श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-03
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-तृतीयोऽध्यायः
तीसरा अध्याय
परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधा से प्रकट विराट्रूप बालक का वर्णन
ब्रह्मविष्णुमहेश्वरादिदेवतोत्पत्तिवर्णनम्

श्रीनारायण बोले वह बालक जो पहले जल में छोड़ दिया गया था, ब्रह्माजी की आयुपर्यन्त जल में ही पड़ा रहा। उसके बाद वह समय आने पर अचानक ही दो रूपों में विभक्त हो गया ॥ १ ॥ उनमें से एक बालक शतकोटि सूर्यों की आभा से युक्त था; माता के स्तनपान से रहित वह भूख से व्याकुल होकर बार-बार रो रहा था ॥ २ ॥ माता-पिता से परित्यक्त होकर आश्रयहीन उस बालक ने जल में रहते हुए अनन्त ब्रह्माण्डनायक होते हुए भी अनाथ की भाँति ऊपर की ओर दृष्टि डाली ॥ ३ ॥ जैसे परमाणु सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म होता है, वैसे ही वह स्थूल से भी स्थूल था । स्थूल से भी स्थूलतम होने से वे देव महाविराट् नाम से प्रसिद्ध हुए। परमात्मा श्रीकृष्ण के तेज से सोलहवें अंश के रूप में तथा प्रकृतिस्वरूपा राधा से उत्पन्न होने के कारण यह सभी लोकों का आधार तथा महाविष्णु कहा गया ॥ ४-५ ॥

उसके प्रत्येक रोमकूप में अखिल ब्रह्माण्ड स्थित थे, उनकी संख्या श्रीकृष्ण भी बता पाने में समर्थ नहीं हैं। जैसे पृथिवी आदि लोकों में व्याप्त रजकणों की संख्या कोई निर्धारित नहीं कर सकता, उसी प्रकार उसके रोमकूपस्थित ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि की संख्या भी निश्चित नहीं है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विद्यमान हैं ॥ ६-७१/२

पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है। उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्ड से बाहर है। उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तारवाला गोलोक है । जैसे श्रीकृष्ण नित्य और सत्यस्वरूप हैं, वैसे ही यह गोलोक भी है ॥ ८-९१/२

यह पृथ्वी सात द्वीपोंवाली तथा सात महासागरों से समन्वित है। इसमें उनचास उपद्वीप हैं और असंख्य वन तथा पर्वत हैं। इसके ऊपर सात स्वर्गलोक हैं, जिनमें ब्रह्मलोक भी सम्मिलित है । इसके नीचे सात पाताल लोक भी हैं; यह सब मिलाकर ब्रह्माण्ड कहा जाता है ॥ १०-१११/२

पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। उसके भी ऊपर तप्त स्वर्ण की आभा वाला ब्रह्मलोक है । ब्रह्माण्ड के बाहर-भीतर स्थित रहने वाले ये सब कृत्रिम हैं । हे नारद! उस ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर उन सबका विनाश हो जाता है; क्योंकि जल के बुलबुले की तरह यह सब लोक-समूह अनित्य है ॥ १२–१५ ॥ गोलोक और वैकुण्ठ सनातन, अकृत्रिम और नित्य बताये गये हैं। महाविष्णु के प्रत्येक रोमकूप में ब्रह्माण्ड स्थित रहते हैं । इनकी संख्या श्रीकृष्ण भी नहीं जानते, फिर दूसरे की क्या बात ? प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि विराजमान रहते हैं । हे पुत्र ! देवताओं की संख्या वहाँ तीस करोड़ है । दिगीश्वर, दिक्पाल, ग्रह, नक्षत्र आदि भी ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहते हैं । पृथ्वी पर चार वर्ण के लोग और उसके नीचे पाताललोक में नाग रहते हैं; इस प्रकार ब्रह्माण्ड में चराचर प्राणी विद्यमान हैं ॥ १६–१८१/२

तदनन्तर उस विराट्स्वरूप बालक ने बार – बार ऊपर की ओर देखा; किंतु उस गोलाकार पिण्ड में शून्य के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं था । तब वह चिन्तित हो उठा और भूख से व्याकुल होकर बार-बार रोने लगा ॥ १९-२० ॥ चेतना में आकर जब उसने परमात्मा श्रीकृष्ण का ध्यान किया तब उसे सनातन ब्रह्मज्योति के दर्शन हुए। नवीन मेघ के समान श्याम वर्ण, दो भुजाओं वाले, पीताम्बर धारण किये, मुसकानयुक्त, हाथ में मुरली धारण किये, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक प्रसन्न होकर हँस पड़ा ॥ २१-२२१/२

तब वर के अधिदेव प्रभु ने उसे यह समयोचित वर प्रदान किया — हे वत्स ! तुम मेरे समान ही ज्ञानसम्पन्न, भूख-प्यास से रहित तथा प्रलयपर्यन्त असंख्य ब्रह्माण्ड के आश्रय रहो। तुम निष्काम, निर्भय तथा सभी को वर प्रदान करने वाले हो जाओ; जरा, मृत्यु, रोग, शोक, पीडा आदि से रहित हो जाओ ॥ २३-२५ ॥

ऐसा कहकर उसके कान में उन्होंने वेदों के प्रधान अंगस्वरूप श्रेष्ठ षडक्षर महामन्त्र का तीन बार उच्चारण किया । आदि में प्रणव तथा इसके बाद दो अक्षरों वाले कृष्ण शब्द में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्त में स्वाहा से संयुक्त यह परम अभीष्ट मन्त्र ( ॐ कृष्णाय स्वाहा ) सभी विघ्नों का नाश करने वाला है ॥ २६-२७ ॥ मन्त्र देकर प्रभु ने उसके आहार की भी व्यवस्था की । हे ब्रह्मपुत्र! उसे सुनिये, मैं आपको बताता हूँ । प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवाँ भाग तो भगवान् विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं ॥ २८-२९ ॥ उन परिपूर्णतम तथा निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है । भक्त उन प्रभु को जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे लक्ष्मीनाथ विराट् पुरुष ग्रहण करते हैं ॥ ३०-३१ ॥
उस बालक को श्रेष्ठ मन्त्र प्रदान करके प्रभु ने उससे पुनः पूछा कि तुम्हें दूसरा कौन-सा वर अभीष्ट है, उसे मुझे बताओ; मैं देता हूँ । श्रीकृष्ण की बात सुनकर बालकरूप उन विराट् प्रभु ने कृष्ण से समयोचित बात कही ॥ ३२-३३ ॥

बालक बोला — मेरा वर है आपके चरणकमल में मेरी अविचल भक्ति आयुपर्यन्त निरन्तर बनी रहे । मेरी आयु चाहे क्षणभर की ही हो या अत्यन्त दीर्घ । इस लोक में आपकी भक्ति से युक्त प्राणी जीवन्मुक्त ही है और जो आपकी भक्ति से रहित है, वह मूर्ख जीते हुए भी मरे के समान है ॥ ३४-३५ ॥ उस जप, तप, यज्ञ, पूजन, व्रत, उपवास, पुण्य तथा तीर्थसेवन से क्या लाभ है; जो आपकी भक्ति से रहित है। कृष्णभक्ति से रहित मूर्ख का जीवन ही व्यर्थ है जो कि वह उस परमात्मा को ही नहीं भजता, जिसके कारण वह जीवित है ॥ ३६-३७ ॥ जब तक आत्मा शरीर में है, तभी तक प्राणी शक्ति-सम्पन्न रहता है। उस आत्मा के निकल जाने के बाद वे सारी शक्तियाँ स्वतन्त्र होकर चली जाती हैं ॥ ३८ ॥ हे महाभाग ! वे आप सबकी आत्मारूप हैं तथा प्रकृति से परे हैं। आप स्वेच्छामय, सबके आदि, सनातन तथा ब्रह्मज्योतिस्वरूप हैं ॥ ३९ ॥

हे नारदजी ! यह कहकर वह बालक चुप हो गया। तब श्रीकृष्ण ने मधुर और कानों को प्रिय लगने वाली वाणी में उसे प्रत्युत्तर दिया ॥ ४० ॥

श्रीकृष्ण बोले — तुम बहुत काल तक स्थिर भाव से रहो, जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम भी हो जाओ । असंख्य ब्रह्मा के नष्ट होने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में तुम अपने अंश से क्षुद्रविराट्रूप में स्थित रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से उत्पन्न होकर ब्रह्मा विश्व का सृजन करने वाले होंगे। सृष्टि के संहारकार्य के लिये ब्रह्मा के ललाट में शिवांश से वे ग्यारह रुद्र प्रकट होंगे। उनमें से एक कालाग्नि नामक रुद्र विश्व का संहार करने वाले होंगे। तत्पश्चात् विश्व का पालन करने वाले भोक्ता विष्णु भी रुद्रांश से प्रकट होंगे। मेरे वर के प्रभाव से तुम सदा ही मेरी भक्ति से युक्त रहोगे । तुम मुझ परम सुन्दर [ जगत्पिता ] तथा मेरे वक्ष:स्थल में निवास करने वाली मनोहर जगन्माता को ध्यान के द्वारा निश्चितरूप से निरन्तर देख सकोगे । हे वत्स ! अब तुम यहाँ रहो, मैं अपने लोक को जा रहा हूँ- ऐसा कहकर वे प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। अपने लोक में जाकर उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को सृष्टि करने के लिये तथा [ संहारकर्ता] शंकरजी को संहार करने के लिये आदेश दिया ॥ ४१-४७ ॥

श्रीभगवान् बोले — हे वत्स ! सृष्टि की रचना करने के लिये जाओ । हे विधे ! सुनो, महाविराट् के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्रविरा ट्के नाभिकमल से प्रकट होओ। हे वत्स! (हे महादेव !) जाओ, अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट होओ। हे महाभाग ! स्वयं भी दीर्घ कालतक तपस्या करो ॥ ४८-४९ ॥

हे ब्रह्मपुत्र नारद! ऐसा कहकर जगत्पति श्रीकृष्ण चुप हो गये। तब उन्हें नमस्कार करके ब्रह्मा तथा कल्याणकारी शिवजी चल पड़े ॥ ५० ॥ महाविराट् के रोमकूप में स्थित ब्रह्माण्डगोलक के जल में वे विराट्पुरुष अपने अंश से ही अब क्षुद्रविराट् पुरुष के रूप में प्रकट हुए। श्याम वर्ण, युवा, पीताम्बर धारण किये वे विश्वव्यापी जनार्दन जल की शय्या पर शयन करते हुए मन्द मन्द मुसकरा रहे थे । उनका मुखमण्डल प्रसन्नता से युक्त था ॥ ५१-५२ ॥ उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्त तक नहीं जा सके, [ हे नारद! ] तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ॥ ५३-५४ ॥ तब अपने पूर्वस्थान पर आकर उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान किया। तत्पश्चात् ध्यान द्वारा दिव्य चक्षु से उन्होंने ब्रह्माण्डगोलक में आप्लुत जलशय्या पर शयन करते हुए उन क्षुद्रविराट् पुरुष को देखा, साथ ही जिनके रोमकूप में ब्रह्माण्ड था, उन महाविराट् पुरुष को तथा उनके भी परम प्रभु श्रीकृष्ण को और गोप-गोपियों से समन्वित गोलोक को भी देखा। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण की स्तुति करके उन्होंने उनसे वर प्राप्त किया और सृष्टि का कार्य प्रारम्भ कर दिया ॥ ५५-५७ ॥

सर्वप्रथम ब्रह्माजी के सनक आदि मानस पुत्र उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् शिव की सुप्रसिद्ध ग्यारह रुद्रकलाएँ प्रादुर्भूत हुईं। तदनन्तर क्षुद्रविराट् के वामभाग से लोकों की रक्षा करने वाले चतुर्भुज भगवान् विष्णु प्रकट हुए, वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे ॥ ५८-५९ ॥ क्षुद्रविराट् के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्माजी ने सारी सृष्टि रची। उन्होंने स्वर्ग, मृत्युलोक, पाताल, चराचरसहित तीनों लोकों की रचना की। इस प्रकार महाविराट् के सभी रोमकूपों में एक-एक ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्षुद्रविराट् ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं । हे ब्रह्मन् ! मैंने श्रीकृष्ण का शुभ चरित्र कह दिया, जो सुख और मोक्ष देने वाला है। हे ब्रह्मन् ! आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ६०-६२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘ब्रह्माविष्णुमहेश्वरादि देवताओं की उत्पत्ति का वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.