श्रीमद्‌देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-19
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः
उन्नीसवाँ अध्याय
शुकदेवजी का व्यासजी के आश्रम में वापस आना, विवाह करके सन्तानोत्पत्ति करना तथा परम सिद्धि की प्राप्ति करना
शुकस्य विवाहादिकार्यवर्णनम्

॥ शुक उवाच ॥
सन्देहोऽयं महाराज वर्तते हृदये मम ।
मायामध्ये वर्तमानः स कथं निःस्पृहो भवेत् ॥ १ ॥
शास्त्रज्ञानं च सम्प्राप्य नित्यानित्यविचारणम् ।
त्यजते न मनो मोहं स कथं मुच्यते नरः ॥ २ ॥
अन्तर्गतं तमश्छेत्तुं शास्त्राद्‌बोधो हि न क्षमः ।
यथा न नश्यति तमः कृतया दीपवार्तया ॥ ३ ॥
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्तव्यः सर्वदा बुधैः ।
स कथं राजशार्दूल गृहस्थस्य भवेत्तथा ॥ ४ ॥
वित्तैषणा न ते शान्ता तथा राज्यसुखैषणा ।
जयैषणा च सङ्ग्रामे जीवन्मुक्तः कथं भवेः ॥ ५ ॥
चौरेषु चौरबुद्धिस्तु साधुबुद्धिस्तु तापसे ।
स्वपरत्वं तवाप्यस्ति विदेहस्त्वं कथं नृप ॥ ६ ॥
कटुतीक्ष्णुकषायाम्लरसान्वेत्सि शुभाशुभान् ।
शुभेषु रमते चित्तं नाशुभेषु तथा नृप ॥ ७ ॥
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिश्च तव राजन् भवन्ति हि ।
अवस्थास्तु यथाकालं तुरीया तु कथं नृप ॥ ८ ॥

शुकदेवजी बोले   हे महाराज ! मेरे हृदय में यह शंका हो रही है कि माया में लिप्त रहते हुए कोई मनुष्य निःस्पृह कैसे हो सकता है ? शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके नित्यानित्य का विचार करने पर भी चित्त से मोह नहीं दूर होता । तब भला वह मनुष्य मुक्त कैसे हो सकेगा ? ॥ १-२ ॥ मनुष्य मन में स्थित मोह को दूर करने के लिये केवल शास्त्रबोध ही समर्थ नहीं हो सकता, जैसे केवल दीप जलाने की बात करने से अन्धकार दूर नहीं होता । अतः बुद्धिमान् मनुष्यों को चाहिये कि वे कभी किसी से द्वेष-भाव न रखें, परंतु हे नृपश्रेष्ठ ! गृहस्थ से वह कैसे सम्भव है ? ॥ ३-४ ॥ अभी भी आपकी धनप्राप्ति की कामना, राज्यसुख तथा युद्ध में विजय प्राप्त करने की अभिलाषा शान्त नहीं हुई है, तब आप जीवन्मुक्त कैसे हो सकते हैं ? ॥ ५ ॥ अभी भी चोरों के प्रति चौरबुद्धि तथा तपस्वी के प्रति साधुबुद्धि आपकी है ही । अपने-पराये का भेदभाव भी अभी आपमें है, तो फिर हे राजन् ! आप विदेह कैसे ? ॥ ६ ॥ अभी आप कटु, तिक्त, कसैले एवं खट्टे रसों का तथा भले-बुरे का ज्ञान रखते ही हैं । हे राजन् ! आपका चित्त शुभ कर्मों में रमता है, अशुभ कर्मों में नहीं । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति – ये अवस्थाएँ अभी आपको समयानुसार होती ही हैं; तब भला आपको तुरीयावस्था कैसे प्राप्त होती होगी ? ॥ ७-८ ॥

पदात्यश्वरथेभाश्च सर्वे वै वशगा मम ।
स्वाम्यहं चैव सर्वेषां मन्यसे त्वं न मन्यसे ॥ ९ ॥
मिष्टमत्सि सदा राजन्मुदितो विमनास्तथा ।
मालायां च तथा सर्पे समदृक् क्व नृपोत्तम ॥ १० ॥
विमुक्तस्तु भवेद्‌राजन् समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
एकात्मबुद्धिः सर्वत्र हितकृत्सर्वजन्तुषु ॥ ११ ॥
न मेऽद्य रमते चित्तं गृहदारादिषु क्वचित् ।
एकाकी निःस्पृहोऽत्यर्थं चरेयमिति मे मतिः ॥ १२ ॥
निःसङ्गो निर्ममः शान्तः पत्रमूलफलाशनः ।
मृगवद्विचरिष्यामि निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ॥ १३ ॥

हे राजन्! घोड़े, रथ, हाथी तथा पैदल सैनिक – ये सब मेरे अधीन हैं और मैं इन सबका स्वामी हूँ- ऐसा आप अपने को मानते हैं या नहीं ? आप मधुर भोजन को प्रसन्नतापूर्वक अथवा बेमन से खाते ही होंगे। हे नृपश्रेष्ठ! आप माला और सर्प में क्या समान दृष्टिवाले हैं ? ॥ ९-१० ॥ हे राजन् ! विमुक्त पुरुष तो वह कहलाता है, जो मिट्टी के ढेले और स्वर्ण को समान समझता हो, सब जीवों में एकात्मबुद्धि रखता हो तथा जीवमात्र का उपकार करता हो ॥ ११ ॥ मेरा मन घर – स्त्री आदि में कभी नहीं लगता । इसलिये अकेले ही निःस्पृह भाव से मैं सदा विचरण करता रहूँ – यही मेरा विचार है ॥ १२ ॥ निःसंग, ममतारहित और शान्त होकर केवल पत्र, मूल, फल इत्यादि ग्रहण करता हुआ मैं निर्द्वन्द्व एवं अपरिग्रही होकर मृग की भाँति स्वच्छन्द विचरण करूँगा ॥ १३ ॥

किं मे गृहेण वित्तेन भार्यया च सुरूपया ।
विरागमनसः कामं गुणातीतस्य पार्थिव ॥ १४ ॥
चिन्त्यसे विविधाकारं नानारागसमाकुलम् ।
दम्भोऽयं किल ते भाति विमुक्तोऽस्मीति भाषसे ॥ १५ ॥
कदाचिच्छत्रुजा चिन्ता धनजा च कदाचन ।
कदाचित्सैन्यजा चिन्ता निश्चिन्तोऽसि कदा नृप ॥ १६ ॥
वैखानसा ये मुनयो मिताहारा जितव्रताः ।
तेऽपि मुह्यन्ति संसारे जानन्तोऽपि ह्यसत्यताम् ॥ १७ ॥
तव वंशसमुत्थानां विदेहा इति भूपते ।
कुटिलं नाम जानीहि नान्यथेति कदाचन ॥ १८ ॥
विद्याधरो यथा मूर्खो जन्मान्धस्तु दिवाकरः ।
लक्ष्मीधरो दरिद्रश्च नाम तेषां निरर्थकम् ॥ १९ ॥
तव वंशोद्‌भवा ये ये श्रुताः पूर्वे मया नृपाः ।
विदेहा इति विख्याता नामतः कर्मतो न ते ॥ २० ॥

हे पार्थिव ! गृह, धन तथा रूपवती स्त्री से मुझ विरक्तचित्त और गुणातीत का क्या प्रयोजन है ? ॥ १४ ॥ आप अनेक प्रकार की राग-द्वेषयुक्त बातें सोचते हैं, फिर भी ‘ मैं विमुक्त हूँ’ – ऐसा आप कहते हैं यह सब मुझे तो केवल आपका दम्भ ही जान पड़ता है। आपको कभी शत्रु की, कभी धन की तथा कभी सेना की चिन्ता रहती ही है, तब हे राजन् ! आप निश्चिन्त कहाँ ? ॥ १५-१६ ॥ स्वल्पाहारी, अटल व्रत वाले जो वैखानस मुनि हैं, वे इस संसार की अनित्यता को जानते हुए भी इसमें आसक्त हो जाते हैं ॥ १७ ॥ हे राजन्! आपके वंश में उत्पन्न सभी राजाओं का नाम विदेह — यह हो जाता है, इसमें भी आप धोखा समझिये, दूसरा कुछ नहीं ॥ १८ ॥ जिस प्रकार किसी मूर्ख का नाम विद्याधर, जन्मान्ध का नाम दिवाकर तथा सतत दरिद्री मनुष्य का नाम लक्ष्मीधर रखना निरर्थक है, उसी प्रकार पूर्वकाल में आपके वंश में उत्पन्न जिन-जिन राजाओं को मैंने सुना है, वे नाम से ही विदेह प्रसिद्ध हुए हैं कर्म से नहीं ॥ १९-२० ॥

निमिनामाभवद्‌राजा पूर्वं तव कुले नृप ।
यज्ञार्थं स तु राजर्षिर्वसिष्ठं स्वगुरुं मुनिम् ॥ २१ ॥
निमन्त्रयामास तदा तमुवाच नृपं मुनिः ।
निमन्त्रितोऽस्मि यज्ञार्थं देवेन्द्रेणाधुना किल ॥ २२ ॥
कृत्वा तस्य मखं पूर्णं करिष्यामि तवापि वै ।
तावत्कुरुष्व राजेन्द्र सम्भारं तु शनैः शनैः ॥ २३ ॥
इत्युक्त्या निर्ययौ सोऽथ महेन्द्रयजने मुनिः ।
निमिरन्यं गुरुं कृत्वा चकार मखमुत्तमम् ॥ २४ ॥
तच्छ्रुत्वा कुपितोऽत्यर्थं वसिष्ठो नृपतिं पुनः ।
शशाप च पतत्वद्य देहस्ते गुरुलोपक ॥ २५ ॥
राजापि तं शशापाथ तवापि च पतत्वयम् ।
अन्योन्यशापात्पतितौ तावेव च मया श्रुतम् ॥ २६ ॥
विदेहेन च राजेन्द्र कथं शप्तो गुरुः स्वयम् ।
विनोद इव मे चित्ते विभाति नृपसत्तम ॥ २७ ॥

हे नृप ! आपके कुल में पहले निमि नाम के राजा हो चुके हैं। उन राजर्षि ने एक बार अपने गुरु वसिष्ठमुनि को यज्ञ के लिये निमन्त्रित किया। उस समय वसिष्ठजी ने उनसे कहा कि आपसे पहले इन्द्र ने मुझे यज्ञ के लिये आमन्त्रित कर रखा है । इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न कराकर मैं आपका भी यज्ञ पूर्ण करूँगा । अतः हे राजेन्द्र ! तब तक आप धीरे-धीरे यज्ञ – सामग्री एकत्र कराइये ॥ २१–२३ ॥ ऐसा कहकर वसिष्ठमुनि इन्द्र का यज्ञ कराने के लिये चले गये और महाराज निमि ने किसी दूसरे को आचार्य बनाकर अपना उत्तम यज्ञ सम्पन्न कर लिया ॥ २४ ॥ यह सुनकर वसिष्ठजी राजा पर अत्यन्त क्रोधित हुए और उन्हें शाप देते हुए बोले — ‘हे गुरु का परित्याग करने वाले ! तुम्हारा शरीर नष्ट हो जाय ‘ ॥ २५ ॥ यह सुनकर महाराज निमि ने भी शाप दिया कि आपका भी शरीर नष्ट हो जाय। इस प्रकार वे दोनों एक-दूसरे के शाप से नष्ट हो गये – ऐसा मैंने सुना है ॥ २६ ॥ हे राजेन्द्र ! विदेह होकर भी राजा ने अपने गुरु को स्वयं शाप क्यों दे डाला ! हे नृपश्रेष्ठ ! यह तो मेरे मन में परिहास- जैसा प्रतीत हो रहा है ॥ २७ ॥

॥ जनक उवाच ॥
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चिदिदं मतम् ।
तथापि शृणु विप्रेन्द्र गुरुर्मम सुपूजितः ॥ २८ ॥
पितुः सङ्गं परित्यज्य त्वं वनं गन्तुमिच्छसि ।
मृगैः सह सुसम्बन्धो भविता ते न संशयः ॥ २९ ॥
महाभूतानि सर्वत्र निःसङ्गः क्व भविष्यसि ।
आहारार्थं सदा चिन्ता निश्चिन्तः स्याः कथं मुने ॥ ३० ॥
दण्डाजिनकृता चिन्ता यथा तव वनेऽपि च ।
तथैव राज्यचिन्ता मे चिन्तयानस्य वा न वा ॥ ३१ ॥
विकल्पोपहतस्त्वं वै दूरदेशमुपागतः ।
न मे विकल्पसन्देहो निर्विकल्पोऽस्मि सर्वथा ॥ ३२ ॥

जनकजी बोले — हे विप्रवर! आपने ठीक ही कहा है; इसमें मिथ्या कुछ भी नहीं है — ऐसा मैं मानता हूँ। फिर भी आप मेरी बात सुनें । हे विप्रेन्द्र ! गुरु व्यासजी मेरे परम पूज्य हैं। उन अपने पिता का साथ त्याग करके आप वन में जाना चाहते हैं । वहाँ भी तो मृग आदि पशुओं के साथ आपका स्नेह- सम्बन्ध रहेगा ही; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २८-२९ ॥ पृथ्वी, जल आदि महाभूत तो सर्वत्र ही विद्यमान हैं । तब आप निःसंग कैसे हो पायेंगे? और फिर हे मुने ! भोजन आदि की भी चिन्ता रहेगी ही, तो आप निश्चिन्त कैसे रहेंगे ? ॥ ३० ॥ जिस प्रकार आपको वन में दण्ड और मृगचर्म की चिन्ता बनी रहेगी, उसी प्रकार मुझ विचारशील राजा को भी राज्य सम्बन्धी चिन्ता तो होगी ही ॥ ३१ ॥ आप ही भ्रम में पड़कर यहाँ तक दूर देश में आये हैं। मुझे किसी प्रकार का विकल्परूपी सन्देह नहीं है; क्योंकि मैं तो सर्वथा निर्विकल्प हूँ ॥ ३२ ॥

सुखं स्वपिमि विप्राहं सुखं भुञ्जामि सर्वथा ।
न बद्धोऽस्मीति बुद्ध्याहं सर्वदैव सुखी मुने ॥ ३३ ॥
त्वं तु दुःखी सदैवासि बद्धोऽहमिति शङ्कया ।
इति शङ्कां परित्यज्य सुखी भव समाहितः ॥ ३४ ॥
देहोऽयं मम बन्धोऽयं न ममेति च मुक्तता ।
तथा धनं गृहं राज्यं न ममेति च निश्चयः ॥ ३५ ॥

हे विप्र ! मैं सुख से भोजन करता हूँ और सुखपूर्वक शयन करता हूँ। हे मुने! ‘मैं बद्ध नहीं हूँ’ इस भावना से मैं सर्वदा सुखी रहता हूँ । [इसके विपरीत ] ‘मैं बद्ध हूँ’ – इस शंका से आप सर्वदा दुःखी ही रहते हैं, अतः आप इस शंका को छोड़कर सदा सुखी एवं स्वस्थ हो जाइये ॥ ३३-३४ ॥ यह शरीर मेरा है यही बन्धन का कारण है; यह मेरा नहीं है ऐसा निश्चय ही मुक्ति है। यह गृह, सम्पत्ति, राज्य मेरा नहीं है – ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ ३५ ॥

॥ सूत उवाच ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य शुकः प्रीतमनाभवत् ।
आपृच्छ्य तं जगामाशु व्यासस्याश्रममुत्तमम् ॥ ३६ ॥
आगच्छन्तं सुतं दृष्ट्वा व्यासोऽपि सुखमाप्तवान् ।
आलिङ्ग्याघ्राय मूर्धानं पप्रच्छ कुशलं पुनः ॥ ३७ ॥
स्थितस्तत्राश्रमे रम्ये पितुः पार्श्वे समाहितः ।
वेदाध्ययनसम्पन्नः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ ३८ ॥
जनकस्य दशां दृष्ट्वा राज्यस्थस्य महात्मनः ।
स निर्वृतिं परां प्राप्य पितुराश्रमसंस्थितः ॥ ३९ ॥
पितॄणां सुभगा कन्या पीवरी नाम सुन्दरी ।
शुकश्चकार पत्‍नीं तां योगमार्गस्थितोऽपि हि ॥ ४० ॥
स तस्यां जनयामास पुत्रांश्चतुर एव हि ।
कृष्णं गौरप्रभं चैव भूरिं देवश्रुतं तथा ॥ ४१ ॥
कन्यां कीर्तिं समुत्पाद्य व्यासपुत्रः प्रतापवान् ।
ददौ विभ्राजपुत्राय त्वणहाय महात्मने ॥ ४२ ॥

सूतजी बोले — महाराज जनक की बात सुनकर शुकदेवजी हर्षित हुए और उनसे आज्ञा लेकर व्यासजी के उत्तम आश्रम के लिये चल पड़े ॥ ३६ ॥ व्यासजी ने अपने ज्ञानी पुत्र को आते देखकर सुख प्राप्त किया। उन्होंने शुकदेवजी को हृदय से लगाकर तथा उनका सिर सूँघकर उनकी कुशलता पूछी ॥ ३७ ॥ सब शास्त्रों में कुशल एवं वेदाध्ययन में तत्पर श्रीशुकदेवजी अपने पिता के साथ उस रमणीय आश्रम में सावधान होकर रहने लगे। राज्य करते हुए महात्मा जनक की वह विदेहावस्था देखकर शुकदेवजी परम शान्ति को प्राप्तकर अपने पिता के आश्रम में ही स्थित हो गये ॥ ३८-३९ ॥ योगमार्ग में स्थित रहते हुए भी शुकदेवजी ने पितरों की पीवरी नाम की सौभाग्यवती सुन्दर कन्या को पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने उससे कृष्ण, गौरप्रभ, भूरि और देवश्रुत नामक चार पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही उन प्रतापी व्याससुत शुकदेवजी ने कीर्ति नाम की एक कन्या उत्पन्न करके उस कन्या का विवाह विभ्राज के पुत्र महात्मा अणुह के साथ कर दिया ॥ ४०-४२ ॥

अणुहस्य सुतः श्रीमान्ब्रह्मदत्तः प्रतापवान् ।
ब्रह्मज्ञः पृथिवीपालः शककन्यासमुद्‌भवः ॥ ४३ ॥
कालेन कियता तत्र नारदस्योपदेशतः ।
ज्ञानं परमकं प्राप्य योगमार्गमनुत्तमम् ॥ ४४ ॥
पुत्रे राज्यं निधायाथ गतो बदरिकाश्रमम् ।
मायाबीजोपदेशेन तस्य ज्ञानं निरर्गलम् ॥ ४५ ॥
नारदस्य प्रसादेन जातं सद्यो विमुक्तिदम् ।

शुकदेवजी की कन्या से उत्पन्न अणुह के पुत्र श्रीमान् ब्रह्मदत्त हुए जो बड़े प्रतापी, ब्रह्मज्ञानी एवं पृथ्वी के रक्षक थे । वे कुछ समय के बाद देवर्षि नारद के उपदेश से और परमश्रेष्ठ ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान पाकर योगमार्ग का आश्रय लेकर राज्य का भार अपने पुत्र को सौंपकर बदरिकाश्रम चले गये। वहाँ नारदजी के कृपाप्रसाद से प्राप्त मायाबीज के उपदेश से उन्हें निर्बाध तथा तत्क्षण मुक्तिदायक ज्ञान उत्पन्न हुआ ॥ ४३–४५१/२

कैलासशिखरे रम्ये त्यक्त्वा सङ्गं पितुः शुकः ॥ ४६ ॥
ध्यानमास्थाय विपुलं स्थितः सङ्गपराङ्मुखः ।
उत्पपात गिरेः शृङ्गात्सिद्धिं च परमां गतः ॥ ४७ ॥
आकाशगो महातेजा विरराज यथा रविः ।
गिरेः शृङ्गं द्विधा जातं शुकस्योत्पतने तदा ॥ ४८ ॥
उत्पाता बहवो जाताः शुकश्चाकाशगोऽभवत् ।
अन्तरिक्षे यथा वायुः स्तूयमानः सुरर्षिभिः ॥ ४९ ॥
तेजसातिविराजन्वै द्वितीय इव भास्करः ।
व्यासस्तु विरहाक्रान्तः क्रन्दन्पुत्रेति चासकृत् ॥ ५० ॥
गिरेः शृङ्गे गतस्तत्र शुको यत्र स्थितोऽभवत् ।
क्रन्दमानं तदा दीनं व्यासं मत्वा श्रमाकुलम् ॥ ५१ ॥
सर्वभूतगतः साक्षी प्रतिशब्दमदात्तदा ।
तत्राद्यापि गिरेः शृङ्गे प्रतिशब्दः स्फुटोऽभवत् ॥ ५२ ॥

उधर शुकदेवजी भी अपने पिता का साथ त्यागकर कैलास के सुरम्य शिखर पर चले गये और निःसंग भाव से अविचल ध्यान लगाकर स्थित हो गये । कुछ ही दिनों में उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो गयी और वे पर्वत के शिखर से उड़ गये तथा महातेजस्वी वे शुकदेवजी आकाश में जाकर सूर्य के समान सुशोभित होने लगे। तब शुकदेवजी के उड़ते ही पर्वत-शिखर दो भागों में विभाजित हो गया । शुकदेवजी के आकाश में जाते ही अनेक प्रकार के उत्पात होने लगे। ऋषियों के द्वारा स्तुति किये जाते हुए वे शुकदेवजी अन्तरिक्ष में वायु की भाँति स्थित हो गये। वे अपने तेज से दूसरे सूर्य की भाँति देदीप्यमान हो रहे थे ॥ ४६–४९ ॥ इसी बीच पुत्र के वियोग से व्यग्र होकर व्यासजी बार-बार ‘हा पुत्र ! हा पुत्र !’ कहते हुए उस पर्वत की चोटी पर पहुँचे, जहाँ शुकदेवजी रहते थे। थके हुए व्यासजी को दीन भाव से करुण क्रन्दन करते हुए देखकर सभी जीवों में साक्षीरूप से विद्यमान परमात्मा ने प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया । आज भी उस पर्वत शृंग पर वैसी ही प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनायी देती है ॥ ५०-५२ ॥

रुदन्तं तं समालक्ष्य व्यासं शोकसमन्वितम् ।
पुत्र पुत्रेति भाषन्तं विरहेण परिप्लुतम् ॥ ५३ ॥
शिवस्तत्र समागत्य पाराशर्यमबोधयत् ।
व्यास शोकं मा कुरु त्वं पुत्रस्ते योगवित्तमः ॥ ५४ ॥
परमां गतिमापन्नो दुर्लभां चाकृतात्मभिः ।
तस्य शोको न कर्तव्यस्त्वयाशोकं विजानता ॥ ५५ ॥
कीर्तिस्ते विपुला जाता तेन पुत्रेण चानघ ।

अपने प्रिय पुत्र शुकदेव के विरह में ‘ हा पुत्र ! हा पुत्र !’ कहकर विलाप करते हुए व्यासजी को शोक-सन्तप्त देखकर साक्षात् शंकरजी वहाँ आकर उन्हें सान्त्वना देने लगे — ‘ हे व्यासजी ! आप शोक
मत कीजिये, आपके पुत्र श्रेष्ठ योगवेत्ता हैं । उन्होंने अकृतात्माओं के लिये भी दुर्लभ परमगति प्राप्त कर ली है । अतः ब्रह्मज्ञान रखने वाले आपको उन [ब्रह्मज्ञानी] शुकदेव के लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये; हे पवित्रात्मन्! शुकदेव के समान पुत्र के द्वारा आपकी महान् कीर्ति हुई है ‘ ॥ ५३-५५ ॥ व्यासजी बोले — ‘हे देवेश ! हे जगत्पते ! मैं क्या करूँ, शोक दूर नहीं हो रहा है; पुत्र-दर्शन की लालसावाले मेरे नेत्र अतृप्त हैं ‘ ॥ ५६१/२

॥ व्यास उवाच ॥
न शोको याति देवेश किं करोमि जगत्पते ॥ ५६ ॥
अतृप्ते लोचने मेऽद्य पुत्रदर्शनलालसे ।
॥ महादेव उवाच ॥
छायां द्रक्ष्यसि पुत्रस्य पार्श्वस्थां सुमनोहराम् ॥ ५७ ॥
तां वीक्ष्य मुनिशार्दूल शोकं जहि परन्तप ।
॥ सूत उवाच ॥
तदा ददर्श व्यासस्तु छायां पुत्रस्य सुप्रभाम् ॥ ५८ ॥
दत्त्वा वरं हरस्तस्मै तत्रैवान्तरधीयत ।
अन्तर्हिते महादेवे व्यासः स्वाश्रममभ्यगात् ॥ ५९ ॥
शुकस्य विरहेणापि तप्तः परमदुःखितः ॥ ६० ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकस्य विवाहादिकार्यवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

महादेवजी बोले — ‘अब आप अपने पुत्र की रमणीय छाया अपने पास सर्वदा विद्यमान देखेंगे। हे मुनिवर ! हे परन्तप ! उस छाया को देखकर आप अपना शोक दूर कीजिये ‘ ॥ ५७३ ॥

सूतजी बोले — तदनन्तर व्यासजी ने अपने पुत्र शुकदेव की ओजस्विनी छाया देखी। उन्हें वरदान देकर शंकरजी वहीं अन्तर्धान हो गये । महादेवजी के अन्तर्हित हो जाने पर व्यासजी भी अपने आश्रम को लौट आये। शुकदेवजी के वियोग से सन्तप्त होकर वे अत्यन्त दुःखी रहने लगे ॥ ५८-६० ॥

इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत प्रथम स्कन्ध का ‘शुकस्य विवाहादिकार्यवर्णनं’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआः ॥ १९ ॥

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.