्रसन्न होती हैं तब मनुष्यों के उद्धार के लिये वरदायिनी होती हैं ॥ २४- २६ ॥ वे ही सनातनी परमा विद्या हैं, संसारके बन्धन एवं मुक्ति की कारणस्वरूपा हैं और वे ही सभी ईश्वरों की भी स्वामिनी हैं ॥ २७ ॥ मैं, आप तथा समस्त संसार उन्हीं की चैतन्य शक्ति से उत्पन्न हुए हैं । हे ब्रह्मन् ! हे निष्पाप ! ऐसा आप सत्य जानिये, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २८ ॥ उन भगवती ने आधे श्लोक में ही जो कहा है, वही वास्तविक श्रीमद्देवीभागवत है। द्वापरयुग के आदि में पुनः उसका विस्तार होगा ॥ २९ ॥

॥ व्यास उवाच ॥
ब्रह्मणा संगृहीतं च विष्णोस्तु नाभिपङ्कजे ।
नारदाय च तेनोक्तं पुत्रायामितबुद्धये ॥ ३० ॥
नारदेन तथा मह्यं दत्तं हि मुनिना पुरा ।
मया कृतमिदं पूर्णं द्वादशस्कन्धविस्तरम् ॥ ३१ ॥
तत्पठस्व महाभाग पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
पञ्चलक्षणयुक्तं च देव्याश्चरितमुत्तमम् ॥ ३२ ॥
तत्त्वज्ञानरसोपेतं सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ।
धर्मशास्त्रसमं पुण्यं वेदार्थेनोपबृंहितम् ॥ ३३ ॥
वृत्रासुरवधोपेतं नानाख्यानकथायुतम् ।
ब्रह्मविद्यानिधानं तु संसारार्णवतारकम् ॥ ३४ ॥
गृहाण त्वं महाभाग योग्योऽसि मतिमत्तरः ।
पुण्यं भागवतं नाम पुराणं पुरुषर्षभ ॥ ३५ ॥
अष्टादशसहस्राणां श्लोकानां कुरु संग्रहम् ।
अज्ञाननाशनं दिव्यं ज्ञानभास्करबोधकम् ॥ ३६ ॥
सुखदं शान्तिदं धन्यं दीर्घायुष्यकरं शिवम् ।
शृण्वतां पठतां चेदं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ॥ ३७ ॥
शिष्योऽयं मम धर्मात्मा लोमहर्षणसम्भवः ।
पठिष्यति त्वया सार्धं पुराणीं संहितां शुभाम् ॥ ३८ ॥

व्यासजी बोले — इस प्रकार भगवान् विष्णु के नाभिकमल पर विराजमान ब्रह्माजी ने उस भागवत का संग्रह किया। तत्पश्चात् उन्होंने अपने परम बुद्धिमान् पुत्र नारदजी से इसे कहा । पूर्वकाल में वही भागवत देवर्षि नारदजी ने मुझे दिया और फिर मैंने उसे बारह स्कन्धों में विस्तृत करके पूर्ण किया ॥ ३०-३१ ॥ हे महाभाग ! वेदतुल्य, पाँच लक्षणों से युक्त तथा भगवती के उत्तम चरितों से ओत-प्रोत इस श्रीमद्देवीभागवत’ पुराण को पढ़ो ॥ ३२ ॥ तत्त्वज्ञान के रस से परिपूर्ण, वेदार्थ के द्वारा उपबृंहित और धर्मशास्त्र के समान पुण्यप्रद यह भागवत सभी पुराणों में श्रेष्ठतम है । यह वृत्रासुर वध के कथानक से युक्त, विविध आख्यानोपाख्यानों से समन्वित, ब्रह्मविद्या का निधान एवं भवसागर से पार करने वाला है ॥ ३३-३४ ॥ अतः हे महाभाग ! तुम उस भागवत को अवश्य पढ़ो; तुम अत्यन्त बुद्धिमान् और योग्य हो । हे नरश्रेष्ठ! यह श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराण पुण्यप्रद है ॥ ३५ ॥ तुम इसके अठारह हजार श्लोकों को हृदयंगम कर लो; यह पुराण पाठ तथा श्रवण करने वाले के लिये अज्ञान का नाश करने वाला, दिव्य ज्ञानरूपी सूर्य का बोध कराने वाला, सुखप्रद, शान्तिदायक, धन्य, दीर्घ आयु प्रदान करने वाला, कल्याणकारी तथा पुत्र- पौत्र की वृद्धि करने वाला है ॥ ३६-३७ ॥ लोमहर्षण से उत्पन्न मेरे शिष्य ये धर्मात्मा सूतजी भी तुम्हारे साथ इस शुभ पुराण – संहिता का अध्ययन करेंगे ॥ ३८ ॥

॥ सूत उवाच ॥
इत्युक्तं तेन पुत्राय मह्यं च कथितं किल ।
मया गृहीतं तत्सर्वं पुराणं चातिविस्तरम् ॥ ३९ ॥
शुकोऽधीत्य पुराणं तु स्थितो व्यासाश्रमे शुभे ।
न लेभे शर्म धर्मात्मा ब्रह्मात्मज इवापरः ॥ ४० ॥
एकान्तसेवी विकलः स शून्य इव लक्ष्यते ।
नात्यन्तभोजनासक्तो नोपवासरतस्तथा ॥ ४१ ॥
चिन्ताविष्टं शुकं दृष्ट्वा व्यासः प्राह सुतं प्रति ।
किं पुत्र चिन्त्यते नित्यं कस्माद्व्यग्रोऽसि मानद ॥ ४२ ॥
आस्से ध्यानपरो नित्यमृणग्रस्त इवाधनः ।
का चिन्ता वर्तते पुत्र मयि ताते तु तिष्ठति ॥ ४३ ॥
सुखं भुंक्ष्व यथाकामं मुञ्च शोकं मनोगतम् ।
ज्ञानं चिन्तय शास्त्रोक्तं विज्ञाने च मतिं कुरु ॥ ४४ ॥
न चेन्मनसि ते शान्तिर्वचसा मम सुव्रत ।
गच्छ त्वं मिथिलां पुत्र पालितां जनकेन ह ॥ ४५ ॥
स ते मोहं महाभाग नाशयिष्यति भूपतिः ।
जनको नाम धर्मात्मा विदेहः सत्यसागरः ॥ ४६ ॥
तं गत्वा नृपतिं पुत्र सन्देहं स्वं निवर्तय ।
वर्णाश्रमाणां धर्मांस्त्वं पृच्छ पुत्र यथातथम् ॥ ४७ ॥
जीवन्मुक्तः स राजर्षिर्बह्मज्ञानमतिः शुचिः ।
तथ्यवक्तातिशान्तश्च योगी योगप्रियः सदा ॥ ४८ ॥

सूतजी बोले — हे मुनियो ! व्यासजी ने मुझसे और अपने पुत्र से इस प्रकार कहा था, तब मैंने उस सम्पूर्ण विस्तृत पुराण – संहिता को विधिवत् पढ़ा था ॥ ३९ ॥ उस समय भागवतपुराण का अध्ययन करके शुकदेवजी व्यासजी के पवित्र आश्रम में ही रहने लगे, परंतु दूसरे ब्रह्मापुत्र नारद की भाँति उन धर्मात्मा को वहाँ शान्ति न मिल सकी ॥ ४० ॥ एकान्त में रहने वाले तथा व्याकुलचित्त वे उदासीन की भाँति दिखायी पड़ते थे । न वे अधिक भोजन करते थे और न उपवासपूर्वक ही रहते थे ॥ ४१ ॥ इस प्रकार अपने पुत्र शुकदेव को चिन्तित देखकर व्यासजी बोले हे पुत्र ! तुम क्या चिन्ता करते रहते हो ? हे मानद ! तुम किसलिये व्याकुल रहते हो ? ऋणग्रस्त निर्धन व्यक्तिकी भाँति तुम सदा चिन्ता करते रहते हो । हे पुत्र ! मुझ पिताके रहते तुम्हें किस बातकी चिन्ता हो रही है ? ॥ ४२-४३ ॥ तुम मनकी ग्लानि छोड़ो; यथेष्टरूपसे सुखोपभोग करो, शास्त्रोक्त ज्ञानका चिन्तन करो और आत्मचिन्तनमें मन लगाओ ॥ ४४ ॥ हे सुव्रत ! यदि मेरे उपदेश से तुम्हें शान्ति नहीं मिलती, तो राजा जनक के द्वारा पालित मिथिलापुरी चले जाओ । हे महाभाग ! वे विदेह राजा जनक तुम्हारे मोह का नाश कर देंगे; क्योंकि वे सत्यसिन्धु तथा धर्मात्मा हैं ॥ ४५-४६ ॥ हे पुत्र ! उन राजा के पास जाकर तुम अपना सन्देह दूर करो और वर्णाश्रम धर्म के रहस्य को उनसे यथार्थरूप में पूछो ॥ ४७ ॥ वे राजर्षि जीवन्मुक्त, ब्रह्मज्ञान का चिन्तन करने वाले, पवित्र, यथार्थ वक्ता, शान्तचित्त तथा सदा योगप्रिय भी हैं ॥ ४८ ॥

॥ सूत उवाच ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य व्यासस्यामिततेजसः ।
प्रत्युवाच महातेजाः शुकश्चारणिसम्भवः ॥ ४९ ॥
दम्भोऽयं किल धर्मात्मन्भाति चित्ते ममाधुना ।
जीवन्मुक्तो विदेहश्च राज्यं शास्ति मुदान्वितः ॥ ५० ॥
वन्ध्यापुत्र इवाभाति राजासौ जनकः पितः ।
कुर्वन् राज्यं विदेहः किं सन्देहोऽयं ममाद्‌भुतः ॥ ५१ ॥
द्रष्टुमिच्छाम्यहं भूपं विदेहं नृपसत्तमम् ।
कथं तिष्ठति संसारे पद्मपत्रमिवाम्भसि ॥ ५२ ॥
सन्देहोऽयं महांस्तात विदेहे परिवर्तते ।
मोक्षः किं वदतां श्रेष्ठ सौगतानामिवापरः ॥ ५३ ॥
कथं भुक्तमभुक्तं स्यादकृतं च कृतं कथम् ।
व्यवहारः कथं त्याज्य इन्द्रियाणां महामते ॥ ५४ ॥
माता पुत्रस्तथा भार्या भगिनी कुलटा तथा ।
भेदाभेदः कथं न स्याद्यद्येतन्मुक्तता कथम् ॥ ५५ ॥

सूतजी बोले — परम तेजस्वी उन व्यासजी का वचन सुनकर अरणि से उत्पन्न महातेजस्वी शुकदेवजी ने उत्तर दिया। हे धर्मात्मन्! आपके द्वारा यह जो कहा जा रहा है, उससे मेरे चित्त में शंका उठती है कि कहीं यह दम्भ तो नहीं। जीवन्मुक्त तथा विदेह होते हुए भी राजा जनक हर्ष के साथ कैसे राज्य करते हैं ? हे पिताजी! यह बात तो वैसे ही असम्भव है जैसे किसी वन्ध्या को पुत्र हो ! अतः वे राजा जनक राज्य करते हुए भी विदेह कैसे हैं ? यह मुझे अद्भुत सन्देह हो रहा है! ॥ ४९–५१ ॥ अब मैं नृपश्रेष्ठ विदेह जनक को देखना चाहता हूँ कि वे जल में कमलपत्र की भाँति संसार में कैसे रहते हैं ? हे तात! उनके विदेह होने के विषय में मुझे बड़ा सन्देह हो रहा है ! हे वक्ताओं में श्रेष्ठ ! सौगतों की भाँति वे भी मोक्ष की एक दूसरी परिभाषा तो नहीं हैं ! ॥ ५२-५३ ॥ हे महामते ! भला भोगा हुआ भोग अभोग और किया हुआ कर्म अकर्म कैसे हो सकता है ? इन्द्रियों का सहज व्यवहार कैसे छोड़ा जा सकता है? ॥ ५४ ॥ एक पुत्र का अपनी माता, पत्नी, बहन तथा किसी असती स्त्री के साथ भेद – अभेद का सम्बन्ध क्यों नहीं होगा? और ऐसा होने पर जीवन्मुक्तता कैसी ? ॥ ५५ ॥

कटु क्षारं तथा तीक्ष्णां कषायं मिष्टमेव च ।
रसना यदि जानाति भुंक्ते भोगाननुत्तमान् ॥ ५६ ॥
शीतोष्णुसुखदुःखादिपरिज्ञानं यदा भवेत् ।
मुक्तता कीदृशी तात सन्देहोऽयं ममाद्‌भुतः ॥ ५७ ॥
शत्रुमित्रपरिज्ञानं वैरं प्रीतिकरं सदा ।
व्यवहारे परे तिष्ठन्कथं न कुरुते नृपः ॥ ५८ ॥
चौरं वा तापसं वापि समानं मन्यते कथम् ।
असमा यदि बुद्धिः स्यान्मुक्तता तर्हि कीदृशी ॥ ५९ ॥
दृष्टपूर्वो न मे कश्चिज्जीवन्मुक्तश्च भूपतिः ।
शङ्केयं महती तात गृहे मुक्तः कथं नृपः ॥ ६० ॥
दिदृक्षा महती जाता श्रुत्वा तं भूपतिं तथा ।
सन्देहविनिवृत्त्यर्थं गच्छामि मिथिलां प्रति ॥ ६१ ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकं प्रति व्यासोपदेशवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

यदि जिह्वा कटु, क्षार, तीक्ष्ण, कषाय, मधुर आदि स्वादों को जानती है तो वे अच्छे-अच्छे पदार्थों का रसास्वादन करते ही होंगे। यदि शीत, उष्ण, सुख-दुःख का परिज्ञान उन्हें होता होगा तो भला यह मुक्तता कैसी ? हे तात! मुझे यह अद्भुत सन्देह हो रहा है ! ॥ ५६-५७ ॥ शत्रु और मित्र को पहचानकर उनके साथ वैर अथवा प्रीति का व्यवहार किया जाता है, तो राज्यसिंहासन पर बैठे हुए राजा जनक शत्रुता या मित्रता का व्यवहार क्या नहीं रखते होंगे ? उनके राज्य में साधु और चोर समान कैसे समझे जाते हैं ? यदि उनके प्रति समान बुद्धि नहीं है, तब भला वह जीवन्मुक्तता कैसी ? ॥ ५८-५९ ॥ ऐसा जीवन्मुक्त कोई राजा मेरे द्वारा पहले देखा नहीं गया। हे तात! यह बहुत बड़ी शंका है कि वे राजा जनक घर में रहकर भी मुक्त कैसे हैं ? उन राजा के विषय में सुनकर उन्हें देखने की बड़ी लालसा उत्पन्न हो गयी है । अतः सन्देह – निवृत्ति के लिये मैं मिथिलापुरी जा रहा हूँ ॥ ६०-६१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘व्यासोपदेशवर्णनं’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ  ॥ १६ ॥

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