April 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीय: स्कन्ध:-अध्याय-01 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-द्वितीय: स्कन्ध:-प्रथमोऽध्यायः पहला अध्याय ब्राह्मण के शाप से अद्रिका अप्सरा का मछली होना और उससे राजा मत्स्य तथा मत्स्यगन्धा की उत्पत्ति मस्त्यगन्धोत्पत्तिवर्णनम् ऋषिगण बोले — [हे सूतजी!] आपकी यह बात आश्चर्यजनक एवं रहस्यपूर्ण है। इस सम्बन्ध में हम सब तपस्वियों को महान् सन्देह उत्पन्न हो गया है ॥ १ ॥ हे मेधाविन्! पूर्वकाल में सत्यवती नाम से विख्यात व्यासजी को माता का राजा शन्तनु के साथ जिस प्रकार विवाह हुआ, उन सती के अपने घर में रहते हुए भी उनसे पुत्ररूप में व्यास कैसे उत्पन्न हुए, ऐसी सत्यवती का शन्तनु ने पुनः वरण कैसे किया और उनसे दो पुत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई ? हे सुव्रत! हे महाभाग! आप इस परम पावन कथा को विस्तारपूर्वक कहिये। आप व्यासजी तथा सत्यवती की उत्पत्ति का वर्णन कीजिये; हम सभी व्रतधारी ऋषि इस विषय में सुनने के लिये उत्सुक हैं ॥ २-५ ॥ सूतजी बोले — में चतुर्वर्ग [ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] प्रदान करने वाली परमा आदिशक्ति को प्रणाम करके यह शुभ पौराणिक कथा कहूँगा ॥ ६ ॥ जिनके विशिष्ट वाग्भव बीजमन्त्र (एऐं)-का किसी भी बहाने से उच्चारण करते ही शाश्वती सिद्धि प्राप्त हो जाती है, उन इच्छित फल देने वाली भगवती का सभी लोगों को अपनी समस्त कामनाएँ पूर्ण करने के लिये समर्पण भाव से सम्यक् स्मरण करना चाहिये ॥ ७-८ ॥ उपरिचर नाम के एक सत्यवादी, धर्मात्मा, ब्राह्मणपूजक तथा श्रीमान् राजा हुए, जो चेदि देश के शासक थे। उनकी तपस्या से सन्तुष्ट होकर देवराज इन्द्र ने उन्हें प्रसन्न करने के लिये स्फटिक मणि का बना हुआ एक सुन्दर तथा दिव्य विमान दिया ॥ ९-१० ॥ उस दिव्य विमान पर चढ़कर चेदिराज सर्वत्र विचरण करते थे। वे कभी भूमि पर न उतरने तथा पृथ्वी से ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण सभी लोकों में “उपरिचर’ वसु के नाम से प्रसिद्ध हुए! वे राजा अत्यन्त धर्मपरायण थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम गिरिका था, जो रूपवती तथा सुन्दरी थी ॥ ११-१२ ॥ महाराज उपरिचर के पाँच पुत्र हुए जो बडे महान् वीर एवं परम प्रतापी थे। [यथासमय] उन्होंने अपने राजकुमारों को अलग-अलग देशों का राजा बना दिया ॥ १३ ॥ एक बार राजा वसु को पत्नी गिरिका ने ऋतुकाल के स्नान से पवित्र होकर राजा से पुत्रप्राप्ति की कामना की । जिस समय वह प्रार्थना करने लगी, उसी समय उनके पितरों ने उन राजा से कहा — हे राजन्! मृगों को मार लाओ — इस आदेश को सुनकर राजा को अपनी ऋतुमती पत्नी का भी स्मरण हो आया, किंतु पितरों की आज्ञा श्रेष्ठ मानकर तथा अपने कर्तव्य का निश्चयकर राजा मन-ही-मन गिरिका का स्मरण करते हुए आखेट के लिये चल पड़े ॥ १४-१६ ॥ बन में रहते हुए राजा वसु साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान रूपवती अपनी पत्नी का स्मरण करने लगे। इस प्रकार उस कामिनी के ध्यान से एकाएक उनका वीर्य स्खलित हो गया और राजा ने शीघ्र ही उस स्खलित वीर्य को बरगद के पत्ते पर रख लिया ॥ १७-१८ ॥ यह स्खलित तेज व्यर्थ न हो-[यह सोचकर] तथा स्त्री का ऋतुकाल जानकर उन्होंने ऐसा निश्चय कर लिया कि मेरा तेज सर्वथा अमोघ है, इसमें सन्देह नहीं है अतः अवश्य ही इसे मैं रानी के पास भेज दूँ ॥ १९-२० ॥ राजा जब उस वीर्य को बरगद के दोने में रखकर अपनी रानी के पास भेजने लगे तब उन्होंने रानी का ऋतुकाल जानकर उस वीर्य को अभिमन्त्रित किया। राजा ने पास ही बैठे हुए बाज पक्षी को बुलाकर उससे कहा — ‘हे महाभाग! तुम इसे ग्रहण करो और शीघ्र ही मेरे घर चले जाओ। हे सौम्य! मेरा हित करने के लिये इसे लेकर तुम मेरे घर जाओ और इसे शीघ्र ही गिरिका को दे देना; क्योंकि आज ही उसका ऋतुकाल है’ ॥ २१-२३ ॥ सूतजी बोले — ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठ ने बाज को वह दोना दे दिया और वह द्रुतगामी बाज भी उसे लेकर शीघ्र ही आकाश में उड़ने लगा ॥ २४ ॥ चोंच में पत्ते का दोना लेकर आकाश में उडते हुए उस बाज को एक दूसरे बाजपक्षी ने अपनी ओर आते हुए देखा ॥ २५ ॥ बाज को चोंच में मांस का टुकड़ा समझकर तत्काल उसने उस बाज पर आक्रमण कर दिया। दोनों बाजों के बीच आकाश में चोंचों से घोर युद्ध होने लगा। उन दोनों के युद्ध करते समय वीर्यवाला वह दोना यमुनाजी के जल में जा गिरा। दोने के गिर जानेपर दोनों पक्षी वहाँ से यथेच्छ दिशा में चले गये ॥ २६-२७ ॥ उसी समय अद्रिका नाम की एक अप्सरा जल में निमग्न होकर जलक्रीडा कर रही थी। उस सुन्दरी स्त्री ने वहाँ पर उपस्थित सन्ध्यावन्दन करने में तत्पर एक ब्राह्मण को देखा और उन ब्राह्मण का पैर पकड़ लिया ॥ २८-२९ ॥ प्राणायाम करते हुए ब्राह्मण ने उस स्वेच्छाचारिणी को देखकर उसे यह शाप दे दिया कि “तुमने मेरे ध्यान में विघ्न डाला है, अतएव तुम मछली हो जाओ।’ इस प्रकार ब्राह्मण श्रेष्ठ से शाप पाकर वह अद्रिका नाम की रूपवती श्रेष्ठ अप्सरा मछली बनकर यमुना के जल में विचरने लगी ॥ ३०-३१ ॥ बाज के पादाघात से गिरे हुए उस वीर्य के पास जाकर मत्स्यरूपधारिणी अद्रिका अप्सरा ने उसे शीघ्रतापूर्वक निगल लिया ॥ ३२ ॥ कुछ समय बाद दस महीने बीतने पर एक मछुआरे ने उस सुन्दर मछली को अपने जाल में फँसा लिया ॥ ३३ ॥ उस मछुआरे ने शीघ्र ही उस मछली का पेट चीर दिया। उसके उदर से मनुष्य के आकार वाली जुड़वाँ सन्तति निकली ॥ ३४ ॥ उन दोनों में एक रूपवान् बालक तथा एक सुन्दर मुखवाली बालिका थी। इस अद्भुत घटना को देखकर वह भी अत्यन्त विस्मित हुआ ॥ ३५ ॥ उसने मछली के पेट से निकले उन दोनों बच्चों को राजा उपरिचर को सौंप दिया । राजा भी आश्चर्यचकित हुआ और उसने उस सुन्दर पुत्र को ले लिया ॥ ३६ ॥ वह वसुपुत्र मत्स्य नामक राजा हुआ, जो अपने पिता के समान ही धर्मात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, महातेजस्वी तथा पराक्रमी था ॥ ३७ ॥ राजा उपरिचर वसु ने वह कन्या उस मछुआरे को ही दे दी, जो आगे चलकर काली तथा मत्स्योदरी नाम से प्रसिद्ध हुई। अपने गुणविशेष के कारण वह मत्स्यगन्धा नाम से कही जाने लगी। उस मछुआरे दाश के घर वह सुन्दरी वासवी धीरे-धीरे बढ्ने लगी ॥ ३८-३९ ॥ ऋषिगण बोले — हे सूतजी! मुनि के द्वारा शापित वह अद्रिका नाम की श्रेष्ठ अप्सरा जब मछली हो गयी और मछुआरे ने उसे चीर डाला, तब वह मर गयी अथवा उसने उसे खा लिया। उस अप्सरा का फिर क्या हुआ ? उसके शाप की समाप्ति कैसे हुई और उसे पुनः स्वर्ग कैसे मिला? यह बताइये ॥ ४०-४१ ॥ सूतजी बोले — जब मुनि ने उसे शाप दिया, तब वह विस्मित हो गयी और दीनतापूर्वक रोती हुई उस ब्राह्मण की स्तुति करने लगी ॥ ४२ ॥ दयालु ब्राह्मण ने उस रोती हुई स्त्री से कहा — हे कल्याणि! तुम शोक न करो, मैं तुम्हारे शाप के अन्त का उपाय बताता हूँ। हे शुभे! मैंने क्रुद्ध होकर जो शाप दिया है, उससे तुम मत्स्ययोनि को प्राप्त होओगी; किंतु तुम अपने उदर से एक युग्म मानव-सन्तान उत्पन्नकर इस शाप से मुक्त हो जाओगी ॥ ४३-४४ ॥ उनके ऐसा कहने पर वह यमुनाजल में मछली का शरीर पाकर तथा दो सन्तानों को उत्पन्न करके मर गयी और शाप से मुक्त हो गयी ॥ ४५ ॥ इस प्रकार शापोद्धार होने पर वह सुन्दरी मछली का शरीर त्यागकर दिव्य रूप धारण करके स्वर्ग को चली गयी ॥ ४६ ॥ इस प्रकार सुन्दर मुखवाली उस कन्या मत्स्यगन्धा का जन्म हुआ। दाश के घर में पुत्री की भाँति पालन- पोषण की जाती हुई वह कन्या बढ़ने लगी ॥ ४७ ॥ जब वह मत्स्यगन्धा किशोरावस्था को प्राप्त हुई, तब उसका सौन्दर्य और भी बढ़ गया। वह परम सुन्दरी वसुकन्या निषादराज के कार्यों को करती हुई रहने लगी ॥ ४८ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘मस्त्यगन्धोत्पत्ति वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥ श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण द्वितीय: स्कन्ध:-प्रथमोऽध्यायः मस्त्यगन्धोत्पत्तिवर्णनम् ॥ ऋषय ऊचुः ॥ आश्चर्यकरमेतत्ते वचनं गर्भहेतुकम् । सन्देहोऽत्र समुत्पन्नः सर्वेषां नस्तपस्विनाम् ॥ १ ॥ माता व्यासस्य मेधाविन्नाम्ना सत्यवतीति च । विवाहिता पुरा ज्ञाता राज्ञा शन्तनुना यथा ॥ २ ॥ तस्याः पुत्रः कथं व्यासः सती स्वभवने स्थिता । ईदृशी सा कथं राज्ञा पुनः शन्तनुना वृता ॥ ३ ॥ तस्यां पुत्रावुभौ जातौ तत्त्वं कथय सुव्रत । विस्तरेण महाभाग कथां परमपावनीम् ॥ ४ ॥ उत्पत्तिं वद व्यासस्य सत्यवत्यास्तथा पुनः । श्रोतुकामाः पुनः सर्वे ऋषयः संशितव्रताः ॥ ५ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ प्रणम्य परमां शक्तिं चतुर्वर्गप्रदायिनीम् । आदिशक्तिं वदिष्यामि कथां पौराणिकीं शुभाम् ॥ ६ ॥ यस्योच्चारणमात्रेण सिद्धिर्भवति शाश्वती । व्याजेनापि हि बीजस्य वाग्भवस्य विशेषतः ॥ ७ ॥ सम्यक् सर्वात्मना सर्वैः सर्वकामार्थसिद्धये । स्मर्तव्या सर्वथा देवी वाञ्छितार्थप्रदायिनी ॥ ८ ॥ राजोपरिचरो नाम धार्मिकः सत्यसङ्गरः । चेदिदेशपतिः श्रीमान् बभूव द्विजपूजकः ॥ ९ ॥ तपसा तस्य तुष्टेन विमानं स्फाटिकं शुभम् । दत्तमिन्द्रेण तत्तस्मै सुन्दरं प्रियकाम्यया ॥ १० ॥ तेनारूढस्तु सर्वत्र याति दिव्येन भूपतिः । न भूमावुपरिस्थोऽसौ तेनोपरिचरो वसुः ॥ ११ ॥ विख्यातः सर्वलोकेषु धर्मनित्यः स भूपतिः । तस्य भार्या वरारोहा गिरिका नाम सुन्दरी ॥ १२ ॥ पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः । पृथग्देशेषु राजानः स्थापितास्तेन भूभुजा ॥ १३ ॥ वसोस्तु पत्नी गिरिका कामान् काले न्यवेदयत् । ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः ॥ १४ ॥ तदहः पितरश्चैनमूचुर्जहि मृगानिति । तच्छ्रुत्वा चिन्तयामास भार्यामृतुमतीं तथा ॥ १५ ॥ पितृवाक्यं गुरुं मत्वा कर्तव्यमिति निश्चितम् । चचार मृगयां राजा गिरिकां मनसा स्मरन् ॥ १६ ॥ वने स्थितः स राजर्षिश्चित्ते सस्मार भामिनीम् । अतीव रूपसम्पन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम् ॥ १७ ॥ तस्य रेतः प्रचस्कन्द स्मरतस्तां च कामिनीम् । वटपत्रे तु तद्राजा स्कन्नमात्रं समाक्षिपत् ॥ १८ ॥ इदं वृथा परिस्कन्नं रेतो वै न भवेत्कथम् । ऋतुकालं च विज्ञाय मतिं चक्रे नृपस्तदा ॥ १९ ॥ अमोघं सर्वथा वीर्यं मम चैतन्न संशयः । प्रियायै प्रेषयाम्येतदिति बुद्धिमकल्पयत् ॥ २० ॥ शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्याः प्रसमीक्ष्य सः । अभिमन्त्र्याथ तद्वीर्यं वटपर्णपुटे कृतम् ॥ २१ ॥ पार्श्वस्थं श्येनमाभाष्य राजोवाच द्विजं प्रति । गृहाणेदं महाभाग गच्छ शीघ्रं गृहं मम ॥ २२ ॥ मत्प्रियार्थमिदं सौम्य गृहीत्वा त्वं गृहं नय । गिरिकायै प्रयच्छाशु तस्यास्त्वार्तवमद्य वै ॥ २३ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ इत्युक्त्वा प्रददौ पर्णं श्येनाय नृपसत्तमः । स गृहीत्वोत्पपाताशु गगनं गतिवित्तमः ॥ २४ ॥ गच्छन्तं गगनं श्येनं धृत्वा चञ्चुपुटे पुटम् । तमपश्यदथायान्तं खगं श्येनस्तथापरः ॥ २५ ॥ आमिषं स तु विज्ञाय शीघ्रमभ्यद्रवत्खगम् । तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ सम्प्रचक्रतुः ॥ २६ ॥ युद्ध्यतोरपतद्रेतस्तज्जापि यमुनाम्भसि । खगौ तौ निर्गतौ कामं पुटके पतिते तदा ॥ २७ ॥ एतस्मिन्समये काचिद्अद्रिका नाम चाप्सराः । ब्राह्मणं समनुप्राप्तं सन्ध्यावन्दनतत्परम् ॥ २८ ॥ कुर्वन्ती जलकेलिं सा जले मग्ना चचार सा । जग्राह चरणं नारी द्विजस्य वरवर्णिनी ॥ २९ ॥ प्राणायामपरः सोऽथ दृष्ट्वा तां कामचारिणीम् । शशाप भव मत्स्यी त्वं ध्यानविघ्नकरी यतः ॥ ३० ॥ सा शप्ता विप्रमुख्येन बभूव यमुनाचरी । शफरी रूपसम्पन्ना ह्यद्रिका च वराप्सराः ॥ ३१ ॥ श्येनपादपरिभ्रष्टं तच्छुक्रमथ वासवी । जग्राह तरसाभ्येत्य साद्रिका मत्स्यरूपिणी ॥ ३२ ॥ अथ कालेन कियता मत्स्यीं तां मत्स्यजीवनः । सम्प्राप्ते दशमे मासि बबन्ध तां मनोरमाम् ॥ ३३ ॥ उदरं विददाराशु स तस्या मत्स्यजीवनः । युग्मं विनिःसृतं तस्मादुदरान्मानुषाकृति ॥ ३४ ॥ बालः कुमारः सुभगस्तथा कन्या शुभानना । दृष्ट्वाश्चर्यमिदं सोऽथ विस्मयं परमं गतः ॥ ३५ ॥ राज्ञे निवेदयामास पुत्रौ द्वौ तु झषोद्भवौ । राजापि विस्मयाविष्टः सुतं जग्राह तं शुभम् ॥ ३६ ॥ स मत्स्यो नाम राजासौ धार्मिकः सत्यसङ्गरः । वसुपुत्रो महातेजाः पित्रा तुल्यपराक्रमः ॥ ३७ ॥ कालिका वसुना दत्ता तरसा जलजीविने । नाम्ना कालीति विख्याता तथा मत्स्योदरीति च ॥ ३८ ॥ मत्स्यगन्धेति नाम्ना वै गणेन समजायत । विवर्धमाना दाशस्य गृहे सा वासवी शुभा ॥ ३९ ॥ ॥ ऋषय ऊचुः ॥ अद्रिका मुनिना शप्ता मत्स्यी जाता वराप्सराः । विदारिता च दाशेन मृता च भक्षिता पुनः ॥ ४० ॥ किं बभूव पुनस्तस्या अप्सराया वदस्व तत् । शापस्यान्तं कथं सूत कथं स्वर्गमवाप सा ॥ ४१ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ शप्ता यदा सा मुनिना विस्मिता सम्बभूव ह । स्तुतिं चकार विप्रस्य दीनेव रुदती तदा ॥ ४२ ॥ दयावान्ब्राह्मणः प्राह तां तदा रुदतीं स्त्रियम् । मा शोकं कुरु कल्याणि शापान्तं ते वदाम्यहम् ॥ ४३ ॥ मत्क्रोधशापयोगेन मत्स्ययोनिं गता शुभे । मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि ॥ ४४ ॥ इत्युक्ता तेन सा प्राप मत्स्यदेहं नदीजले । बालकौ जनयित्वा सा मृता मुक्ता च शापतः ॥ ४५ ॥ सन्त्यज्य रूपं मत्स्यस्य दिव्यरूपमवाप्य च । जगामामरमार्गं च शापान्ते वरवर्णिनी ॥ ४६ ॥ एवं जाता वरा पुत्री मत्स्यगन्धा वरानना । पुत्रीव पाल्यमाना सा दाशगेहे व्यवर्धत ॥ ४७ ॥ मत्स्यगन्धा तदा जाता किशोरी चातिसुप्रभा । तस्य कार्याणि कुर्वाणा वासवी चातिसुप्रभा ॥ ४८ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे मस्त्यगन्धोत्पत्तिवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest 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