श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-06
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-षष्ठोऽध्यायः
छठा अध्याय
लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगा का परस्पर शापवश भारतवर्ष में पधारना
लक्ष्मीगङ्‌गासरस्वतीनां भूलोकेऽवतरणवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — हे मुने! साक्षात् भगवान् विष्णु के पास वैकुण्ठ में रहने वाली सरस्वती कलह के कारण गंगाजी के द्वारा दिये गये शाप से भारतवर्ष में अपनी एक कला से नदीरूप में प्रतिष्ठित हैं। ये सरस्वती पुण्यदायिनी, पुण्यरूपिणी, पुण्यतीर्थस्वरूपिणी तथा पुण्यवान् मनुष्यों की आश्रय हैं, अतः पुण्यात्मा लोगों को इनका सेवन करना चाहिये ॥ १-२ ॥ ये सरस्वती तपस्वियों के लिये तपरूपिणी हैं और उनकी तपस्या का फल भी वे ही हैं । ये मनुष्य के द्वारा किये गये पापरूप ईंधन को दग्ध करने के लिये प्रज्वलित अग्निस्वरूपा हैं ॥ ३ ॥ सरस्वती की महिमा को जानते हुए जो मनुष्य इनके जल में अपना प्राण त्याग करते हैं, वे वैकुण्ठ में वास करते हुए दीर्घकाल तक भगवान् श्रीहरि की सन्निधि प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥ भारत में रहने वाला कोई मनुष्य पाप कर लेने के बाद खेल-खेल में भी सरस्वती में स्नान कर लेने मात्र से सभी पापों से मुक्त हो जाता है और दीर्घकाल तक विष्णुलोक में निवास करता है ॥ ५ ॥ जो मनुष्य चातुर्मास्य में, पूर्णिमा तिथि पर, अक्षय नवमी के दिन, क्षयतिथि को तथा व्यतीपात या ग्रहण के अवसर अथवा अन्य किसी भी पुण्य दिन किसी हेतु से अथवा श्रद्धापूर्वक सरस्वती में स्नान करता है, वह निश्चय ही वैकुण्ठलोक में भगवान् विष्णु का सारूप्य प्राप्त कर लेता है ॥ ६-७ ॥

जो मनुष्य एक महीने तक प्रतिदिन सरस्वतीनदी के तट पर इनके मन्त्र का जप करता है, वह महान् मूर्ख होते हुए भी कवीश्वर हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ८ ॥ जो मनुष्य मुण्डन कराकर प्रतिदिन सरस्वती के जल में स्नान करता है, वह मनुष्य फिर से माता के गर्भ में वास नहीं करता है ॥ ९ ॥

[ हे नारद! इस प्रकार मैंने सुख देने वाले, मनोरथ पूर्ण करने वाले तथा सारस्वरूप भगवती के गुणकीर्तन का वर्णन आपसे कर दिया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १० ॥

सूतजी बोले — हे शौनक ! भगवान् नारायण की बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद अपनी इस शंका के विषय में पुनः शीघ्र उनसे पूछने लगे — ॥ ११ ॥

नारदजी बोले — ये भगवती सरस्वती कलह के कारण गंगाजी के शाप से भारतवर्ष में अपनी कला से पुण्यदायिनी नदी के रूप में कैसे प्रकट हो गयीं? ॥ १२ ॥ वेदों के सारस्वरूप कथानकों को सुनने हेतु मेरा कौतूहल बढ़ गया है, इस कथामृत को सुनकर ही मुझे तृप्ति होगी। अपने कल्याण के विषय में कौन सन्तुष्ट होता है ? ॥ १३ ॥ जो सर्वदा पुण्य तथा कल्याण प्रदान करने वाली हैं, उन सत्त्वस्वरूपा गंगा ने पूज्य सरस्वती को शाप क्यों दे दिया ? इन दोनों तेजस्विनी देवियों के विवाद का कारण निश्चय ही कानों के लिये सुखकर होगा । पुराणों में अत्यन्त दुर्लभ उस वृत्तान्त को आप मुझे बतलाइये ॥ १४-१५ ॥

श्रीनारायण बोले — हे नारद! मैं यह प्राचीन कथा कह रहा हूँ, जिसके सुनने मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है; आप इसे सुनिये ॥ १६ ॥ लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा – ये तीनों ही विष्णु की भार्याएँ हैं। ये बड़े प्रेम के साथ सर्वदा भगवान् विष्णु के समीप विराजमान रहती हैं ॥ १७ ॥ एक बार गंगा कामातुर होकर मुसकराती हुई कटाक्षपूर्वक भगवान् विष्णु का मुख निहार रही थीं ॥ १८ ॥ तब भगवान् विष्णु क्षणभर उनके मुख की ओर देखकर मुसकराने लगे। उसे देखकर लक्ष्मी ने तो सहन कर लिया, किंतु सरस्वती ने नहीं ॥ १९ ॥ उदारता की मूर्ति लक्ष्मी ने हँसकर उन सरस्वती को समझाया, किंतु अत्यन्त कोपाविष्ट वे सरस्वती शान्त नहीं हुईं ॥ २० ॥ उस समय लाल नेत्रों तथा मुखमण्डलवाली और कुपित तथा कामवेग के कारण निरन्तर काँपते हुए ओठों वाली सरस्वती अपने पति भगवान् विष्णु से कहने लगीं ॥ २१ ॥

सरस्वती बोलीं — एक धर्मनिष्ठ, श्रेष्ठ तथा उत्तम पति की बुद्धि अपनी सभी पत्नियों के प्रति समान हुआ करती है, किंतु दुष्ट पति की बुद्धि इसके विपरीत होती है ॥ २२ ॥ हे गदाधर ! मुझे ज्ञात हो गया कि गंगा पर आपका अधिक प्रेम रहता है और लक्ष्मी पर भी उसी के समान प्रेम रहता है। किंतु हे प्रभो ! मुझ पर आपका थोड़ा भी प्रेम नहीं है ॥ २३ ॥ गंगा और लक्ष्मी के साथ आपकी प्रीति समान है, इसीलिये [गंगा के] इस विपरीत व्यवहार को भी लक्ष्मी ने क्षमा कर दिया ॥ २४ ॥ अब यहाँ पर मुझ अभागिनी के जीवित रहने से क्या लाभ? क्योंकि जो स्त्री अपने पति के प्रेम से वंचित है, उसका जीवन व्यर्थ है ॥ २५ ॥ जो विद्वान् लोग आपको सात्त्विक स्वरूपवाला कहते हैं, वे सब वेदज्ञ नहीं हैं अपितु मूर्ख हैं; वे आपकी बुद्धि को नहीं जानते हैं ॥ २६ ॥

सरस्वती की यह बात सुनकर और उन्हें कोपाविष्ट देखकर भगवान् ने मन-ही-मन कुछ सोचा और इसके बाद वे वहाँ से बाहर निकलकर सभा में चले गये ॥ २७ ॥ भगवान् नारायण के चले जाने पर वाणी की अधिष्ठातृ-देवी उन सरस्वती ने कुपित होकर निर्भीकतापूर्वक गंगा से सुनने में अत्यन्त कटु वचन कहा ॥ २८ ॥

निर्लज्ज ! हे सकाम ! तुम अपने पति पर इतना गर्व क्यों कर रही हो ? ‘मेरे ऊपर पति का अधिक प्रेम रहता है’ — ऐसा तुम प्रदर्शित करना चाहती हो ॥ २९ ॥ हे कान्तवल्लभे! आज मैं भगवान् विष्णु के सामने ही तुम्हारा अभिमान चूर्ण कर दूँगी; तुम्हारा वह पति मेरा क्या कर लेगा ? ॥ ३० ॥

ऐसा कहकर वे गंगा के बाल खींचने के लिये उद्यत हुईं; तब लक्ष्मी ने दोनों के बीच में आकर उन सरस्वती को ऐसा करने से रोक दिया ॥ ३१ ॥ इससे महान् बलवती तथा सतीत्वमयी सरस्वती ने उन लक्ष्मी को शाप दे दिया कि तुम नदी और वृक्ष के रूपवाली हो जाओगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ३२ ॥ गंगा का विपरीत आचरण देखकर भी तुमने कुछ नहीं कहा और सभा बीच में वृक्ष तथा नदी की भाँति तुम जड़वत् बन गयी थी; इसलिये तुम वही हो जाओ ॥ ३३ ॥

यह शाप सुनकर भी लक्ष्मी ने न तो शाप दिया और न क्रोध ही किया । वे सरस्वती का हाथ पकड़कर दुःखित हो वहीं पर बैठी रह गयीं ॥ ३४ ॥ कोप के कारण काँपते हुए ओठों तथा लाल नेत्रोंवाली और अत्यन्त असन्तुष्ट उस सरस्वती को देखकर गंगा लक्ष्मी से कहने लगीं ॥ ३५ ॥

गंगा बोलीं — हे पद्मे ! तुम अत्यन्त उग्र स्वभाववाली इस सरस्वती को छोड़ दो। यह शीलरहित, मुखर, विनाशिनी तथा नित्य वाचाल रहने वाली सरस्वती मेरा क्या कर लेगी ॥ ३६ ॥ वाणी की अधिष्ठात्री देवी यह सरस्वती सर्वदा कलहप्रिय है । इसमें जितनी योग्यता तथा शक्ति हो, वह सब लगाकर यह आज मेरे साथ विवाद कर ले। यह दुर्मुखी अपने तथा मेरे बल का प्रदर्शन करना चाहती है तो सभी लोग आज दोनों के प्रभाव तथा पराक्रम को जान लें ॥ ३७-३८१/२

ऐसा कहकर गंगा ने सरस्वती को शाप दे दिया। [ और उन्होंने लक्ष्मी से कहा — ] जिस सरस्वती ने तुम्हें शाप दिया है, वह भी नदीरूप हो जाय । यह नीचे मृत्युलोक में चली जाय, जहाँ पापी लोग निवास करते हैं। [वहाँ ] यह कलियुग में उन पापियों के पाप ग्रहण करेगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३९-४०१/२

गंगा की यह बात सुनकर सरस्वती ने भी उसे शाप दे दिया कि तुम्हें भी धरातल पर जाना होगा और वहाँ पापियों के पाप को अंगीकार करना होगा ॥ ४११/२

इसी बीच चार भुजाओं वाले भगवान् विष्णु चार भुजाओं वाले अपने चारों पार्षदों के साथ वहाँ आ गये ॥ ४२१/२

सर्वज्ञ श्रीहरि ने सरस्वती का हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक उन्हें अपने वक्ष से लगा लिया और उन्हें शाश्वत तथा सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्रदान किया । उनके कलह तथा शाप की बात सुनकर प्रभु श्रीहरि उन दुःखित स्त्रियों से समयानुकूल बात कहने लगे ॥ ४३-४४१/२

श्रीभगवान् बोले — हे लक्ष्मि ! हे शुभे ! तुम अपने अंश से पृथ्वी पर राजा धर्मध्वज के घर जाओ । तुम अयोनिज के रूप में उनकी कन्या होकर प्रकट होओगी। वहीं पर तुम दुर्भाग्य से वृक्ष बन जाओगी। मेरे ही अंश से उत्पन्न शंखचूड नामक असुर की भार्या होने के बाद ही पुनः तुम मेरी पत्नी बनोगी; इसमें सन्देह नहीं है । उस समय तीनों लोकों को पवित्र करने वाली तुलसी के नाम से भारतवर्ष में तुम प्रसिद्ध होओगी। हे वरानने ! अब तुम सरस्वती के शाप से अपने अंश से नदीरूप में प्रकट होकर भारतवर्ष में शीघ्र जाओ और वहाँ ‘पद्मावती’ नाम से प्रतिष्ठित होओ ॥ ४५–४८१/२

[तत्पश्चात् उन्होंने गंगा से कहा — ] हे गंगे ! लक्ष्मी पश्चात् तुम भी सरस्वती के शापवश पापियों का पाप भस्म करने के लिये अपने ही अंश से विश्वपावनी नदी बनकर भारतवर्ष में जाओ । हे सुकल्पिते ! राजा भगीरथ की तपस्या से उनके द्वारा धरातल पर ले जायी गयी तुम पवित्र ‘ भागीरथी’ नाम से प्रसिद्ध होओगी। हे सुरेश्वरि ! मेरी आज्ञा के अनुसार तुम मेरे ही अंश से उत्पन्न समुद्र की पत्नी और मेरी कला के अंश से उत्पन्न राजा शन्तनु की भी पत्नी होना स्वीकार कर लेना ॥ ४९–५११/२

[तदनन्तर उन्होंने सरस्वती से कहा — ] हे भारति ! गंगा शाप को स्वीकार करके तुम अपनी कला से भारतवर्ष में जाओ और दोनों सपत्नियों (गंगा तथा लक्ष्मी) – के साथ कलह करने का फल भोगो । साथ ही हे अच्युते! अपने पूर्ण अंश से ब्रह्मसदन में ब्रह्मा की भार्या बन जाओ ॥ ५२-५३ ॥ गंगाजी शिव के स्थान पर चली जायँ । यहाँ पर केवल शान्त स्वभाव वाली, क्रोधरहित, मेरी भक्त, सत्त्वस्वरूपा, महान् साध्वी, अत्यन्त सौभाग्यवती, सुशील तथा धर्म का आचरण करने वाली लक्ष्मी ही विराजमान रहें । जिनके एक अंश की कला से समस्त लोकों में सभी स्त्रियाँ धर्मनिष्ठ, पतिव्रता, शान्तरूपा तथा सुशील बनकर पूजित होती हैं ॥ ५४-५५१/२

[ भगवान् बोले ] विभिन्न स्वभाव वाली तीन स्त्रियाँ, तीन नौकर तथा तीन बान्धवों का एकत्र रहना वेदविरुद्ध है। अतः ये मंगलदायक नहीं हो सकते ॥ ५६१/२

जिन गृहस्थों के घर में स्त्री पुरुष की भाँति व्यवहार करे और पुरुष स्त्री के अधीन रहे, उनका जन्म निष्फल हो जाता है और पग-पग पर उनका अमंगल होता है ॥ ५७१/२

जिसकी स्त्री मुखदुष्टा (कुवचन बोलने वाली), योनिदुष्टा (व्यभिचार में लिप्त रहने वाली) तथा कलहप्रिया है, उस व्यक्ति को जंगल में चले जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये बड़े-से-बड़ा जंगल भी घर से बढ़कर श्रेयस्कर होता है; क्योंकि वहाँ उसे जल, स्थल और फल आदि की निरन्तर प्राप्ति होती रहती है, किंतु घर पर ये सब नहीं मिल पाते ॥ ५८-५९१/२

अग्नि के पास रहना ठीक है अथवा हिंसक जन्तुओं के निकट रहने पर भी सुख मिल सकता है, किंतु दुष्ट स्त्री के सान्निध्य में रहने वाले पुरुषों को अवश्य ही उससे भी अधिक दुःख भोगना पड़ता है ॥ ६०१/२

हे वरानने! व्याधिज्वाला तथा विषज्वाला तो पुरुषों के लिये ठीक हैं, किंतु दुष्ट स्त्रियों के मुख की ज्वाला मृत्यु से भी बढ़कर कष्टकारक होती है ॥ ६११/२

स्त्री के वश में रहनेवाले पुरुषों की शुद्धि शरीर के भस्म हो जाने पर भी निश्चित ही नहीं होती। ऐसा व्यक्ति दिन में जो पुण्यकर्म करता है, उसके फल का भागी नहीं होता है । वह इस लोक तथा परलोक में सर्वत्र निन्दित होता है और नरक प्राप्त करता है । जो यश और कीर्ति से रहित है, वह जीते हुए भी मृतक के समान है॥ ६२-६३१/२

किसी पुरुष की बहुत-सी पत्नियों का एक साथ रहना कल्याणप्रद नहीं है। एक भार्यावाला तो सुखी है ही नहीं, फिर अनेक भार्याओं वाला कैसे सुखी रह सकता है? ॥ ६४१/२

हे गंगे! तुम शिव के स्थान पर जाओ और हे सरस्वति ! तुम ब्रह्मा के स्थान पर जाओ । यहाँ मेरे भवन में उत्तम स्वभाववाली लक्ष्मी ही रहें ॥ ६५ ॥ जिस पुरुष की पत्नी सहजरूप से अनुकूल हो जाने वाली, उत्तम स्वभाव वाली तथा पतिव्रता होती है, उसे इस लोक में तथा स्वर्ग में सुख तथा धर्म प्राप्त होते हैं और परलोक में मोक्ष-पद प्राप्त होता है। जिसकी पत्नी पतिव्रता होती है, वह मुक्त, पवित्र तथा सुखी है। इसके विपरीत दुराचारिणी स्त्री का पति जीते-जी मृतक के समान, अपवित्र तथा दुःखी है ॥ ६६-६७ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘लक्ष्मी, गंगा और सरस्वती का भूलोक-अवतरणवर्णन’ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

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