May 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-11 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः ग्यारहवाँ अध्याय जम्बूद्वीप स्थित भारतवर्ष में श्रीनारदजी के द्वारा नारायणरूप की स्तुति-उपासना तथा भारतवर्ष की महिमा का कथन भुवनकोशवर्णने भारतवर्षवर्णनम् श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] भारत नामक इस वर्ष में आदिपुरुष मैं सदा विराजमान रहता हूँ और यहाँ आप निरन्तर मेरी स्तुति करते रहते हैं ॥ १ ॥ नारद बोले — शान्त स्वभाव वाले, अहंकार से रहित, निर्धनों के परम धन, ऋषियों में श्रेष्ठ, परमहंसों के परम गुरु, आत्मारामों के अधिपति तथा ओंकारस्वरूप भगवान् नरनारायण को बार- बार नमस्कार है । जो विश्व की उत्पत्ति आदि में उनके कर्ता होकर भी कर्तृत्व अभिमान से नहीं बँधते, जो देह में रहते भी भूख-प्यास आदि दैहिक गुण-धर्मों के वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होते हुए भी जिनकी दृष्टि दृश्य के गुण-दोषों से दूषित नहीं होती; उन असंग तथा विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नारायण को नमस्कार है ॥ २ ॥ हे योगेश्वर ! हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने योगसाधन की सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकाल में देहाभिमान को छोड़कर भक्तिपूर्वक आप गुणातीत में अपना मन लगाये ॥ ३ ॥ लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की लालसा रखने वाला मूढ मनुष्य जैसे पुत्र, स्त्री और धन की चिन्ता करता हुआ मृत्यु से डरता है, उसी प्रकार यदि विद्वान् भी इस कुत्सित शरीर के छूट जाने के भय से युक्त रहे तो ज्ञानप्राप्ति के लिये किया हुआ उसका सारा प्रयत्न केवल परिश्रममात्र है ॥ ४ ॥ अतः हे अधोक्षज ! हे प्रभो! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे इस निन्दनीय शरीर में आपकी माया के कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता तथा ममता को हम तुरंत काट डालें ॥ ५ ॥ इस प्रकार अखिल ज्ञातव्य रहस्यों को देखने वाले मुनिश्रेष्ठ नारद निर्विकार भगवान् नारायण की स्तुति करते रहते हैं ॥ ६ ॥ [ नारायण बोले — ] हे देवर्षे ! इस भारतवर्ष में अनेक नदियाँ तथा पर्वत हैं; अब मैं उनका वर्णन करूँगा; आप एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥ ७ ॥ मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कुटक, कोल्ल, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, व्यंकटाद्रि, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, मुक्तिमान्, ऋक्ष, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, ककुभ, नील, गौरमुख, इन्द्रकील तथा कामगिरि पर्वत हैं । इनके अतिरिक्त भी प्रचुर पुण्य प्रदान करने वाले अन्य असंख्य पर्वत हैं ॥ ८–११ ॥ इन पर्वतों से निकली हुई सैकड़ों-हजारों नदियाँ हैं; जिनका जल पीने, जिनमें डुबकी लगाकर स्नान करने, दर्शन करने तथा जिनके नाम का उच्चारण करने से मनुष्यों के तीनों प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। ताम्रपर्णी, चन्द्रवशा, कृतमाला, वटोदका, वैहायसी, कावेरी, वेणा, पयस्विनी, तुंगभद्रा, कृष्णवेणा, शर्करावर्तका, गोदावरी, भीमरथी, निर्विन्ध्या, पयोष्णिका, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, सरस्वती, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध तथा शोण नाम वाले दो महान् नद, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, वेदस्मृति, महानदी, कौशिकी, यमुना, मन्दाकिनी, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधवती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रु, चन्द्रभागा, मरुवृधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा — ये प्रसिद्ध नदियाँ हैं ॥ १२-१८ ॥ इस भारतवर्ष में जन्म लेने वाले पुरुष अपने- अपने शुक्ल (सात्त्विक), लोहित ( राजस) तथा कृष्ण (तामस) कर्मों के कारण क्रमशः देव, मनुष्य तथा नारकीय भोगों को प्राप्त करते हैं । भारतवर्ष में निवास करने वाले सभी लोगों को अनेक प्रकार के भोग सुलभ होते हैं। अपने वर्णधर्म के नियमों का पालन करने से मोक्ष तक निश्चितरूप से प्राप्त हो जाता है ॥ १९-२० ॥ इस मोक्षरूपी महान् कार्य की सिद्धि का साधन होने के कारण ही स्वर्ग के निवासी वेदज्ञ मुनिगण भारतवर्ष की महिमा का इस प्रकार वर्णन करते हैं — ॥ २१ ॥ अहो ! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान् की सेवा योग्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं । इस सौभाग्य के लिये तो हमलोग भी लालायित रहते हैं ॥ २२ ॥ हमने कठोर यज्ञ, तप, व्रत, दान आदिके द्वारा जो यह तुच्छ स्वर्ग प्राप्त किया है, इससे क्या लाभ ? यहाँ तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता के कारण स्मरणशक्ति क्षीण हो जाने से भगवान् के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं ॥ २३ ॥ इस स्वर्ग के निवासियों की आयु एक कल्प की होने पर भी उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है । उसकी अपेक्षा भारतभूमि में अल्प आयु वाला होकर जन्म लेना श्रेष्ठ है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्य शरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म भगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर लेते हैं ॥ २४ ॥ जहाँ भगवत्कथा की अमृतमयी सरिता प्रवाहित नहीं होती, जहाँ उसके उद्गमस्थानस्वरूप भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ समारोहपूर्वक भगवान् यज्ञेश्वर की पूजा-अर्चा नहीं होती, वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये ॥ २५ ॥ भारतवर्ष में उत्तम ज्ञान, कर्म तथा द्रव्य आदि से सम्पन्न मानवयोनि प्राप्त करके भी जो प्राणी पुनर्भव (आवागमन) – रूप बन्धन से छूटने का प्रयत्न नहीं करते, वे [ व्याध की फाँसी से मुक्त होकर फल आदि के लोभ से उसी वृक्ष पर विहार करने वाले] जंगली पक्षियों की भाँति पुनः बन्धन में पड़ते हैं ॥ २६ ॥ भारतवासियों का कैसा सौभाग्य है कि जब वे यज्ञ में भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्य आदि के योग से भक्तिपूर्वक हवि प्रदान करते हैं, तब भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले वे एक पूर्णब्रह्म श्रीहरि स्वयं ही प्रसन्न होकर उस हविभाग को ग्रहण करते हैं ॥ २७ ॥ यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषों के माँगने पर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किंतु यह भगवान् का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं को पा लेने पर भी मनुष्य के मन में पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्कामभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं — जो अन्य समस्त इच्छाओं को समाप्त कर देने वाले हैं ॥ २८ ॥ (अतः अबतक स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ और पूर्त कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य अवशिष्ट हो, तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष में भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्यजन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करने वाले प्राणियों का परम कल्याण करते हैं ।) श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] इस प्रकार स्वर्गको प्राप्त देवता, सिद्ध और महर्षिगण भारतवर्ष की उत्तम महिमा का गान करते हैं ॥ २९ ॥ जम्बूद्वीप में अन्य आठ उपद्वीप भी बताये गये हैं। खोये हुए घोड़े के मार्गों का अन्वेषण करने वाले सगर के पुत्रों ने इन उपद्वीपों की कल्पना की थी । स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्र, आवर्तन, रमाणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका — ये आठ उपद्वीप प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार मैंने विस्तार के साथ जम्बूद्वीप का परिमाण बता दिया। अब इसके बाद प्लक्ष आदि छः द्वीपों का वर्णन करूँगा ॥ ३०–३३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘भुवनकोशवर्णन में भारतवर्ष का वर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ Content is available only for registered users. 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