May 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-15 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः सोलहवाँ अध्याय सूर्य की गति का वर्णन भुवनकोशवर्णने सूर्यगतिवर्णनम् श्रीनारायण बोले — हे नारद! अब मैं सूर्य की उत्तम गति का वर्णन करूँगा । शीघ्र, मन्द गतियों के द्वारा सूर्य का गमन होता है ॥ १ ॥ हे सुरश्रेष्ठ! सभी ग्रहों के तीन ही स्थान हैं । वे स्थान हैं — जारद्गव, ऐरावत तथा वैश्वानर; जिनमें जारद्गव मध्य में, ऐरावत उत्तर में तथा वैश्वानर दक्षिण में यथार्थतः निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ २१/२ ॥ अश्विनी, भरणी और कृत्तिका को नागवीथी कहा जाता है। रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्रा को गजवीथी कहा जाता है। इसी प्रकार पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा को ऐरावती – २७९ वीथी कहा गया है। ये तीनों वीथियाँ उत्तरमार्ग कही गयी हैं ॥ ३-४१/२ ॥ मघा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी को आर्षभी- वीथी माना गया है । हस्त, चित्रा तथा स्वाती को गोवीथी कहा गया है और इसी प्रकार ज्येष्ठा, विशाखा तथा अनुराधा को जारद्गवीवीथी कहा गया है । इन तीनों वीथियों को मध्यममार्ग कहा जाता है ॥ ५-६१/२ ॥ मूल, पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ अजवीथी नाम से पुकारी जाती है । श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा को मार्गीवीथी कहा जाता है और इसी तरह पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती वैश्वानरीवीथी के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये तीनों वीथियाँ दक्षिणमार्ग कही जाती हैं ॥ ७-८१/२ ॥ जब सूर्य का रथ उत्तरायण मार्ग पर रहता है, उस समय उसके दोनों पहिये के अक्षों से आबद्ध पवनरूपी पाश से बँधकर ध्रुव द्वारा उसका कर्षण ‘आरोहण’ कहा गया है। उस समय मण्डल के भीतर रथ चलने से गति की मन्दता हो जाती है । हे सुरश्रेष्ठ! इस मन्द गति दिन की वृद्धि और रात का ह्रास होने लगता है । यही सौम्यायन का क्रम है। इसी प्रकार जब वह रथ दक्षिणायन मार्ग पर पाश द्वारा खींचा जाता है, तब वह अवरोहण गति होती है । उस समय मण्डल के बाहर से गति होने के कारण सूर्य की गति में तीव्रता हो जाती है । उस समय दिन का छोटा तथा रात का बड़ा होना बताया गया है ॥ ९–१२१/२ ॥ विषुव मार्ग पर सूर्य का रथ पाश द्वारा किसी ओर न खींचे जाने के कारण साम्य स्थिति बनी रहती है । इसमें मण्डल के मध्य से गति होने से दिन तथा रात के मान में समानता होती है ॥ १३१/२ ॥ जब ध्रुव की प्रेरणा से दोनों वायुपाश खींचे जाते हैं, उस समय भीतर के मण्डलों में ही सूर्य चक्कर लगाते हैं । पुनः ध्रुव के द्वारा दोनों पाशों के मुक्त किये जाते ही सूर्य बाहर के मण्डलों में चक्कर लगाने लगते हैं ॥ १४-१५१/२ ॥ उस मेरुपर्वत पर पूर्वभाग में इन्द्र की पुरी ‘देवधानिका’ और दक्षिणभाग में यमराज की ‘संयमनी’ नामक विशाल पुरी विद्यमान है। पश्चिम में वरुणदेव की ‘निम्लोचनी’ नामक महान् पुरी है और उस मेरु के उत्तर-भाग में चन्द्रमा की ‘विभावरी’ नामक पुरी बतायी गयी है ॥ १६-१७१/२ ॥ ब्रह्मवादियों के द्वारा कहा गया है कि सूर्य का उदय इन्द्र की पुरी में होता है और वे मध्याह्नकाल में संयमनीपुरी में पहुँचते हैं। सूर्य के निम्लोचनीपुरी में पहुँचने पर सायंकाल और विभावरीपुरी में पहुँचने पर आधी रात होती है । वे भगवान् सूर्य सभी देवताओं के पूज्य हैं ॥ १८-१९ ॥ हे मुने! सुमेरुपर्वत के चारों ओर सूर्य के जिस परिभ्रमण से जीवधारियों की सभी क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, उसका वर्णन मैंने कर दिया ॥ २० ॥ सुमेरु पर रहने वालों को सूर्य सदा मध्य में विराजमान प्रतीत होते हैं । सूर्य का रथ सुमेरु के बायें चलते हुए वायु की प्रेरणा से दायें हो जाता है । अतः उदय तथा अस्त-समयों में सर्वदा वह सामने ही पड़ता है । है देवर्षे! सभी दिशाओं तथा विदिशाओं में रहनेवाले जो लोग सूर्य को जहाँ देखते हैं, उनके लिये वह सूर्योदय तथा जहाँ सूर्य छिप जाते हैं, वहाँ के लोगों के लिये वह सूर्यास्त माना गया है । सर्वदा विद्यमान रहने वाले सूर्य का न तो उदय होता है और न अस्त ही होता है, उनका दर्शन तथा अदर्शन ही उदय और अस्त नाम से कहा गया है ॥ २१–२४ ॥ जिस समय सूर्य इन्द्र आदि की पुरी में पहुँचते हैं, उस समय उनके प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित होने लगते हैं। दो विकर्ण, उनके तीन कोण तथा दो पुरियाँ — सबमें सूर्य की किरण से प्रकाश फैल जाता है । सम्पूर्ण द्वीप और वर्ष सुमेरु के उत्तर में स्थित हैं । जो लोग सूर्य को जहाँ उदय होते देखते हैं, उनके लिये वही पूर्व दिशा कही जाती है ॥ २५-२६ ॥ उसके वाम भाग में मेरुपर्वत है — ऐसा सुनिश्चित है। काल तथा मार्ग के प्रदर्शक हजार किरणों वाले सूर्य जब इन्द्रपुरी से संयमनीपुरी को जाते हैं, तब वे पन्द्रह घड़ी में सवा दो करोड़ बारह लाख पचहत्तर हजार योजन की दूरी तय करते हैं ॥ २७-२८१/२ ॥ इसी प्रकार सहस्र नेत्रों वाले कालचक्रात्मा सूर्य कालज्ञान कराने के लिये वरुणलोक, चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोक का भ्रमण करते हैं ॥ २९१/२ ॥ चन्द्रमा आदि अन्य आकाशचारी जो भी ग्रह हैं, वे नक्षत्रों के साथ उदय तथा अस्त होते रहते हैं ॥ ३०१/२ ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्य का वेदमय रथ एक मुहूर्त में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है । प्रवह नामक वायु के प्रभाव से वह तेजस्वी कालचक्र चारों दिशाओं में स्थित चारों पुरियों पर से घूमता रहता है ॥ ३१-३२१/२ ॥ सूर्य के रथ के एक चक्के में बारह अरे, तीन धुरियाँ तथा छ: नेमियाँ हैं; विद्वान् लोग उस चक्के को एक संवत्सर की संज्ञा प्रदान करते हैं । इस रथ की धुरी का एक सिरा सुमेरुपर्वत के शिखर पर और दूसरा मानसोत्तर पर्वत के शिखर पर स्थित है। इस धुरी में लगा हुआ जो पहिया है, वह तेल निकालने वाले यन्त्र (कोल्हू)-के पहिये की भाँति घूमता रहता है और सूर्य भी उस मानसोत्तर पर्वत के ऊपर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ३३-३५१/२ ॥ उस धुरी में जिसका मूल भाग लगा हुआ है, ऐसी ही एक दूसरी धुरी है, जिसकी लम्बाई पहली धुरी की चौथाई है । ध्रुव से लगी हुई वह धुरी तैलयन्त्र की धुरी के सदृश कही गयी है ॥ ३६१/२ ॥ रथ के ऊपरी भाग में जगत् के स्वामी सूर्य के बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा तथा उसका चतुर्थांश अर्थात् नौ लाख योजन चौड़ा बताया गया है। उतना ही परिमाण वाला सूर्य के रथ का जूआ भी है। रथ के सारथि ( अरुण ) – के द्वारा उस जूए में जुते हुए गायत्री आदि छन्दों के नाम वाले सात घोड़े जगत् के प्राणियों के कल्याण के लिये भगवान् सूर्य का वहन करते रहते हैं ॥ ३७–३९१/२ ॥ सूर्य के आगे उन्हीं की ओर मुख करके उनके सारथि अरुण बैठते हैं । सारथि के काम पर नियुक्त ये अरुण गरुड के ज्येष्ठ भ्राता हैं ॥ ४० ॥ उसी प्रकार बालखिल्य आदि साठ हजार ऋषिगण जो परिमाण में अँगूठे के पोर के बराबर कहे गये हैं, सूर्य के सम्मुख स्थित होकर मनोहर वैदिक मन्त्रों द्वारा उनका स्तवन करते हैं। वैसे ही अन्य जो सभी ऋषि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता हैं – उनमें से एक-एक करके ये सातों दो-दो मिलकर प्रत्येक महीने परमेश्वर सूर्य की उपासना करते हैं ॥ ४१-४३ ॥ इस प्रकार वे विश्वव्यापी देवदेवेश्वर भगवान् सूर्य प्रतिक्षण दो हजार दो योजन की दूरी चलते हुए नौ करोड़ इक्यावन लाख योजन मार्ग वाले भूमण्डल की निरन्तर परिक्रमा करते रहते हैं ॥ ४४-४५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘भुवनकोशवर्णन में सूर्यगतिवर्णन’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe