श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-22
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-द्वाविंशोऽध्यायः
बाईसवाँ अध्याय
कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकाली से शंखचूड़ का भयंकर युद्ध और आकाशवाणी का पाशुपतास्त्र से शंखचूड़ की अवध्यता का कारण बताना
कालीशङ्‌खचूडयुद्धवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] दानवराज प्रतापी शंखचूड़ सिर झुकाकर शिवजी को प्रणाम करके मन्त्रियों के साथ तत्काल यान पर सवार हुआ ॥ १ ॥ उसी समय महादेवजी ने अपनी सेना तथा देवताओं को तुरंत युद्ध के लिये आज्ञा दे दी और दानवेन्द्र शंखचूड़ भी अपनी सेना को साथ लेकर युद्ध के लिये तैयार हो गया ॥ २ ॥ स्वयं महेन्द्र वृषपर्वा के साथ और सूर्यदेव विप्रचित्ति के साथ वेगपूर्वक युद्ध करने लगे। इसी तरह दम्भ के साथ चन्द्रमा ने भीषण युद्ध किया । उस समय कालस्वर के साथ काल, गोकर्ण के साथ अग्निदेव, कालकेय के साथ कुबेर, मय के साथ विश्वकर्मा, भयंकर के साथ मृत्यु, संहार के साथ यम, विकंकण के साथ वरुण, चंचल के साथ पवनदेव, घृतपृष्ठ के साथ बुध, रक्ताक्ष के साथ शनैश्चर, रत्नसार के साथ जयन्त, वर्चसगणों के साथ सभी वसु, दीप्तिमान्‌ के साथ दोनों अश्विनीकुमार, धूम्र के साथ नलकूबर, धुरन्धर के साथ धर्म, उषाक्ष के साथ मंगल, शोभाकर के साथ भानु, पिठर के साथ मन्मथ; गोधामुख, चूर्ण, खड्ग, ध्वज, कांचीमुख, पिण्ड, धूम्र, नन्दी, विश्व और पलाश आदि दानवों के साथ आदित्यगण युद्ध करने लगे । इसी तरह ग्यारह भयंकर दानवों के साथ ग्यारहों रुद्र, उग्रचण्डा आदि के साथ महामारी और दानवगणों के साथ सभी नन्दीश्वर आदि गण प्रलय सदृश भयंकर महासंग्राम में युद्ध करने लगे ॥ ३–१११/२

हे मुने! जब दोनों ओर के सभी सैनिक निरन्तर युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान् शंकर भगवती काली तथा पुत्र कार्तिकेय के साथ वटवृक्ष के नीचे विराजमान थे। उधर रत्नमय आभूषणों से अलंकृत शंखचूड़ करोड़ों दानवों के साथ रत्ननिर्मित रम्य सिंहासन पर बैठा हुआ था ॥ १२-१३१/२

उस युद्ध में दानवों ने शंकरजी के अनेक योद्धाओं को परास्त कर दिया। सभी देवताओं के अंग क्षत-विक्षत हो गये और वे भयभीत होकर भाग चले । [यह देखकर ] कार्तिकेय कुपित हो उठे और उन्होंने देवताओं को अभय प्रदान किया। उन्होंने अपने तेज से अपने गणों के बल में वृद्धि की । तदनन्तर वे अकेले ही दानवगणों के साथ युद्ध करने लगे । उन्होंने संग्राम में एक सौ अक्षौहिणी सेना को मार डाला ॥ १४–१६१/२

उस युद्ध में कमल के समान नेत्रवाली काली ने बहुत से असुरों को धराशायी कर दिया और उसके बाद अत्यन्त क्रुद्ध होकर वे दानवों का रक्त पीने लगीं। वे दस लाख हाथियों तथा करोड़ों-करोड़ों सैनिकों को एक हाथ से पकड़-पकड़कर लीलापूर्वक अपने मुख में डालने लगीं । हे मुने! उस समय हजारों मुण्डविहीन धड़ रणभूमि में नाचने लगे ॥ १७–१९ ॥ रण में महान् पराक्रम प्रदर्शित करने वाले समस्त दानव कार्तिकेय की बाणवर्षा से क्षत-विक्षत शरीर वाले हो गये और भयभीत होकर भागने लगे । तत्पश्चात् वृषपर्वा, विप्रचित्ति, दम्भ और विकंकण — ये सभी दानव पराक्रमी कार्तिकेय के साथ युद्ध करने लगे । भगवती महामारी भी युद्ध करने लगीं, उन्होंने युद्ध से मुख नहीं मोड़ा। उधर स्वामी कार्तिकेय की शक्ति से पीड़ित होकर दानव क्षुब्ध हो उठे, किंतु वे भय के कारण रण से नहीं भागे। कार्तिकेय का वह महाभयंकर तथा भीषण युद्ध देखकर स्वर्ग से पुष्पवृष्टि होने लगी। दानवों का क्षय करने वाला वह युद्ध प्राकृतिक प्रलय के समान था ॥ २०-२३१/२

[ दानवों की यह स्थिति देखकर ] राजा शंखचूड़ विमान पर चढ़कर बाणों की वर्षा करने लगा। राजा की बाणवर्षा मेघों की वृष्टि के समान थी । इससे चारों ओर महाघोर अन्धकार छा गया और सर्वत्र अग्नि की लपटें निकलने लगीं। इससे सभी देवता तथा अन्य नन्दीश्वर आदि गण भी भाग खड़े हुए। उस समय एकमात्र स्वामी कार्तिकेय ही समरभूमि में डटे रहे ॥ २४–२६ ॥ राजा शंखचूड़ पर्वतों, सर्पों, पत्थरों तथा वृक्षों की दुर्निवार्य तथा भयंकर वर्षा करने लगा। राजा शंखचूड़ की बाणवर्षा से शिवपुत्र कार्तिकेय उसी प्रकार ढँक गये, जैसे घने कुहरे से सूर्य ढँक जाते हैं। उसने कार्तिकेय के दुर्वह तथा भयंकर धनुष को काट डाला, दिव्य रथ को खण्ड-खण्ड कर दिया और रथपीठों को छिन्न-भिन्न कर दिया। उसने कार्तिकेय के मयूर को अपने दिव्य अस्त्र से जर्जर कर दिया और सूर्य के समान चमकने वाली प्राण- घातिनी शक्ति उनके वक्ष पर चला दी ॥ २७–३० ॥ इससे वे क्षणभर के लिये मूर्च्छित हो गये, फिर थोड़ी ही देर में सचेत हो गये । तदनन्तर जिस दिव्य धनुष को पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने कार्तिकेय को दिया था, उसे हाथ में लेकर वे सर्वोत्तम रत्नों से निर्मित विमान पर आरूढ़ होकर और अनेक शस्त्रास्त्रों को लेकर भयंकर युद्ध करने लगे ॥ ३१-३२ ॥

वह दानव सर्पों, पर्वतों, वृक्षों और पत्थरों की वर्षा करने लगा, किंतु शिवपुत्र कार्तिकेय ने क्रोधित होकर अपने दिव्य अस्त्र से उन सबको काट डाला। प्रतापी कार्तिकेय ने शंखचूड़ द्वारा लगायी गयी आग को अपने पार्जन्य अस्त्र से बुझा दिया । तत्पश्चात् उन्होंने शंखचूड़ के रथ, धनुष, कवच, सारथी, किरीट तथा उज्ज्वल मुकुट को खेल-खेल में काट डाला और उस दानवेन्द्र के वक्ष पर शुक्ल आभावाली शक्ति चला दी ॥ ३३-३५ ॥ उसके आघात से राजा शंखचूड़ मूर्च्छित हो गया, किंतु थोड़ी ही देर में सचेत होने पर वह तत्काल दूसरे रथ पर सवार हो गया और उसने शीघ्र ही दूसरा धनुष उठा लिया । हे नारद! मायावियों में श्रेष्ठ उस शंखचूड़ ने अपनी माया से बाणों का जाल फैला दिया और उस बाणजाल से कार्तिकेय को आच्छादित कर दिया ॥ ३६-३७ ॥ उसने कभी भी व्यर्थ न होने वाली, सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभायुक्त, प्रलयकालीन अग्नि की शिखा के समान आकृतिवाली और सदा विष्णु के तेज से आवृत रहने वाली शक्ति उठा ली तथा क्रोध करके बड़े वेग से उसे कार्तिकेय पर चला दिया। अग्नि-राशि के समान उज्ज्वल वह शक्ति उनके शरीर पर गिरी और वे महाबली कार्तिकेय उस शक्ति के प्रभाव से मूर्च्छित हो गये ॥ ३८-३९१/२

तब भद्रकाली उन्हें अपनी गोद में लेकर शिव के पास ले गयीं। शिव ने अपने ज्ञान के द्वारा उन्हें लीलापूर्वक चेतनायुक्त कर दिया, साथ ही उन्हें असीम शक्ति भी प्रदान की । तब प्रतापी कार्तिकेय उठ खड़े हुए ॥ ४०-४१ ॥  कार्तिकेय की रक्षा में तत्पर जो भद्रकाली थीं, युद्धभूमि के लिये प्रस्थित हो गयीं और नन्दीश्वर आदि जो वीर थे, वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। सभी देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मृदंग आदि बाजे बजानेवाले तथा मधु ढोनेवाले कई सौ अन्य लोग भी उनके साथ चल दिये ॥ ४२-४३ ॥ रणभूमि में पहुँचते ही काली ने सिंह-गर्जन किया। भगवती के सिंहनाद से बहुत से दानव मूर्च्छित हो गये । दानवों को देखकर देवी ने बार-बार भीषण अट्टहास किया और मधुपान किया तथा वे रणभूमि में नाचने लगीं। उग्रदंष्ट्रा, उग्रदण्डा, कोटवी, योगिनियों तथा डाकिनियों के गण और देवतालोग भी मधुपान करने लगे ॥ ४४–४६ ॥

भद्रकाली को देखकर शंखचूड़ भी शीघ्र युद्धभूमि में आ गया। दानव डरे हुए थे, अतः राजा शंखचूड़ ने उन्हें अभय प्रदान किया ॥ ४७ ॥ भद्रकाली ने प्रलयकालीन अग्नि की शिखा के समान प्रकाशमान आग्नेयास्त्र शंखचूड़ पर चला दिया । राजा ने अपने पार्जन्यास्त्र से खेल-खेल में उसे बुझा दिया ॥ ४८ ॥ तदनन्तर उस काली ने अत्यन्त तीव्र तथा अद्भुत वारुणास्त्र उस पर चलाया, जिसे उस दानवराज ने अपने गान्धर्वास्त्र से लीलापूर्वक काट दिया। तब काली ने अग्निशिखा के सदृश तेजस्वी माहेश्वरास्त्र उस पर चलाया, जिसे राजा शंखचूड़ ने अपने वैष्णवास्त्र से बड़ी सहजता-पूर्वक शीघ्र ही विफल कर दिया ॥ ४९-५० ॥ इसके बाद काली ने राजा शंखचूड़ पर मन्त्रपूर्वक नारायणास्त्र चलाया। उसे देखते ही उसने रथ से उतरकर प्रणाम किया और प्रलयाग्नि की शिखा के समान तेजस्वी वह अस्त्र ऊपर की ओर चला गया। शंखचूड़ भक्तिपूर्वक दण्ड की भाँति जमीन पर पड़कर पुनः प्रणाम करने लगा ॥ ५१-५२ ॥ तत्पश्चात् देवी ने प्रयत्नशील होकर मन्त्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र चलाया, उस राजा शंखचूड़ ने अपने ब्रह्मास्त्र से उसका शमन कर दिया। तब देवी ने मन्त्रपूर्वक दिव्यास्त्र चलाया, राजा ने अपने दिव्यास्त्र के जाल से उसे भी नष्ट कर दिया ॥ ५३-५४ ॥

तत्पश्चात् देवी ने प्रयत्नपूर्वक राजा पर योजनभर लम्बी शक्ति चलायी। उसने अपने दिव्यास्त्र के जालसे उसके सैकड़ों खण्ड कर दिये । तब देवी ने कुपित होकर मन्त्र से पवित्र किया हुआ पाशुपतास्त्र उठा लिया। इसी बीच उस अस्त्र को चलाने से रोकने हेतु यह आकाशवाणी हुई — ‘महान् आत्मावाले इस राजा की मृत्यु पाशुपतास्त्र से नहीं होगी। जबतक यह भगवान् श्रीहरि के मन्त्र का कवच अपने गले में धारण किये रहेगा और जबतक इसकी साध्वी पत्नी का सतीत्व विद्यमान रहेगा, तबतक जरा और मृत्यु इसपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते’ – यह ब्रह्मा का वचन है ॥ ५५-५८ ॥ यह सुनकर भद्रकाली ने उस अस्त्र को नहीं चलाया। अब वे क्षुधातुर होकर लीलापूर्वक करोड़ों दानवों को निगलने लगीं। जब भयंकर भगवती काली शंखचूड़ को निगल जाने के लिये वेगपूर्वक उसकी ओर बढ़ीं, तब उस दानव ने अपने अत्यन्त तीक्ष्ण दिव्यास्त्र से उन्हें रोक दिया ॥ ५९-६० ॥ तदनन्तर उन भद्रकाली ने ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान तेजसम्पन्न खड्ग उसपर चला दिया । तब दानवेन्द्र शंखचूड़ ने दिव्यास्त्र से उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद महादेवी उसे खा जाने के लिये वेगपूर्वक उसकी ओर बढ़ीं, तब सर्वसिद्धेश्वर तथा श्रीसम्पन्न दानवेन्द्र शंखचूड़ ने अत्यन्त विशाल रूप धारण कर लिया ॥ ६१-६२ ॥ भयंकर रूपवाली सती काली ने कुपित होकर तेज मुष्टि का – प्रहार से उसका रथ खण्ड-खण्ड कर दिया और उसके सारथी को मार डाला ॥ ६३ ॥

तत्पश्चात् उन भद्रकाली ने उसके ऊपर प्रलयाग्नि की शिखा के समान त्रिशूल चलाया। शंखचूड़ ने अपनी लीला से बायें हाथ से उसे पकड़ लिया ॥ ६४ ॥ इसके बाद देवी ने अत्यन्त क्रोध करके बड़ी तेजी से उसपर मुष्टिप्रहार किया। उसके फलस्वरूप उसे चक्कर आ गया और वह क्षणभर के लिये मूर्च्छित हो गया। वह प्रतापी शंखचूड़ अपने तेज से थोड़ी ही देर में फिर चेतना में आकर उठ खड़ा हुआ। उसने देवी के साथ बाहुयुद्ध नहीं किया, बल्कि उन्हें प्रणाम करने लगा ॥ ६५-६६ ॥ उस शंखचूड़ ने अबतक भगवती के अस्त्रों को अपने तेज से काट दिया था अथवा उनके अस्त्रों को पकड़ लिया था, किंतु उस वैष्णव भक्त ने मातृभक्ति के कारण उनपर अस्त्र नहीं चलाया था ॥ ६७ ॥ तदनन्तर देवी ने उस दानव को पकड़कर कई बार घुमाया और कुपित होकर बड़े वेग से उसे ऊपर की ओर फेंक दिया। वह प्रतापी शंखचूड़ ऊपर से बड़े वेग से गिरा और नीचे गिरते ही उठकर खड़ा हो गया। तदनन्तर भद्रकाली को प्रणाम करके वह अत्यन्त मनोहर रत्ननिर्मित विमान पर हर्षपूर्वक आरूढ़ हो गया। उस महारण में उसने थोड़ी देर भी विश्राम नहीं किया ॥ ६८-७० ॥

इसके बाद भगवती भूख के कारण दानवों का रक्त पीने लगीं। इस प्रकार दानवों का रक्तपान तथा भक्षण करके वे भद्रकाली शंकर के पास चली गयीं ॥ ७१ ॥ [वहाँ पहुँचकर] उन्होंने आरम्भ से लेकर अन्त तक युद्ध-सम्बन्धी सभी वृत्तान्त क्रम से बतलाया । दानवों का विनाश सुनकर भगवान् शंकर हँसने लगे। भद्रकाली ने यह भी कहा — हे ईश्वर ! रणभूमि में इस समय भी एक लाख दानव बच गये हैं । जब मैं उन दानवों को खा रही थी, उस समय कुछ दानव खाने से बचकर मेरे मुख से निकल गये थे। जब मैं संग्राम में दानवेन्द्र शंखचूड़ को मारने के लिये पाशुपतास्त्र छोड़ने को उद्यत हुई, उसी समय यह आकाशवाणी हुई ‘राजा शंखचूड़ तुमसे अवध्य है ।’ महान् ज्ञानी तथा असीम बल एवं पराक्रम से सम्पन्न राजेन्द्र शंखचूड़ ने मुझ पर अस्त्र नहीं चलाया, अपितु मेरे द्वारा छोड़े गये बाण को वह काट दिया करता था ॥ ७२–७५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद- संवाद में काली-शंखचूड़-युद्धवर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

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