श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-07
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः
सातवाँ अध्याय
भगवान् नारायण का गंगा, लक्ष्मी और सरस्वती से उनके शाप की अवधि बताना तथा अपने भक्तों के महत्त्व का वर्णन करना
गङ्‌गादीनां शापोद्धारवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — हे नारद! ऐसा कहकर जगत् के स्वामी भगवान् विष्णु चुप हो गये। तब वे तीनों देवियाँ एक-दूसरे का आलिंगन करके बहुत रोने लगीं ॥ १ ॥ भगवान्‌ की ओर देखकर भय तथा शोक से काँपती हुई वे सभी देवियाँ अश्रुपूरित नेत्रों से उनसे बारी-बारी से कहने लगीं ॥ २ ॥

सरस्वती बोलीं — हे नाथ! मुझे जीवनभर सन्ताप देने वाला कोई भी कठोर शाप दे दें (किंतु मेरा त्याग न करें); क्योंकि श्रेष्ठ स्वामी के द्वारा परित्यक्त वे स्त्रियाँ कैसे जीवित रह सकती हैं । भारतवर्ष में जाकर मैं निश्चय ही योग के द्वारा देह त्याग कर दूँगी । जिसकी भी अत्यधिक उन्नति होती है, उसका अधोपतन भी अवश्यम्भावी है ॥ ३-४ ॥

गंगा बोली — हे जगत्पते ! आपने मेरे किस अपराध के कारण मेरा त्याग कर दिया । तो अपने देह को त्याग दूँगी और इस प्रकार आपको एक निरपराध स्त्री के वध का पाप लगेगा। जो मनुष्य इस पृथ्वी पर निर्दोष पत्नी का परित्याग कर देता है, वह घोर नरक की यात्रा करता है, चाहे वह सर्वेश्वर ही क्यों न हो ॥ ५-६ ॥

पद्मा बोलीं — हे नाथ! आप तो सत्त्वस्वरूप हैं । अहो, आपको ऐसा कोप कैसे हो गया! आप अपनी इन दोनों पत्नियों को प्रसन्न कीजिये, क्योंकि एक उत्तम पति के लिये क्षमा ही श्रेष्ठ है ॥ ७ ॥ मैं सरस्वती का शाप स्वीकार करके अपनी एक कला से भारतवर्ष में जाऊँगी, किंतु मैं वहाँ कितने समय तक रहूँगी और आपके चरणों का दर्शन कब कर पाऊँगी ? ॥ ८ ॥ पापीजन स्नान तथा अवगाहन करके शीघ्र ही अपना पाप मुझे दे देंगे। तब किस उपाय के द्वारा उस पाप से मुक्त होकर आपके चरणों में मैं पुनः स्थान पाऊँगी ? ॥ ९ ॥ हे अच्युत ! अपनी एक कला से धर्मध्वज की साध्वी पुत्री होकर तुलसीरूप प्राप्त करके मैं आपके चरणकमल पुनः कब प्राप्त कर सकूँगी ? ॥ १० ॥ आप जिसके अधिष्ठातृदेवता हैं, ऐसे वृक्षरूप तुलसी के रूप में मैं प्रकट होऊँगी। किंतु हे कृपानिधान ! आप मुझे यह बता दीजिये कि मेरा उद्धार कब करेंगे ? ॥ ११ ॥ यदि गंगा सरस्वती के शाप से भारत में जायँगी, तब पुनः कब शाप तथा पाप से मुक्त होकर ये आपको प्राप्त करेंगी ? ॥ १२ ॥ साथ ही, गंगा के शाप से ये सरस्वती भी यदि भारत में जायँगी, तब पुनः कब शाप से मुक्त होकर ये आपके चरणों का सांनिध्य प्राप्त कर सकेंगी ? ॥ १३ ॥ हे नाथ! आप जो उन सरस्वती को ब्रह्मा के तथा गंगा को शिव भवन जाने के लिये कह रहे हैं, तो मैं आपके इन वचनों के लिये आपसे क्षमा चाहती हूँ ॥ १४ ॥

[ हे नारद!] ऐसा कहकर लक्ष्मी ने अपने पति श्रीविष्णु के चरण पकड़कर उन्हें प्रणाम किया और अपने केशों से उनके चरणों को वेष्टित करके वे बार-बार रोने लगीं ॥ १५ ॥ (भक्तों पर कृपा करने के लिये सदा व्याकुल रहने वाले तथा मन्द मुसकान से युक्त प्रसन्न मुखमण्डल वाले भगवान् विष्णु लक्ष्मी को अपने वक्ष से लगाकर उनसे कहने लगे ।)

श्रीभगवान् बोले — हे सुरेश्वरि ! मैं तुम्हारे तथा अपने दोनों के वचन सत्य सिद्ध करूँगा । हे कमलेक्षणे! सुनो, मैं तुम तीनों में समता कर दूँगा ॥ १६ ॥ ये सरस्वती अपनी कला के एक अंश से नदीरूप होकर भारतवर्ष में जायँ, आधे अंश से ब्रह्मा के भवन जायँ और पूर्ण अंश से स्वयं मेरे पास रहें ॥ १७ ॥ इसी प्रकार भगीरथ के द्वारा ले जायी गयी ये गंगा तीनों लोकों को पवित्र करने के लिये अपने कलांश से भारतवर्ष में जायँगी और स्वयं पूर्ण अंश से मेरे भवन में रहें । वहाँ पर ये चन्द्रशेखर शिव के दुर्लभ मस्तक को प्राप्त करेंगी। वहाँ जाने पर स्वभावतः पवित्र ये गंगा और भी पवित्र हो जायँगी ॥ १८-१९ ॥ हे वामलोचने! तुम अपनी कला के अंशांश से पद्मावती नामक नदी के रूप में तथा तुलसी नामक वृक्ष के रूप में भारतवर्ष में जाओ ॥ २० ॥ कलि के पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर नदीरूपिणी तुम सब देवियों की मुक्ति हो जायगी और इसके बाद तुम लोग पुनः मेरे भवन आ जाओगी ॥ २१ ॥ हे पद्मभवे ! विपत्ति सभी प्राणियों की सम्पदाओं का हेतुस्वरूप है । विना विपत्ति के भला किन लोगों को गौरव प्राप्त हो सकता है ॥ २२ ॥ मेरे मन्त्रों की उपासना करने वाले सत्पुरुषों के द्वारा तुम्हारे जल में स्नान तथा अवगाहन से और उनके दर्शन तथा स्पर्श से तुम लोगों की पाप से मुक्ति हो जायगी ॥ २३ ॥

हे सुन्दरि ! जितने भी असंख्य तीर्थ पृथ्वी पर हैं, वे सब मेरे भक्तों के स्पर्श तथा दर्शनमात्र से पवित्र हो जायँगे ॥ २४ ॥ मेरे मन्त्रों की उपासना करने वाले भक्त पृथ्वी को अत्यन्त पवित्र करने तथा वहाँ रहने वाले प्राणियों को पावन करने तथा तारने के लिये ही भारतवर्ष में निवास करते हैं ॥ २५ ॥ मेरे भक्त जहाँ रहते तथा अपना पैर धोते हैं, वह स्थान निश्चितरूप से अत्यन्त पवित्र महातीर्थ के रूप में हो जाता है ॥ २६ ॥ स्त्रीवध करने वाला, गोहत्या करने वाला, कृतघ्न, ब्राह्मण का वध करने वाला तथा गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार करने वाला प्राणी भी मेरे भक्त के दर्शन तथा स्पर्श से पवित्र तथा जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ २७ ॥ एकादशीव्रत तथा सन्ध्या से विहीन, नास्तिक तथा मनुष्य का वध करने वाला भी मेरे भक्त के दर्शन तथा स्पर्श मात्र से पवित्र हो जाता है ॥ २८ ॥ शस्त्र से आजीविका चलाने वाला, लेखनवृत्ति से जीवनयापन करने वाला, धावक, भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाला तथा बैल हाँकने वाला भी मेरे भक्त के दर्शन और स्पर्श से पवित्र हो जाता है ॥ २९ ॥

विश्वासघात करने वाला, मित्र का वध करने वाला, झूठी गवाही देने वाला तथा धरोहर सम्पत्ति का हरण कर लेने वाला मनुष्य भी मेरे भक्त के दर्शन तथा स्पर्श से पवित्र हो जाता है ॥ ३० ॥ अत्यन्त उग्र, दूषित करने वाला, जार पुरुष, व्यभिचारिणी स्त्री का पति और शूद्रा स्त्री का पुत्र -ऐसा प्राणी भी मेरे भक्त के दर्शन तथा स्पर्श से पवित्र हो जाता है ॥ ३१ ॥ शूद्रों का रसोइया, देवधन का उपभोग करने वाला, सभी वर्णों का पौरोहित्य कर्म कराने वाला ब्राह्मण तथा दीक्षाविहीन मनुष्य भी मेरे भक्त के दर्शन तथा स्पर्श से पवित्र हो जाता है ॥ ३२ ॥ सुन्दरि ! जो पिता, माता, पत्नी, भाई, पुत्र, पुत्री, गुरुकुल, बहन, नेत्रहीन, बन्धु-बान्धव, सास तथा श्वसुर का भरण-पोषण नहीं करता, वह महापापी भी मेरे भक्त के दर्शन तथा स्पर्श से पवित्र हो जाता है ॥ ३३-३४ ॥ पीपल का वृक्ष काटने वाला, मेरे भक्तों की निन्दा करने वाला तथा शूद्रों का अन्न खाने वाला ब्राह्मण भी मेरे भक्त के दर्शन से पवित्र हो जाता है ॥ ३५ ॥ देवधन तथा विप्रधन का हरण करने वाला, लाह- लोहा-रस तथा कन्या का विक्रय करने वाला, महान् पातकी तथा शूद्रों का शव जलाने वाला – ये सभी मेरे भक्त के स्पर्श तथा दर्शन से पवित्र हो जाते हैं ॥ ३६-३७ ॥

महालक्ष्मी बोलीं — भक्तों पर कृपा करने हेतु आतुर रहने वाले हे प्रभो ! अब आप अपने भक्तों का लक्षण बतलाइये जिनके दर्शन तथा स्पर्श से हरिभक्ति से रहित, महान् अहंकारी, सदा अपनी प्रशंसा में लगे रहनेवाले, धूर्त, शठ, साधुनिन्दक तथा अत्यन्त अधम मनुष्य भी तत्काल पवित्र हो जाते हैं; जिनके स्नान तथा अवगाहन से सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं; जिनके चरणरज तथा चरणोदक से पृथ्वी पवित्र हो जाती है एवं जिनके दर्शन तथा स्पर्श की इच्छा भारतवर्ष में सभी लोग करते रहते हैं । विष्णुभक्तों का समागम सभी के लिये परम लाभकारी होता है । जलमय तीर्थ तीर्थ नहीं है और मृण्मय तथा प्रस्तरमय देवता भी देवता नहीं हैं; क्योंकि वे बहुत समय बाद पवित्र करते हैं, किंतु यह आश्चर्य है कि विष्णुभक्त क्षणभर में ही पवित्र कर देते हैं ॥ ३८–४२ ॥

सूतजी बोले — महालक्ष्मी की बात सुनकर कमलाकान्त श्रीहरि मुसकरा दिये और इसके बाद श्रेष्ठ तथा गूढ रहस्य कहने के लिये उद्यत हुए ॥ ४३ ॥

श्रीभगवान् बोले — हे लक्ष्मि ! भक्तों के लक्षण वेदों तथा पुराणों में रहस्यरूप में प्रतिपादित हैं। वे पुण्यस्वरूप, पापों का नाश करने वाले, सुखप्रद तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। ऐसे सारभूत तथा गोपनीय लक्षणों को दुष्टों के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिये। तुम शुद्धस्वरूपा एवं प्राणप्रिया से इसे कह रहा हूँ, सुनो ॥ ४४-४५ ॥

गुरु मुख से निकले विष्णुमन्त्र जिस मनुष्य के कान में पड़ते हैं, वेद उसी को पवित्र तथा नरों में श्रेष्ठ कहते हैं। उस मनुष्य जन्ममात्र से पूर्व के सौ पुरुष चाहे वे स्वर्ग में हों या नरक में हो, उसी क्षण मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, उनमें जो कोई भी जिन योनियों में जहाँ कहीं भी जन्म प्राप्त किये रहते हैं, वे वहीं पर पवित्र तथा जीवन्मुक्त हो जाते हैं और समयानुसार भगवान् विष्णु के परमधाम पहुँच जाते हैं ॥ ४६–४८ ॥ जो मेरे गुणों के अनुसार आचरण करता है तथा निरन्तर मेरी कथाओं में ही आसक्त रहता है, मेरी भक्ति से युक्त वह मनुष्य मेरे गुणों से युक्त होकर मुक्त हो जाता है। मेरे गुणों के श्रवणमात्र से वह आनन्दविभोर हो जाता है, उसका शरीर पुलकित हो उठता है, हर्षातिरेक के कारण उसका गला भर आता है, उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं और वह अपने को भूल जाता है। वह सुख, सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्ति, ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व आदि कुछ भी नहीं चाहता है । वह सदा मेरी ही सेवामें लगा रहना चाहता है । वह स्वप्न में भी इन्द्र, मनु, ब्रह्मा आदि के अत्यन्त दुर्लभ पदों तथा स्वर्ग के राज्य आदि के भोगों की कामना नहीं करता है ॥ ४९-५२ ॥ मेरे भक्त भारतवर्ष में भ्रमण करते रहते हैं, भक्तों का वैसा जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । वे सदा मेरे गुणों का श्रवण करते हुए तथा सुनाने योग्य गीतों को गाते हुए नित्य आनन्दित रहते हैं । अन्त में वे मनुष्यों, तीर्थों तथा पृथ्वी को पवित्र करके मेरे धाम चले जाते हैं। हे पद्मे ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह सब कह दिया । अब तुम्हें जो उचित प्रतीत हो, वह करो । तत्पश्चात् उन श्रीहरि की आज्ञा के अनुसार वे कार्य करने में संलग्न हो गयीं और स्वयं भगवान् अपने सुखदायक आसन पर विराजमान हो गये ॥ ५३-५४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘गंगा आदि का शापोद्धारवर्णन ‘ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

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